Thursday, March 13, 2008

दलाईलामा के खिलाफ अब हुई बगावत

आलोक तोमर
आखिरकार तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को उनके शिष्य भी नहीं झेल पाए। भारत में रह कर निर्वासित सरकार चला रहे और भारत के ही खर्चे पर पल रहे दलाई लामा इन दिनों चीन को ले कर अपने गोल-मोल रवैये से भारत सरकार ही नहीं, अपने शिष्यों के लिए भी परेशानी का कारण बने हुए हैं।

आखिर दलाई लामा तिब्बत से भारत भाग कर आए ही इसीलिए थे कि वे अपने आप को धर्म गुरु के नाते तिब्बत का शासक मानते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो वे तिब्बत की बराबरी वेटिकन से कर रहे थे, जहां पोप को राष्ट्र प्रमुख का दर्जा दिया जाता है। लगभग छयालीस साल से भारत को अनाथालय बना कर रह रहे दलाई लामा को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है। यह भी कहा जाता है कि चीन को सबक सिखाने क लिए अमेरिकी सीआईए के लोगों ने तिब्बत में बगावत को हवा दी थी और सीआईए ने ही दलाई लामा के भारत पहुंचने में मदद की थी।

जिन लोगों की दलाई लामा में अटूट आस्था है, वे सपना देख रहे थे कि अपनी परा भौतिक शक्तियों और खगोलीय राजनयिक दांव-पेंचों के जरिए दलाई लामा आखिरकार तिब्बत को आजाद देश बना लेंगे और वहां फिर बौध्द धर्म का राज चलेगा। शुरू में दलाई लामा के तेवर थे भी इसी तरह के, लेकिन बहुत दिनों तक अकारण अभिवादन प्राप्त करते हुए और फोकट का अन्न खाते हुए शायद हिज होलीनैस की मति भ्रष्ट हो गई या उम्र का असर हुआ इसीलिए अब उनका झुकाव बार-बार चीन की ओर दिखाई देता है। बीजिंग ओलंपिक के मामले में तो खास तौर पर तिब्बत की आजादी को मुद्दा बनाने की पहल उनके प्रवक्ताओं ने की थी और जब यह पहल चीन से धिक्कार के साथ लौट आई, तो उन्होंने भी अपना रुख बदल लिया और कहा कि तिब्बत को सिर्फ सीमित स्वायत्ता दे दी जाए, तो भी काम चल जाएगा। दूसरे शब्दों में वे तिब्बत में गोरखा लैंड की तर्ज पर एक प्रशासनिक ढांचा चाहते थे और हिज होलीनैस होने के बावजूद उनकी तमन्ना भूतपूर्व सिपाही सुभाष घिशिंग से ज्यादा नहीं थी। भारत सरकार तो अपनी स्थापित राजनयिक नीति की वजह से इसे झेल गई, लेकिन अपने तिब्बत का सपना देखते हुए उम्र बिता देने वाले दलाई लामा के भक्तों को यह हजम नहीं हुआ।

इसीलिए धर्मशाला और उसके पड़ोस में जो हुआ, वह हुआ। यह बात अलग है कि बीजिंग ओलंपिक के मुहाने पर तिब्बत समस्या की ओर अंतररराष्ट्रीय समुदाय का अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये खेल आयोजन के विरोध में धर्मशाला से ल्हासा मार्च की तैयारियां धरी की धरी रह गईं। रही सही कसर भारतीय पुलिस ने पूरी कर दी। विरोध मार्च के लिये निर्वासन में रह रहे तिब्बत युवा कांग्रेस व दूसरे चार संगठनों के करीब एक हजार लोग इसके लिये तैयार थे। इसकी तैयारियां निछले तीन माह से चल रहीं थीं। लेकिन तिब्बतियों के अध्यात्मिक नेता महामहिम दलाई लामा ने तिब्बत की आजादी की 49 वीं वर्षगांठ पर दिये अपने अभिाभाषण में सबका जोश ठंडा कर दिया। तिब्बति समाज में दलाई लामा की बात का सम्मान किया जाता है। लिहाजा सबकुछ बदल गया। बावजूद इसके तिब्बत युवा कांग्रेस के अध्यक्ष सेवांग रिंगजिन के नेतृत्व में तिब्बतियों का एक जत्था धर्मशाला से निकल चुका है।

लेकिन पुलिस ने साफ कर दिया है कि यह लोग कांगड़ा जिला की सीमा को पार नहीं कर पायेंगे। कांगड़ा के पुलिस अधीक्षक अतुल फुलझले ने बताया कि केन्द्र सरकार से उन्हें एक आदेश मिला है। लिहाजा मार्च को रोक लिया जायेगा। यह भारत व निवौसित तिब्बतियों के बीच ये अनुबन्ध का खुला उल्लंघन है। जिसमें भारतीय भूमि पर चीन का विरोध नहीं करने की बात है। यही वजह है कि मार्च को रोकन के आदेश प्रदेश सरकार ने भी जारी कर दिये हैं। उधर दलाई लामा ने भी चीन के प्रति अपने नरम रूख का इजहार करते ये कहा है कि तिब्बतियों को खेल आयोजन में कोई भी बाधा उत्पन नहीं करनी चाहिये। उन्होंने कहा है कि चीनी समाज पूरी उत्सुकता के साथ इंतजार कर रहा है। उन्होंने स्पष्ट किया कि वह शुरू से ही चीन में इसके आयोजन के हक में रहा॥ उन्होंने तिब्बतियों से इस खेल आयोजन में कोई बाधा उत्पन्न न की जाये। इसी बात से हम चीन समुदाय की सोच भी बदल सकते हैं। लेकिन दलाई लामा की यही बात अब तिब्बतियों के एक बड़े वर्ग को चुभने लगी है। लेकिन दर्लाईलामा इसी बात पर पिछले दिनों से चीन सरकार की अलोचनाओं के शिकार हो रहे थे , व चीन बार बार कह रहा था कि दलाई लामा आलोकिं में कोई बाधा उत्पन्न न करे। दरअसल दलाई लामा भी जानते हैं कि बदलते समय में विरोध एक सीमा में रह कर किया जा सकता है।

खुद दलाई लामा भी कह रहे हैं कि मैं जब भी तिब्बतियों की भलाई की बात अंतरराष्ट्रीय समुदाय से करता। , उन्हें बुरा लगाता है। लेकिन जब तक दोनों किसी नतीजे पर न पंचे तब तक यह खत्म नहीं होगा। मेरे कंधों पर जो जिम्मेदारी है उसे बखूबी निभाना है। सब जानते है कि मैं भी अपनी रिटायरमेंट की ओैर बढ़ रहा हूं। समय बदल रहा है। दलाई लामा ने कहा कि चीन प्रगति कर रहा है , ताकतवर राष्ट्र बन चुका है। इसका स्वागत किया जाना चाहिये। लेकिन उन्हें भी बदलना चाहिये। दलाई लामा की इसी नीति पर नई बहस छिड़ गई है।

दलाई लामा के रिटायर होने के साथ ही क्या तिब्बत का मुद्दा भी रिटायर हो जाएगा? यह सवाल दलाई लामा से तो क्या पूछा जाएगा, लेकिन भारत सरकार से पूछा जाना चाहिए कि जब धर्म गुरु खुद संधि और समर्पण की मुद्रा में हैं, तो हमें चीन के फटे में टांग अड़ाने की जरूरत क्यों महसूस हो रही है। अच्छे-खासे रिश्ते बेहतर हो रहे हैं और सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है, लेकिन हमें दलाई लामा की भक्ति के चक्कर में अपने देश का कबाड़ा करने की क्या जरूरत है और कब तक हम एक बूढ़े सफेद हाथी को ढोएंगे?
(धर्मशाला से बिजेंद्र शर्मा के साथ)


मनमोहन सरकार की मौत की मुनादी
शंभूनाथ सिंह
अमेरिका के साथ परमाणु करार का मुद््दा मनमोहन सरकार के गले की हड््डी बन गया है। इसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की राजनीतिक अदूरदर्शिता कहा जाए या उनकी सरकार की दुर्बलता माना जाए कि बिना सोचे-समझे या अपनी स्थिति का आकलन किए बगैर वह अंतरराष्ट्रीय मंच पर परमाणु करार करने की घोषणा कर आए और मसौदे पर अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ हस्ताक्षर भी कर आए। अब उसे अमली जामा पहनाने का मतलब अपनी सरकार की मौत की मुनादी करने जैसा हो गया है। करार से पीछे हटकर सरकार की मृत्यु को टाला जा सकता है, लेकिन ऐसा करके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनीतिक-कूटनीतिक साख की मौत को चकमा नहीं दिया जा सकता। देश की राजनीति में मनमोहन सिंह की जो भी हैसियत हो, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रधानमंत्री होने के नाते वह दुनिया के एक अरब लोगों का प्रतिनिधित्व करने के कारण बहुत ताकतवर शख्सीयत माने जाते हैं।

जिस अमेरिका में वह कभी नौकरी करते थे, वहां विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री के रूप में आतिथ्य ग्रहण करते समय उनका उत्साह और आत्मविश्वास चरम पर चला गया होगा और कुछ समय के लिए भूल गए होंगे कि वह जिस सरकार के मुखिया हैं, उसके शक्ति के स्रोत सरकार के भीतर नहीं, बाहर हैं। उन्होंने सोचा होगा कि अमेरिका के साथ परमाणु करार करके इतिहास बनाया जाए और देश पर तीन दशकों से लगे हुए अंतरराष्ट्रीय परमाणु प्रतिबंध को खत्म कर दिया जाए। 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था, तभी से परमाणु टेक्नोलॉजी और उसके ईंधन आपूर्ति वगैरह के मामले में भारत पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लागू हैं। क्योंकि भारत सीटीबीटी और एनपीटी जैसे अंतरराष्ट्रीय परमाणु समझौतों का हस्ताक्षरकर्ता देश नहीं है। इंदिरा गांधी ने अमेरिका और तथाकथित अभिजात्य अंतरराष्ट्रीय परमाणु क्लब के ताकतवर सदस्य देशों की परवाह किए बिना पोखरण में परीक्षण किया था। पोखरण का दूसरा परीक्षण अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में 1998 में हुआ।

उन्होंने भी बिना किसी की परवाह किए यह काम किया। मनमोहन सिंह को लगा होगा कि उनकी पार्टी की सर्वमान्य नेता इंदिरा गांधी के समय से जो परमाणु प्रतिबंध लगा हुआ है, यदि वह उनके हाथों से खत्म हो, तो यह श्रीमती गांधी के प्रति उनकी राजनीतिक श्रध्दांजलि भी होगी। लेकिन वह न तो इंदिरा गांधी और वाजपेयी जितने भाग्यशाली हैं और न ही राजनीतिक रूप से उतने ताकतवर। श्रीमती गांधी के अच्छे-बुरे फैसलों पर उस समय कांग्रेस पार्टी ही नहीं, पूरे देश में किसी की उंगली उठाने की हिम्मत नहीं थी। वाजपेयी भी गठबंधन की सरकार जरूर चला रहे थे, पर सर्वमान्य और ताकतवर नेता के रूप में जाने जाते थे। वाजपेयी की निर्भीकता भी सर्वविदित है। पोखरण्ा के परमाणु परीक्षण की तैयारियों की भनक तब रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस तक को नहीं लगी थी। इसीलिए पिछले दिनों संसद में संकटग्रस्त होने पर जब मनमोहन सिंह वाजपेयी को भारतीय राजनीति का भीष्म पितामह कहकर मदद के लिए पुकार रहे थे, तो भाजपा के नेता बैठे मुसकरा रहे थे।

भारत चूंकि अंतरराष्ट्रीय परमाणु अप्रसार संधियों का हस्ताक्षरकर्ता देश नहीं है और परमाणु शक्ति संपन्न भी है, इसलिए उसके साथ समझौता करने के लिए अमेरिका को अपने घरेलू कानूनों में ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय परमाण्ाु कानूनों में भी संशोधन करवाने के लिए ज्यादा मशक्कत करनी पड़ी है। फिर भी यदि यह करार नहीं हो पाया, तो यह बुश प्रशासन की विदेश नीति के इतिहास में विफलता के एक अध्याय के रूप में जुड़ जाएगा। अमेरिका भी इन दिनों चुनावी प्रक्रिया के दौर से गुजर रहा है। वहां के चुनावों में विदेश नीति एक बड़ा मुद््दा होती है। आठ साल से अमेरिकी सत्ता पर काबिज जॉर्ज बुश की विदेश नीति वहां वैसे भी विवाद और आलोचनाओं के घेरे में है। भारत के साथ परमाणु करार एक सकारात्मक तत्व हो सकता है, जिसकी संभावना लगातार क्षीण होती जा रही है। यही वजह है कि बुश प्रशासन का धैर्य टूट रहा है। लेकिन अमेरिकी जल्दबाजी से भारत में ऐसा लग रहा है कि परमाणु करार से अमेरिका का कोई बड़ा फायदा होने वाला है। दूसरा पक्ष यह भी उभर रहा है कि अमेरिकी दबाव में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारतीय हितों के साथ जरूर कोई न कोई समझौता कर रहे हैं, वरना इसके लिए सरकार को दांव पर लगाने की बात न करते। इस तरह परमाणु करार के दूसरे पक्ष गौण होते जा रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में भारतीय हितों को लेकर चल रही सौदेबाजी पूरी हो गई है और परमाणु ऊर्जा विभाग व विदेश मंत्रालय का प्रतिनिधिमंडल वहां से सुरक्षा उपायों के मसौदे को लेकर वापस आ चुका है। यह मसौदा भारत के अनुकूल बताया जा रहा है। सरकार को लगता था कि संयुक्त राष्ट्र की एक वैधानिक संस्था से भारतीय परमाणु हितों की संस्तुति हो जाने से देश में प्रसन्नता महसूस की जाएगी। लेकिन माकपा महासचिव कॉमरेड प्रकाश करात ने करार पर सरकार गिराने की धमकी दे दी। घबराई सरकार के विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अपने कदम पीछे खींचते हुए करार के लिए सरकार को कुरबान करने से मना कर दिया। मुखर्जी ने वाम दलों को खुश करने के लिए यह साफ कर दिया कि हम किसी समय सीमा में बंधकर काम नहीं कर सकते।

जबकि वह बखूबी जानते हैं कि यदि अगले तीन-चार महीनों में करार का अंतिम मसौदा अमेरिकी कांग्रेस के विचारार्थ नहीं पहुंचा, तो यह खटाई में पड़ जाएगा। अभी 45 देशों के परमाणु ईंधन आपूर्तिकर्ता देशों के संगठन से इस मसौदे को गुजरना बाकी है। वामपंथी यह जानते हैं कि यदि मसौदे को कुछ समय के लिए रोक लिया जाए, तो यह अपने आप ही बेमतलब हो जाएगा। इसलिए उन्होंने सरकार को बताया है कि मसौदे का ठीक से अध्ययन करने के लिए उन्हें कम से कम दो-तीन महीने का समय लगेगा। सवाल यह उठता है कि वाम दल अमेरिका के नाम पर अपने देश के हितों को स्थगित करने को क्यों तत्पर हैं?

इसकी वजह वाम राजनीति की अपने हितों की रक्षा करना है। वामपंथी जानते हैं कि अमेरिका से भारत का कोई समझौता हो जाता है, तो आसमान नहीं टूट पड़ेगा। लेकिन वे यह भी जानते हैं कि शीतयुध्द का दौर खत्म होने के बाद अमेरिका को यदि कोई अपना दुश्मन नंबर एक मानता है, तो वह है अंतरराष्ट्रीय मुसलिम समुदाय।

इसलिए यदि विकट अमेरिकी विरोध के जरिये देश के बीस करोड़ मुसलिम मतदाताओं को अपना
बंधक बनाया जा सकता है, तो यह घाटे का सौदा नहीं है। उन्होंने करार पर राजनीति करके मुसलमानों की नजरों में कांग्रेस को भी गिराने का काम किया है। एक कॉमरेड की व्यंग्यात्मक टिप्पणी थी कि भारतीय मुसलमान मानें या न मानें, पर आज की तारीख में अमेरिका के दुनिया में दो ही विश्वसनीय शत्रु बचे हैं। एक, अल कायदा और दूसरा, भारत की वामपंथी पार्टियां।
(शब्दार्थ)

कालाहांडी से डर गए 'युवराज'?
असगर वजाहत
राहुल गांधी शासक दलों के एक घटक के महामंत्री हैं। इन्हें मीडिया प्रेमवश युवराज कहकर संबोधित करता है। वह सोनिया गांधी के सुपुत्र हैं। इसलिए यह बात समझ में नहीं आती कि उन्हें कालाहांडी के आदिवासियों की समस्याओं को समझने के लिए वहां जाने की जरूरत क्यों आन पड़ी।

क्या वहां की खबरें उन तक नहीं पहुंचतीं? या उन ख़बरों पर राहुल गांधी को विश्वास नहीं है? वह अपनी पार्टी के किसी विश्वसनीय आदमी को कालाहांडी भेजकर वहां के लोगों की समस्याओं की जानकारी क्या नहीं ले सकते थे? या उनके पास ऐसा विश्वसनीय कोई आदमी नहीं है? क्या यहां के मीडिया पर उन्हें विश्वास नहीं है? क्या वह सरकारी-अर्ध्दसरकारी संस्थाओं के आंकड़ों पर विश्वास नहीं करते? क्या कालाहांडी कोई ऐसी दुर्गम जगह है, जहां के बारे में अब तक देश को कुछ पता नहीं? फिर वह कालाहांडी क्यों गए? क्या सिर्फ इसलिए कि उनके पिता जी और दादी जी भी वहां गए थे?

अगर कालाहांडी जाने की यही वजह है, तो उनका वहां न जाना ही उचित होता, क्योंकि उनके पिताजी ने, और उससे पहले उनकी दादी जी ने कालाहांडी के गरीब आदिवासी लोगों से बहुत से वायदे किए थे। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि कालाहांडी के लोग राहुल गांधी से उन वायदों की चर्चा करने लगे।

यह भी पता चला है कि उन्होंने कालाहांडी में किसी आदिवासी घर में खाना खाया। इससे पहले वह बुंदेलखंड में भी एक दलित परिवार के यहां खाना खा चुके हैं। दलितों और आदिवासियों के घर खाना खाकर वह आखिर क्या साबित करना चाहते हैं? क्या वह दलितों या आदिवासियों के बारे में जानना चाहते हैं? क्या वह खान-पान की इनकी आदत पर कोई किताब लिख रहे हैं? सवाल यह है कि आदिवासी के घर भोजन करके वह उनकी कौन-सी समस्या का समाधान कर देंगे?

आज देश के दुर्गम से दुर्गम ग्रामीण क्षेत्र के बारे में सभी जानकारियां उपलब्ध हैं। अगर ज्यादा जानकारी चाहिए, तो पी. साईनाथ जैसे दिग्गज पत्रकार से बात की जा सकती है, जिन्होंने अपना जीवन ही वंचितों की बेहतरी के लिए समर्पित कर दिया। लिहाजा राहुल गांधी को दुर्गम इलाकों में जाकर अपना समय बरबाद करने की कोई जरूरत नहीं थी। बेहतर होता कि वह अपने बहुमूल्य समय का उपयोग देश की गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, जड़ता और धर्मांधता समाप्त करने में लगाते। इससे इस देश का कुछ कल्याण होता। लेकिन इसके बजाय उन्हें रोड शो करने की सलाह दी जाती है और वह वैसा ही करते हैं। जबकि ऐसे रोड शो का कोई फायदा नहीं। चुनावों में इसका लाभ उनकी पार्टी को नहीं मिला।

उनके ऐसे दौरों से उलटे परेशानियां ही ज्यादा होती हैं। मसलन, अगर उनकी उड़ीसा यात्रा को देखें, तो कालाहांडी और उस इलाके के उनके दौरे ने स्थानीय प्रशासन के लिए परेशानियां ही खड़ी कर दीं। प्रशासन जनता को छोड़ कर उनकी सुरक्षा और सुविधा का बंदोबस्त करने में जुटा रहा। न जाने ऐसे मामले में हमारे नेताओं को कभी कोई अपराध बोध क्यों नहीं होता। वे यह क्यों महसूस नहीं कर पाते कि उनकी सुविधा और सुरक्षा के कारण बहुत से लोगों का समय बरबाद होता है, वे अपनी जिम्मेदारी से विमुख होते हैं।

राहुल गांधी को जानना चाहिए कि इस देश की समस्याएं जग जाहिर हैं। यह सब कुछ जानने के लिए दलित, आदिवासी परिवारों के साथ खाना खाने या चुनावी रोड शो करने की जरूरत नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस के राजनीतिक नेतृत्व में उन समस्याओं से जूझने की इच्छा है? पूरा देश जानता है कि हमारे समाज में अमीरों और गरीबों के बीच बहुत बड़ा अंतर आ गया है। आर्थिक मजबूती की खुशफहमी में हाशिये केलोगों के दुखों की अनदेखी हो रही है। यहां लोकतंत्र की परंपरा कितनी भी मजबूत क्यों न हो, सामाजिक न्याय का रिकॉर्ड उतना अच्छा नहीं है। यह परिदृश्य भयावह और अमानवीय है। हमारी नीतियां धनवानों की ओर झुकी हुई हैं।

यही कारण है कि देश में जिस तेजी से खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, उसी तीव्रता से भुखमरी, अकाल, शोषण, आत्महत्या, बेरोजगारी भी बढ़ रही है। क्या राहुल गांधी और उनकी पार्टी के पास इसका कोई इलाज है? जाहिर है, इन समस्याओं का समाधान सिर्फ रोड शो से या केंद्र में सरकार बन जाने से नहीं होगा। कांग्रेस के युवराज को समझना चाहिए कि गरीब के घर खाना खा लेने, उन्हें माला समर्पित कर देने, बच्चों को गोद में उठा लेने, सिर पर टोकरा उठा लेने जैसे नुसखे अब पुराने पड़ गए हैं। उन्हें समझना चाहिए कि देश की मुख्य समस्याओं से आंखें चुराने के नतीजे बहुत भयानक निकलते हैं। सांप्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद के दानव आज बहुत विकराल हो गए हैं। कहीं ये पूरे देश को निगल न लें!
(शब्दार्थ)

8 comments:

Anonymous said...

दलाई लामा देश के छाती पर बोझ हैं और हमारी लोकतांत्रिक अस्मिता के लिए एक चुमकुती भी. हम अगर तसलीमा नसरीन को स्वीकार नहीं कर सकते तों दलाई लामा हमारा दम्मद क्यों लगता है. इस हिसाब से कश्मीरी जेहादियों को आज़ादी के सिपाही की इज्ज़त देनी छाहिये.. अलोक तोमर के बरे में यह मानना पड़ेगा कि वे इस मुद्दे को लगातार उठाते आ रहे हैं. हमें उनका साथ देना चाहिए.

Anonymous said...

पूज्य दलाई लामा के बारे में आपत्ति है तों मोठेर तेर्सा भारत रत्न कैसे बन गयी? हिटलर ने सुभाष चंद्र बोस को पुरी सेना बना कर दी थी उसके बारे में क्या? आलोक ने ये लेख सनसनी फैलाने के लिए लिखा है.

Anonymous said...

I AM TOLD ABOUT THIS OUTLANDISH ARTICLE BY MR. ALOK TOMAR AND I STRONGLY OBJECT TO IT. H H. DALAI LAMA IS NOT JUST ANOTHER HUMAN BEING. HR IS GOD AND SHOULD BE TREATED THUS.

Anonymous said...

राजकुमार भारत की खोज पर निकले हैं। उनके मुताबिक भारत को जानने के लिए उसके गांवो को जानना जरूरी है। दिल्ली से दूर उड़ीसा के जंगलों की ख़ाक छानना जरूरी है। चलो अच्छा हुआ कम से कम उन्होंने ये तो माना कि उन्हें भारत के बारे में जानना अभी बाकी है। भले ही देश की सबसे बड़ी पार्टी के वो महासचिव हैं लेकिन भारत के बारे में जानना अभी बाकी है। राजकुमार हैं, आप को तो पता ही है राजकुमारों के नखरे भी आने दो चार आने के तो होते नहीं। बार-बार वही राय बरेली, वही अमेठी उन्हें भी राजमाता के ऊपर गुस्सा आ गया होगा। उन्होंने कहा नहीं मैं भारत की खोज करूंगा। भारत तो हर जगह बसता है फिर आप मुझे हमेशा अमेठी, रायबरेली ही क्यों भेजती हैं। थोड़ा मौसम, मिजाज़ बदलना चाहिए कि नहीं। राजमाता उन्हें बहलाती- अरे ये तो तुम्हारे बाप-दादों की नगरी है। यहीं से भारत शुरू होता है यहीं भारत खत्म हो जाता है। जैसे दस जनपथ के भीतर कांग्रेस शुरू होती है और मुख्य गेट तक आते आते खत्म। इससे इतर किसी कांग्रेस का कोई वजूद नहीं हो सकता।
फिर राजकुमार ने अपने देश को खोजने में 38 साल की उमर क्यों गुजार दी? दस जनपथ को घेरे रहने वाले चंपुओं ने उनमें उनकी दादी के गुण देखे थे। जिसे बिना कुछ किए ही राजसत्ता हासिल हो जाएगी। चंपुओं ने उन्हें विश्वास दिला दिया था कि आपके मस्तक पर राज्याभिषेक की रेखाएं चमक रही हैं। इसमें कौन सी नई बात है। वो तो उस चहारदीवारी की महिमा है। लेकिन धीरे-धीरे यूपी आया गया, पंजाब, उत्तराखंड आया गया, गुजरात भी आया और चला गया राजकुमार के मस्तक की रेखाओं ने कोई जादू नहीं दिखाया। तब चंपुओं को लगा कि इस राजकुमार में न बाप वाला लच्छेदार इक्कीसवीं सदी का विज़न है और न ही दादी वाला चमत्कारी तेज़। सत्ता हिलती दिखने लगी चंपुओं को। जिस राजकुमार के भरोसे अपनी गोटियां फिट की थी वो तो कोई चमत्कार नहीं दिखा पा रहा है। कहते हैं पूत के पांव पालने में दिखते हैं, ये राजकुमार तो कोई असर ही नहीं छोड़ पा रहा है। तभी जमात के बीच से किसी ने सुर्रा छोड़ा अरे भाई राजकुमार को “भारत दर्शन” करवाओ। एक तरफ पार्टी की नैया पार लगेगी दूसरी ओर अपना भी कल्याण होगा। दीन-हीन भारतीय जब जीवन का चौथा आश्रम देखता है तो उसे मुक्ति का सिर्फ एक ही रास्ता दिखता है चारो धाम की तीरथ यात्रा। इहलोक और परलोक सुधारने का असहाय हिंदुस्तानी के पास यही एक जरिया है। दस जनपथ को घेरे बैठे चंपुओं को भी अपना कल्याण इसी में नज़र आया कि राजकुमार भारत की खोज करें और अपना इहलोक और परलोक सुधारें।
इस तरह शुरू हुई है राजकुमार की भारत खोजो यात्रा। इसी तरह से चुनावी मौसम को भांप कर जंग लगे लौहपुरुष ने भारत उदय करने का बीड़ा उठाया था। पर नतीजा सबके सामने है। राजकुमार की इस खोज का नतीजा क्या होगा भगवान जाने। लेकिन उनके सहारे अपनी नैया मंझधार से पार लगाने की फिराक में बैठे चंपुओं की इस बार ख़ैरियत नहीं होगी। जो राजकुमार की हर विफलता के बाद एक नया झुनझुना लेकर हाजिर हो जाते हैं। आखिर राजमाता को भी राजकुमार की चिंता है। आखिर कब जवान होगा ये राजकुमार, या फिर उसके बस की भी है हिंदुस्तानी राजसमाज की टेढ़ी-रपटीली राहों का सफर या सिर्फ झुनझुनों और मेरे पिताजी मेरी दादीजी के नाम पर “सड़क दिखावा” (रोड शो) करता रहेगा। राजमाता गुस्से में हैं, और राजकुमार है कि अभी तक ठीक से राजनीति की एबीसीडी भी नहीं सीख सका। कभी कहता है एक रूपए का पांच पैसा विकास में नहीं लगता तो कभी कहता है मेरी दादीजी ने पाकिस्तान को बांट दिया। अरे चंपुओं 38 की उम्र भारत और राजनीति समझने के लिए बहुत होती है और वैसे तो भारत को खोजने के लिए पूरी उमर भी कम पड़ जाएगी। उन्हें अब तक नहीं समझ आयी तो अब क्या आएगी? लेकिन तुम्हारी तो रोजी-रोटी इसी पर टिकी है। वरना भारत को खोजने के लिए 38 साल नहीं लगते।
अतुल चौरसिया

Anonymous said...

dalai lama se aap ka jhagda kab hua tha

Anonymous said...

जनसत्ता के बारे में ये भी पढ़ें ---
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE

Anonymous said...

जनसत्ता के बारे में पढ़ा। अच्छा लगा। भगवान करें कि आप इसे जीवित करें, क्योंकि राहुल देव से लेकर ओम थानवी तक ने इस अखबार को रखैल की तरह इस्तेमाल किया।

Anonymous said...

aap jansatta ko durust karen kyunki rahul dev se lekar om thanvi tak ne iski maa bahan ki hai.