भगत सिंह की वैचारिक हत्या के हिस्ट्रीशीटर हैं राजकिशोर
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पिछली प्रविष्टि से आगे…
राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्या का यह पहला प्रयास नहीं है। इससे पहले भी वह लगभग दो साल पहले जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ को माध्यम बना कर यह काम कर चुके हैं । खैर उसकी बात लेख के अंत में करेंगे फिलहाल इस बार के लेख में राजकिशोर संविधान के निर्माण के जरिए भगतसिंह के सम्मान और संविधान सभा में गहरी और ईमानदार बहस की बात कर रहे है। सबसे महत्वूपर्ण बात यह है कि भगतसिंह समेत एचएसआरए के क्रांतिकारी न केवल यह मानते थे कि राष्ट्रीय मुक्तिसंघर्ष का लक्ष्य समाजवाद की स्थापना होनी चाहिए, बल्कि वे पूरे साम्राज्यवादी विश्व में एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के शोषण के भी विरोधी थे और अपनी लड़ाई सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेशवाद से नही बल्कि साम्राज्यवाद की विश्व व्यवस्था से मानते थे और भारत में भी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना को अपना लक्ष्य मानते थे। और इस दौर में भी भगतसिंह और उनके साथी इस बात को समझने लगे थे कि कांग्रेस के झण्डे तले गांधी जी ने व्यापक जनता के एक बड़े हिस्से को भले ही जुटा लिया हो, पर कांग्रेस उनके हितों की नुमाइन्दगी नहीं करती, बल्कि देशी धनिक वर्गों के हितों की नुमाइन्दगी करती है और यह कि कांग्रेस की लड़ाई का अंत किसी न किसी समझौते के रूप में ही होगा। ऐसे मे संविधान के निर्माण और संविधान सभा की इन ‘’ईमानदार बहसों’ से ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारतीय पूंजीवाद के अंत को अपना आदर्श मानने वाले भगतसिंह के विचारों का सम्मान हुआ या घोर अपमान इसकी असलियत संविधान के निर्माण की प्रक्रिया के इतिहास पर रोशनी डाल कर पहचानी जा सकती है। लेकिन उससे पहले यह पढ़ लीजिए:
1931 में भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा तैयार ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में कहा गया है, ” क्रान्ति से हमारा क्या आशय है…जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रान्ति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं…।”
संविधान के निर्माण की प्रक्रिया
मार्च, 1946 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने अपने मंत्रिमण्डल के तीन सदस्यों का प्रतिनिधिमण्डल भारत भेजा जिसे प्रमुख राजनीतिक दलों, गणमान्य नागरिकों और देशी रियासतों के प्रमुखों से विचार-विमर्श के बाद सत्ता-हस्तान्तरण की योजना तैयार करनी थी। 16 मई 1946 को ‘कैबिनेट मिशन’ नाम से प्रसिद्ध उस दल ने अपनी योजना घोषित की जिसे सभी पक्षों ने स्वीकार किया। कैबिनेट मिशन की मूलभूत शर्तें इस प्रकार थीं:
1. भारत का बंटवारा नहीं होगा। इसका ढांचा संघीय होगा। 16 जुलाई, 1948 को सत्ता हस्तान्तरित की जायेगी। इसके पूर्व संघीय भारत का संविधान तैयार कर लिया जायेगा।
2. संविधान लिखने के लिए 389 सदस्यों की संविधान सभा का गठन किया जायेगा जिसमें 89 सदस्य देशी रियासतों के प्रमुखों द्वारा मनोनीत किये जायेंगे।
3. शेष 300 सदस्यों का चुनाव ब्रिटिश शासित प्रान्तों की विधायिका के सदस्यों द्वारा किया जायेगा। इन 300 में से मुसलमानों के लिए आरक्षित 78 सीटों का चुनाव मुस्लिम समुदाय द्वारा ही किया जायेगा।यहां यह बात उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश शासित प्रान्तों की विधानसभाओं के सदस्यों का चुनाव ‘भारत सरकार अधिनियम - 1935’ के अनुसार सीमित मताधिकार के आधार पर हुआ था। उक्त अधिनियम के अनुसार मात्र 15 प्रतिशत व्वयस्क नागरिकों को ही मत देने का अधिकार था (जो कुल आबादी के 0.5 प्रतिशतही थे)। शेष 85 प्रतिशत नागरिक मताधिकार से वंचित थे।
4. संविधान सभा सम्प्रभुता सम्पन्न नहीं होगी। वह कैबिनेट मिशन प्लान 1946 के अन्तर्गत संविधान लिखेगी जिसे लागू करने के लिए ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति अनिवार्य होगी।
5.इस दौरान भारत का शासन प्रबन्ध भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत होता रहेगा जिसके लिए केन्द्र में एक सर्वदल समर्थित अन्तरिम सरकार गठित की जाएगी।
जुलाई, 1946 में संविधान सभा का चुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस को 199 सीटें और 13 का समर्थन प्राप्त हुआ , मुस्लिम लीग को 72 सीटें मिलीं तथा 16 पर अन्य विजयी हुए। बाद में हालात ऐसे बने कि मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बॉयकाट कर दिया और पाकिस्तान की मांग को लेकर ‘सीधी कार्रवाई’ का ऐलान कर दिया । सितम्बर, 1946 में अन्तरिम सरकार का गठन हुआ जिसके प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू बने। 9 दिसम्बर को को संविधान सभा की पहली बैठक बुलाई गई, जिसमें राजेंद्र प्रसाद को अध्यक्ष चुना गया। 13 दिसम्बर को संविधान की प्रस्तावना पेश की गई और 22 जनवरी 1947 को उसे स्वीकार किया गया। लीग और रियासतों के मनोनीत प्रतिनिधियों के बॉयकाट के बाद (महज 15 प्रतिशत नागरिकों द्वारा निर्वाचित) संविधान सभा के कुल 55 प्रतिशत सदस्यों ने उसे स्वीकार किया। विभाजन के बाद इसी प्रस्तावना को भारतीय संविधान की दार्शनिक आधारशिला के रूप में स्वीकार किया गया। उल्लेखनीय है कि 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा ने प्रस्तावना को ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के लिए भेजने के लिए पारित किया था क्योंकि उस समय वह ब्रिटिश संसद के मातहत ही काम कर रही थी। 15 अगस्त 1947 को भारत को अधिराज्य घोषित कर दिया गया। डोमेनियन इसलिए कि संविधान तैयार होने तक, इनका शासन-प्रबन्ध ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारत सरकार अधिनियम 1935’ से ही संचालित होना था।1946 में गठित उसी संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान के आधार पर 26 जनवरी, 1950 को भारत को जनतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया और इसके भी तीन वर्षों पश्चात 1952 में देश के पहले आम चुनाव हुए।
तो यह थी संविधान सभा और संविधान निर्माण की प्रक्रिया, यह सच्चाई दिन के उजाले की तरह साफ है कि संविधान सभा को संविधान बनाने के लिए, भारतीय जनता ने नहीं बल्कि ब्रिटिश संसद ने अधिकृत किया था। उक्त संविधान सभा का चुनाव सार्विक मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष चुनाव के द्वारा नहीं, बल्कि15 फीसदी उच्चवर्गीय नागरिकों द्वारा परोक्ष चुनाव की विधि से हुआ था। यह बात भी केवल ब्रिटिश शासित प्रान्तों के दो तिहाई भूभाग के लिए लागू होती है। एक तिहाई भूभाग वाले देशी रियासतों के इलाकों से प्रतिनिधियों को मनोनीत किया गया था-राजाओं-नवाबों के द्वारा।भारत के लोगों द्वारा भारतीय संविधान की पुष्टि कभी नहीं कराई गई, बल्कि संविधान के भीतर ही धारा 394 डालकर इसे पूरे देश की जनता पर थोप दिया गया। यहां तक कि ”केशवानंद भारतीय बनाम केरल राज्य” (19731) के मामले में उच्चतम न्यायालय के 13 जजों की संविधान पीठ के 12 सदस्यों ने एकमत से यह कहा है कि भारतीय संविधान के स्रोत भारत के लोग नहीं हैं बल्कि संविधान लिखने के अधिकार संविधान सभा को ब्रिटिश संसद ने दिया था। जस्टिस मैथ्यू ने स्पष्ट कहा है, ” यह सर्वविदित है कि संविधानकी प्रस्तावना में किया गया वायदा ऐतिहासिक सत्य नहीं है। अधिक से अधिक सिर्फ यह कहा जा सकता है कि संविधान लिखने वाले संविधान सभा के सदस्यों को मात्र 28.5 प्रतिशत लोगों ने अपने परोक्ष मतदान से चुना था और कौन ऐसा है जो उन्हीं 28.5 प्रतिशत लोगों को भारत मान लेगा?” इस संविधान के निर्माण की प्रक्रिया सच्चे अर्थों में जनवादी तभी हो सकती थी जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत की जनता सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा का चुनाव करती, या वह जिस विधायिका का चुनाव करती वह खुद ही संविधान सभा का भी काम करती अथवा संविधान सभा का चुनाव करती। भारतीय संविधान पश्चिमी पूंजीवादी उद़देश्यों के संविधानों से थोक भाव से जुमले उधार लेने और धुंआधार लफ्फाजी करने के बावजूद इस सच्चाई को छुपा नहीं पाता कि यह संविधान भारतीय जनता को अत्यंत सीमित जनवादी अधिकार प्रदान करता है और उन्हें भी छीन लेने के प्रावधान इसी के भीतर मौजूद हैं। शासक वर्ग के लिए आपातकाल के असीमित अधिाकारइसी संविधान के भीतर मौजूद हैं और घोषित मूलभूत अधिकारों को सीमित करने के रास्ते भी इसी के भीतर हैं। नीति निर्देशक सिध्दांतों के रूप में समाजवादी रंग-रोगन लगाते हुए संविधान में ”कल्याणकारी राज्य” के पश्चिमी पूंजीवादी मॉडलों की थोड़ी बहुत नकल भी की गई है, पर इन नीति निर्देशक सिंध्दांतों को मानने की कोई भी बाध्यता या लागू करने का कोई समयबध्द लक्ष्य शासक वर्ग के सामने नहीं रखा गया है और अब, आधी सदी बाद इन नीति-निर्देशक सिंध्दांतों को पढ़कर केवल ठठाकर हंसा ही जा सकता है। संविधान का मूल ढांचा वही है जो ब्रिटिश औपनिवेशक सत्ता ने तैयार किया था। वही आई.पी.सी, सी.आर.पी.सी, सम्पत्ति व उत्तराधिकार के वही कानून, कोर्ट-कचहरी का वही ढांचा, वही वकील-पेशकार, वही नजराना-शुकराना। आम नागरिक की स्थिति कानून व्यवस्था के सामने पुराने रैयतों जैसी ही है। और कानून-व्यवस्था से भी छन-रिसकर कुछ जनवादी और नागरिक अधिकार बचजाते हैं तो वे नौकरशाही और थाना-पुलिस की जेब में अटक जाते हैं।
ऐसे में भगतसिंह के नाम पर संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का हवाला देते हुए क्रांति की बात करना भगतसिंह कीवैचारिक हत्या की साजिश ही कही जा सकती है।भगतसिंह आम जनता के राज्य की बात करते थे और जिस संविधान का निर्माण ही मुट़ठीभर धनिक लोगों ने अपने ब्रिटिश आकाओं के रहमोकरम पर किया हो वह क्रांति की इजाजत देगा?वैसे भी राजकिशोर भगतसिंह की हत्या के मामले में हिस्ट्रीशीटर हैं। जी हां, आज से दो साल पहले जनसत्ता में ही उन्होंने इसीतरह का घृणित कार्य किया था जिसका जवाब भी सत्यम ने दिया था। वह लेख मैंने तभी टाइप करके कम्प्यूटर में सुरक्षित रखा था। उसका शीर्षक फाइल करप्ट होने के कारण समझ नहीं आ रहा है लेकिन लेख जस का तस है।जनसत्में छपे राजकिशोर के हालिया लेख में दिए गए कुतर्कों को उजागर करने के लिए उस लेख के कुछ अंश भी हाजिर हैं:
‘जनसत्ता’ के 5 अक्टूबर के अंक में ‘भगतसिंह की ओट में’ राजकिशोर ने इतिहास के तथ्यों के साथ जमकर तोड़-मरोड़ की है। भगतसिंह के रास्ते में क्रान्तिकारी हिंसा का कोई स्थान नहीं था यह सिद्ध करने के लिए वह किन्हीं अनाम दस्तावेजों का जिक्र करते हैं। उनका दावा है कि ”हाल ही में प्रकाशित” भगतसिंह के दस्तावेजों से ”सूरज की रोशनी की तरह साफ है कि भगतसिंह का रास्ता हिंसा का रास्ता नहीं था।” उन्होंने ऐसे किसी दस्तावेज का नाम बताने की जरूरत नहीं समझी लेकिन अपने (कु) तर्कों के समर्थन में जिस एकमात्र लेख ”बम का दर्शन” का हवाला उन्होंने दिया है, आइये पहले उसी पर नजर डालते हैं।
‘बम का दर्शन’ दरअसल महात्मा गांधी के लेख ‘बम की पूजा’ के जवाब में क्रान्तिकारियों का पक्ष स्पष्ट करने के लिए लिखा गया था। भगवतीचरण वोहरा ने इसे लिखा था और भगतसिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया था। 26 जनवरी, 1930 को इसे देश भर में बांटा गया था। इसमें भगतसिंह साफ-साफ लिखते हैं, ”क्रान्तिकारियों का विश्वास है कि देश को क्रान्ति से ही स्वतंत्रता मिलेगी। वे जिस क्रान्ति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रान्ति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों और उनके पिट्ठुओं से क्रान्तिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जायें” (भगतसिंह और साथियों के दस्तावेज, सं. जगमोहन सिंह व चमनलाल, राजकमल प्रकाशन, पृ. 369)Aइसी लेख में आगे एक बार फिर एकदम स्पष्ट शब्दों में कहा गया है, ”क्रान्तिकारी तो उस दिन की प्रतीक्षा में हैं जब कांग्रेसी आन्दोलन से अहिंसा की यह सनक समाप्त हो जायेगी और वह क्रान्तिकारियों के कंधो से कंधाा मिलाकर पूर्ण स्वतंत्राता के सामूहिक लक्ष्य की ओर बढ़ेगी (उपरोक्त, पृ. 373)। इसी लेख में भगतसिंह ने एक अपील की है कि जिसे आज पढ़ते हुए लगेगा मानो वह राजकिशोर जैसे लोगों को ही संबोधिात हो, ”हम प्रत्येक देशभक्त से निवेदन करते हैं कि वे हमारे साथ गम्भीरतापूर्वक इस युध्द में शामिल हों। कोई भी व्यक्ति अहिंसा और ऐसे ही अजीबो-गरीब तरीकों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर राष्ट्र की स्वतंत्राता से खिलवाड़ न करे (उपरोक्त, पृ. 376)Aये चंद पंक्तियां ही नहीं पूरा लेख गांधी जी के अहिंसक रास्ते के बरक्स क्रान्तिकारियों के सशस्त्र प्रतिरोधों के रास्ते की वकालत करता है। लेकिन राजकिशोर लिखते हैं, ”’बम का दर्शन’…बराबर उपलब्ध रहा है। इसके बावजूद, दुर्भाग्यवश, भगतसिंह की छवि सशस्त्र प्रतिरोधों के दावेदार की बनी हुई है।” अब इसे क्या माना जाये? या तो इस सर्वसुलभ लेख का हवाला देने से पहले राजकिशोर ने इसे पलटकर भी नहीं देखा, या फिर उनकी ”नीयत” के बारे में राजेन्द्र यादव की टिप्पणी पर यकीन किया जाये?
अगर राजकिशोर का इरादा हिंसा-अहिंसा के प्रश्न पर, या भगतसिंह के रास्ते के सही या गलत होने पर बहस चलाने का होता, तो बात और थी। लेकिन वह बहस नहीं चलाते, आलोकधान्वा की कविता के बहाने वह क्रान्तिकारी हिंसा के रास्ते के विरुध्द फतवा देते हैं, और इसके लिए तथ्यों के साथ मनमाना तोड़-मरोड़ करते हैं।इसलिए आइये, इस बारे में भगतसिंह के विचारों की कुछ और बानगियाँ देखते हैं।
फांसी दिये जाने से ठीक तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु ने पंजाब के गवर्नर को पत्रा लिखकर मांग की कि उन्हें फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये क्योंकि वे युध्दबंदी हैं। पत्र के शब्द थे :”…अंग्रेजों और भारतीय जनता के बीच युध्द छिड़ा हुआ है। …बहुत संभव है कि यह युध्द भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले। …यह तब तक खत्म नहीं होगा जब तक समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता।”जेल में लगातार अधययन और चिन्तन कर रहे भगतसिंह के दिमाग में भारतीय क्रान्ति के मार्ग की एक साफ तसवीर उभर रही थी जो कांग्रेस और गांधाी के रास्ते से एकदम अलग तो थी ही, भारतीय क्रान्तिकारियों की उस समय तक की राह से भी बिलकुल जुदा थी। फांसी से करीब एक महीना पहले लिखे ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में भगतसिंह ने एक क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के बारे में लिखा जिसकी ”मुख्य जिम्मेदारी यह होगी कि वे योजना बनायें, उसे लागू करें, प्रोपेगंडा करें, अलग-अलग यूनियनों में काम शुरू कर उनमें एकजुटता लायें, उनके एकजुट हमले की योजना बनायें, सेना व पुलिस को क्रान्ति-समर्थक बनायें और उनकी सहायता या अपनी शक्तियों से विद्रोह या आक्रमणकी शक्ल में क्रान्तिकारी टकराव की स्थिति बनायें, लोगों को विद्रोह के लिए प्रयत्नशील करें और समय पड़ने पर निर्भीकता से नेतृत्व दे सकें” (क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा, पूर्वोक्त, पृ. 403)। उपरोक्त कथन की व्याख्या किसी और अर्थ में करने की बात अगर कोई सोचे भी तो ‘मसविदे’ में ‘क्रान्तिकारी पार्टी’ उपशीर्षक के तहत दिया गया यह प्रस्ताव इसकी गुंजाइश खत्म कर देता है : ”ऐक्शन कमेटी : इसकारूप साबोताज, हथियार-संग्रह और विद्रोह का प्रशिक्षण देने के लिए एक गुप्त समिति। ग्रुप (क)नवयुवक : शत्रु की खबरें एकत्र करना, स्थानीय सैनिक सर्वेक्षण। ग्रुप (ख)विशेषज्ञ : शस्त्र-संग्रह, सैनिक प्रशिक्षण आदि” (पूर्वोक्त, पृ. 404)A लेखक: सत्यम
…………………………….समाप्त…………………..
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March 25, 2007
राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्या
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 10:00 pm
पिछले लेख से आगे
राजकिशोर ने भगतसिंह की ही आड़ में भगतसिंह की वैचारिक हत्या की है। उन्होंने बेहद ढिठाई से उस व्यवस्था (पूंजीवादी) के संविधान को क्रान्ति का कानूनी दस्तावेज बताया है जिसे भगतसिंह और उनके साथी बलपूवर्क उखाड़ने की बात कहते थे। 6 जून, 1929 को ‘बमकांड पर सेशन कोर्ट में बयान’ में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्पष्ट तौर पर लिखा था, ‘‘देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात है समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है, और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। क्रांति से हमारा मतलब अंततोगत्वा एक ऐसी समाज व्यवस्था की स्थापना से है जो इस बात के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा। जिसके फलस्वरूप स्थापित होने वाला विश्व संघ पीडि़त मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।
सामयिक चेतावनी
यह है हमारा आदर्श। इसी आदर्श से प्रेरणा लेकर एक सही तथा पुरजोर चेतावनी दी है। लेकिन अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन व्यवस्था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोड़े अटकाने से बाज न आई तो क्रांति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध छिड़ना अनिवार्य है। सभी बाधाओं को रौंदकर उस युद्ध के फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र की स्थापना होगी। यह अधिनायकतंत्र क्रांति के आदर्शों की पूर्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा।…’’
राजकिशोर इस बात का जवाब दें कि क्या भारतीय संविधान वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था पर अधिकार कर शोषण मुक्त समाज की स्थापना का अधिकार देता है? उस मेहनतकश वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना की स्वतंत्रता प्रदान करता है, जिसकी बात भगतसिंह ने की थी? अगर नहीं, तो उनके इस लेख को भगतसिंह की वैचारिक हत्या कहना गलत नहीं होगा।
… जारी
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March 24, 2007
भगतसिंह के शहादत दिवस पर राजकिशोर का वैचारिक वमन
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 2:49 pm
लगता है अखबारों के लिए भाड़े पर कलम घिसते-घिसते राजकिशोर जी बौद्धिक दीवालिएपन के शिकार हो गए है और उनकी कलम बांझपन की। भगतसिंह के शहादत दिवस पर जनसत्ता में छपे उनके लेख से तो यही साबित होता है। 23 मार्च को भगतसिंह का शहादत दिवस था। इस मौके पर जनसत्ता ने प्रख्यात ”बुद्धिजीवी” राजकिशोर के वैचारिक वमन को अपने संपादकीय पृष्ठ पर पर्याप्त जगह दी। इस लेख में राजकिशोर ने भगतसिंह के उद्धरण देते हुए भारत के नौजवानों को प्रेरित (भ्रमित) करने की पुरजोर कोशिश है, मुझे लगता है कि इस लेख को पढ़ कर कोई क्रान्तिकारी बने या न बने, भ्रान्तिकारी जरूर बन जाएगा और अपने संपर्क में आने वाले और लोगों को भी राजकिशोर के वैचारिक विभ्रम का शिकार बनाएगा। चलिए! अब इन भ्रामक तथ्यों और विचारों का बिंदुवार विश्लेषण भी कर लिया जाए।
लेख के चौथे पैरा में (शुरुआती तीन पैरा में उजागर हुए उनके दिमागी ढुलमुलपन की चर्चा बाद में करेंगे)लिखा है, ”…भगत सिंह के चिंतन में हमें भारत की सभी समस्याओं का हल मिल जाता है। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे गांधी के विचार और आचरण में…।” भई, अलग-अलग वैचारिक धरातल पर भारतीय समस्याओं का समाधान बताने वालों का रास्ता एक नहीं हो सकता और ऐसे में तय करना पड़ता है कि किसका रास्ता सही और व्यावहारिक है और एक बार तय कर लेने के बाद उसी रास्ते पर चलना चाहिए। लेकिन राजकिशोर जी भगतसिंह और गांधी दोनों ही के रास्तों को भारत के लिए हितकारी बता रहे हैं, जबकि दोनों में कहीं भी वैचारिक साम्य नहीं था। अगर भगतसिंह के पास भारतीय समस्याओं का समाधान था, तो गांधी के नाम का जाप क्यों? अगर उनके पास हल नहीं था, तो राजकिशोर को दृढ़ता से गांधी के रास्ते पर चलने का आह्वान करना चाहए था, भगतसिंह के शहादत दिवस पर लगभग आधा पन्ना काला करने की क्या जरूरत थी। जहां तक रास्ते का सवाल है, जिस भगतसिंह के नाम की माला खुद राजकिशोर जप रहे है, उन्हीं भगतसिंह ने भी कहा था कि, ”गांधी एक दयालु मानवतावादी व्यक्ति हैं। लेकिन ऐसी दयालुता से सामाजिक तब्दीली नहीं आती…।” (जगमोहन और चमनलाल द्वारा संपादित उसी किताब, ‘भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज’, की भूमिका जिसका मनमाना प्रयोग राजकिशोर ने अपने लेख में किया है) लगता है, या तो राजकिशोर ने खुद कभी इस पुस्तक और भगतसिंह को पूरी तरह पढ़ा और समझा नहीं है या फिर जानबूझकर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश कर रहे हैं।
उनकी मूखर्तापूर्ण दलीलें यहीं खत्म नहीं होती। आगे वो उपरोक्त पुस्तक से भगतसिंह का हवाला देते हुए क्रान्ति की स्पिरिट ताजा करने की बात करते हुए कहते हैं, ” हमारे पास तो क्रांति का एक कानूनी दस्तावेज भी है। यहां में यह याद दिलाना चाहता हूं कि स्वतंत्र भारत का संविधान बनाते समय हमारे पूर्वजों ने गांधी की बातों को लगभग नहीं माना, लेकिन उन्होंने भगतसिंह का पूरा सम्मान किया।यह सम्मान जान-बूझ कर या समझ-बूझ कर किया गया था, यह बात मानने लायक नहीं लगती। यह सम्मान अनजाने में ही हुआ और इसीलिए हुआ कि उस समय दुनिया भर में समाजवाद को ही सभी बंद तालों की एकमात्र कुंजी के रूप में देखा जा रहा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि संविधान बनाते समय भारत के एक बड़े बौद्धिक और राजनीतिक वर्ग ने चरम प्रकार का आत्म-मंथन किया था। वे कोशिश कर रहे थे कि दुनिया की विभिन्न व्यवस्थाओं में जो कुछ श्रेष्ठ है, उसे अपने सर्वाधिक मूल्यवान राष्ट्रीय दस्तावेज में समेट लिया जाए।…संविधान सभा में जैसी गहरी और ईमानदार बहसें हुईं, उनकी परछाई भी अब देखने को नहीं मिलती।…”वाह भाई राजकिशोर! ‘निठल्ला चिंतन’ नाम का एक हिंदी चिट्ठा (ब्लॉग) इंटरनेट पर देखा था, लेकिन आपने वाकई में इस नाम को सार्थक कर दिया। इस नाम की एक वेबसाइट अपने नाम से रजिस्टर करा लीजिए, ज्यादा उचित होगा। खैर उनके इस मुक्त चिंतन पर टिप्पणी करने से पहले पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की कविता ‘संविधान’ का उल्लेख करना मौजूं होगा:
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे न पढ़ें
इसके शब्दों में मौत की ठण्डक है
और एक-एक पृष्ठ
जिन्दगी के आखिरी पल जैसा भयानक
यह पुस्तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु…
और जब मैं जगा
तो मेरे इंसान बनने तक
यह पुस्तक मर चुकी थी
अब यदि इस पुस्तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोये हुए पशु।
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 4:13 pm
राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्या का यह पहला प्रयास नहीं है। इससे पहले भी वह लगभग दो साल पहले जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ को माध्यम बना कर यह काम कर चुके हैं । खैर उसकी बात लेख के अंत में करेंगे फिलहाल इस बार के लेख में राजकिशोर संविधान के निर्माण के जरिए भगतसिंह के सम्मान और संविधान सभा में गहरी और ईमानदार बहस की बात कर रहे है। सबसे महत्वूपर्ण बात यह है कि भगतसिंह समेत एचएसआरए के क्रांतिकारी न केवल यह मानते थे कि राष्ट्रीय मुक्तिसंघर्ष का लक्ष्य समाजवाद की स्थापना होनी चाहिए, बल्कि वे पूरे साम्राज्यवादी विश्व में एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के शोषण के भी विरोधी थे और अपनी लड़ाई सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेशवाद से नही बल्कि साम्राज्यवाद की विश्व व्यवस्था से मानते थे और भारत में भी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना को अपना लक्ष्य मानते थे। और इस दौर में भी भगतसिंह और उनके साथी इस बात को समझने लगे थे कि कांग्रेस के झण्डे तले गांधी जी ने व्यापक जनता के एक बड़े हिस्से को भले ही जुटा लिया हो, पर कांग्रेस उनके हितों की नुमाइन्दगी नहीं करती, बल्कि देशी धनिक वर्गों के हितों की नुमाइन्दगी करती है और यह कि कांग्रेस की लड़ाई का अंत किसी न किसी समझौते के रूप में ही होगा। ऐसे मे संविधान के निर्माण और संविधान सभा की इन ‘’ईमानदार बहसों’ से ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारतीय पूंजीवाद के अंत को अपना आदर्श मानने वाले भगतसिंह के विचारों का सम्मान हुआ या घोर अपमान इसकी असलियत संविधान के निर्माण की प्रक्रिया के इतिहास पर रोशनी डाल कर पहचानी जा सकती है। लेकिन उससे पहले यह पढ़ लीजिए:
1931 में भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा तैयार ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में कहा गया है, ” क्रान्ति से हमारा क्या आशय है…जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रान्ति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं…।”
संविधान के निर्माण की प्रक्रिया
मार्च, 1946 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने अपने मंत्रिमण्डल के तीन सदस्यों का प्रतिनिधिमण्डल भारत भेजा जिसे प्रमुख राजनीतिक दलों, गणमान्य नागरिकों और देशी रियासतों के प्रमुखों से विचार-विमर्श के बाद सत्ता-हस्तान्तरण की योजना तैयार करनी थी। 16 मई 1946 को ‘कैबिनेट मिशन’ नाम से प्रसिद्ध उस दल ने अपनी योजना घोषित की जिसे सभी पक्षों ने स्वीकार किया। कैबिनेट मिशन की मूलभूत शर्तें इस प्रकार थीं:
1. भारत का बंटवारा नहीं होगा। इसका ढांचा संघीय होगा। 16 जुलाई, 1948 को सत्ता हस्तान्तरित की जायेगी। इसके पूर्व संघीय भारत का संविधान तैयार कर लिया जायेगा।
2. संविधान लिखने के लिए 389 सदस्यों की संविधान सभा का गठन किया जायेगा जिसमें 89 सदस्य देशी रियासतों के प्रमुखों द्वारा मनोनीत किये जायेंगे।
3. शेष 300 सदस्यों का चुनाव ब्रिटिश शासित प्रान्तों की विधायिका के सदस्यों द्वारा किया जायेगा। इन 300 में से मुसलमानों के लिए आरक्षित 78 सीटों का चुनाव मुस्लिम समुदाय द्वारा ही किया जायेगा।यहां यह बात उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश शासित प्रान्तों की विधानसभाओं के सदस्यों का चुनाव ‘भारत सरकार अधिनियम - 1935’ के अनुसार सीमित मताधिकार के आधार पर हुआ था। उक्त अधिनियम के अनुसार मात्र 15 प्रतिशत व्वयस्क नागरिकों को ही मत देने का अधिकार था (जो कुल आबादी के 0.5 प्रतिशतही थे)। शेष 85 प्रतिशत नागरिक मताधिकार से वंचित थे।
4. संविधान सभा सम्प्रभुता सम्पन्न नहीं होगी। वह कैबिनेट मिशन प्लान 1946 के अन्तर्गत संविधान लिखेगी जिसे लागू करने के लिए ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति अनिवार्य होगी।
5.इस दौरान भारत का शासन प्रबन्ध भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत होता रहेगा जिसके लिए केन्द्र में एक सर्वदल समर्थित अन्तरिम सरकार गठित की जाएगी।
जुलाई, 1946 में संविधान सभा का चुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस को 199 सीटें और 13 का समर्थन प्राप्त हुआ , मुस्लिम लीग को 72 सीटें मिलीं तथा 16 पर अन्य विजयी हुए। बाद में हालात ऐसे बने कि मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बॉयकाट कर दिया और पाकिस्तान की मांग को लेकर ‘सीधी कार्रवाई’ का ऐलान कर दिया । सितम्बर, 1946 में अन्तरिम सरकार का गठन हुआ जिसके प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू बने। 9 दिसम्बर को को संविधान सभा की पहली बैठक बुलाई गई, जिसमें राजेंद्र प्रसाद को अध्यक्ष चुना गया। 13 दिसम्बर को संविधान की प्रस्तावना पेश की गई और 22 जनवरी 1947 को उसे स्वीकार किया गया। लीग और रियासतों के मनोनीत प्रतिनिधियों के बॉयकाट के बाद (महज 15 प्रतिशत नागरिकों द्वारा निर्वाचित) संविधान सभा के कुल 55 प्रतिशत सदस्यों ने उसे स्वीकार किया। विभाजन के बाद इसी प्रस्तावना को भारतीय संविधान की दार्शनिक आधारशिला के रूप में स्वीकार किया गया। उल्लेखनीय है कि 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा ने प्रस्तावना को ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के लिए भेजने के लिए पारित किया था क्योंकि उस समय वह ब्रिटिश संसद के मातहत ही काम कर रही थी। 15 अगस्त 1947 को भारत को अधिराज्य घोषित कर दिया गया। डोमेनियन इसलिए कि संविधान तैयार होने तक, इनका शासन-प्रबन्ध ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारत सरकार अधिनियम 1935’ से ही संचालित होना था।1946 में गठित उसी संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान के आधार पर 26 जनवरी, 1950 को भारत को जनतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया और इसके भी तीन वर्षों पश्चात 1952 में देश के पहले आम चुनाव हुए।
तो यह थी संविधान सभा और संविधान निर्माण की प्रक्रिया, यह सच्चाई दिन के उजाले की तरह साफ है कि संविधान सभा को संविधान बनाने के लिए, भारतीय जनता ने नहीं बल्कि ब्रिटिश संसद ने अधिकृत किया था। उक्त संविधान सभा का चुनाव सार्विक मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष चुनाव के द्वारा नहीं, बल्कि15 फीसदी उच्चवर्गीय नागरिकों द्वारा परोक्ष चुनाव की विधि से हुआ था। यह बात भी केवल ब्रिटिश शासित प्रान्तों के दो तिहाई भूभाग के लिए लागू होती है। एक तिहाई भूभाग वाले देशी रियासतों के इलाकों से प्रतिनिधियों को मनोनीत किया गया था-राजाओं-नवाबों के द्वारा।भारत के लोगों द्वारा भारतीय संविधान की पुष्टि कभी नहीं कराई गई, बल्कि संविधान के भीतर ही धारा 394 डालकर इसे पूरे देश की जनता पर थोप दिया गया। यहां तक कि ”केशवानंद भारतीय बनाम केरल राज्य” (19731) के मामले में उच्चतम न्यायालय के 13 जजों की संविधान पीठ के 12 सदस्यों ने एकमत से यह कहा है कि भारतीय संविधान के स्रोत भारत के लोग नहीं हैं बल्कि संविधान लिखने के अधिकार संविधान सभा को ब्रिटिश संसद ने दिया था। जस्टिस मैथ्यू ने स्पष्ट कहा है, ” यह सर्वविदित है कि संविधानकी प्रस्तावना में किया गया वायदा ऐतिहासिक सत्य नहीं है। अधिक से अधिक सिर्फ यह कहा जा सकता है कि संविधान लिखने वाले संविधान सभा के सदस्यों को मात्र 28.5 प्रतिशत लोगों ने अपने परोक्ष मतदान से चुना था और कौन ऐसा है जो उन्हीं 28.5 प्रतिशत लोगों को भारत मान लेगा?” इस संविधान के निर्माण की प्रक्रिया सच्चे अर्थों में जनवादी तभी हो सकती थी जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत की जनता सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा का चुनाव करती, या वह जिस विधायिका का चुनाव करती वह खुद ही संविधान सभा का भी काम करती अथवा संविधान सभा का चुनाव करती। भारतीय संविधान पश्चिमी पूंजीवादी उद़देश्यों के संविधानों से थोक भाव से जुमले उधार लेने और धुंआधार लफ्फाजी करने के बावजूद इस सच्चाई को छुपा नहीं पाता कि यह संविधान भारतीय जनता को अत्यंत सीमित जनवादी अधिकार प्रदान करता है और उन्हें भी छीन लेने के प्रावधान इसी के भीतर मौजूद हैं। शासक वर्ग के लिए आपातकाल के असीमित अधिाकारइसी संविधान के भीतर मौजूद हैं और घोषित मूलभूत अधिकारों को सीमित करने के रास्ते भी इसी के भीतर हैं। नीति निर्देशक सिध्दांतों के रूप में समाजवादी रंग-रोगन लगाते हुए संविधान में ”कल्याणकारी राज्य” के पश्चिमी पूंजीवादी मॉडलों की थोड़ी बहुत नकल भी की गई है, पर इन नीति निर्देशक सिंध्दांतों को मानने की कोई भी बाध्यता या लागू करने का कोई समयबध्द लक्ष्य शासक वर्ग के सामने नहीं रखा गया है और अब, आधी सदी बाद इन नीति-निर्देशक सिंध्दांतों को पढ़कर केवल ठठाकर हंसा ही जा सकता है। संविधान का मूल ढांचा वही है जो ब्रिटिश औपनिवेशक सत्ता ने तैयार किया था। वही आई.पी.सी, सी.आर.पी.सी, सम्पत्ति व उत्तराधिकार के वही कानून, कोर्ट-कचहरी का वही ढांचा, वही वकील-पेशकार, वही नजराना-शुकराना। आम नागरिक की स्थिति कानून व्यवस्था के सामने पुराने रैयतों जैसी ही है। और कानून-व्यवस्था से भी छन-रिसकर कुछ जनवादी और नागरिक अधिकार बचजाते हैं तो वे नौकरशाही और थाना-पुलिस की जेब में अटक जाते हैं।
ऐसे में भगतसिंह के नाम पर संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का हवाला देते हुए क्रांति की बात करना भगतसिंह कीवैचारिक हत्या की साजिश ही कही जा सकती है।भगतसिंह आम जनता के राज्य की बात करते थे और जिस संविधान का निर्माण ही मुट़ठीभर धनिक लोगों ने अपने ब्रिटिश आकाओं के रहमोकरम पर किया हो वह क्रांति की इजाजत देगा?वैसे भी राजकिशोर भगतसिंह की हत्या के मामले में हिस्ट्रीशीटर हैं। जी हां, आज से दो साल पहले जनसत्ता में ही उन्होंने इसीतरह का घृणित कार्य किया था जिसका जवाब भी सत्यम ने दिया था। वह लेख मैंने तभी टाइप करके कम्प्यूटर में सुरक्षित रखा था। उसका शीर्षक फाइल करप्ट होने के कारण समझ नहीं आ रहा है लेकिन लेख जस का तस है।जनसत्में छपे राजकिशोर के हालिया लेख में दिए गए कुतर्कों को उजागर करने के लिए उस लेख के कुछ अंश भी हाजिर हैं:
‘जनसत्ता’ के 5 अक्टूबर के अंक में ‘भगतसिंह की ओट में’ राजकिशोर ने इतिहास के तथ्यों के साथ जमकर तोड़-मरोड़ की है। भगतसिंह के रास्ते में क्रान्तिकारी हिंसा का कोई स्थान नहीं था यह सिद्ध करने के लिए वह किन्हीं अनाम दस्तावेजों का जिक्र करते हैं। उनका दावा है कि ”हाल ही में प्रकाशित” भगतसिंह के दस्तावेजों से ”सूरज की रोशनी की तरह साफ है कि भगतसिंह का रास्ता हिंसा का रास्ता नहीं था।” उन्होंने ऐसे किसी दस्तावेज का नाम बताने की जरूरत नहीं समझी लेकिन अपने (कु) तर्कों के समर्थन में जिस एकमात्र लेख ”बम का दर्शन” का हवाला उन्होंने दिया है, आइये पहले उसी पर नजर डालते हैं।
‘बम का दर्शन’ दरअसल महात्मा गांधी के लेख ‘बम की पूजा’ के जवाब में क्रान्तिकारियों का पक्ष स्पष्ट करने के लिए लिखा गया था। भगवतीचरण वोहरा ने इसे लिखा था और भगतसिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया था। 26 जनवरी, 1930 को इसे देश भर में बांटा गया था। इसमें भगतसिंह साफ-साफ लिखते हैं, ”क्रान्तिकारियों का विश्वास है कि देश को क्रान्ति से ही स्वतंत्रता मिलेगी। वे जिस क्रान्ति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रान्ति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों और उनके पिट्ठुओं से क्रान्तिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जायें” (भगतसिंह और साथियों के दस्तावेज, सं. जगमोहन सिंह व चमनलाल, राजकमल प्रकाशन, पृ. 369)Aइसी लेख में आगे एक बार फिर एकदम स्पष्ट शब्दों में कहा गया है, ”क्रान्तिकारी तो उस दिन की प्रतीक्षा में हैं जब कांग्रेसी आन्दोलन से अहिंसा की यह सनक समाप्त हो जायेगी और वह क्रान्तिकारियों के कंधो से कंधाा मिलाकर पूर्ण स्वतंत्राता के सामूहिक लक्ष्य की ओर बढ़ेगी (उपरोक्त, पृ. 373)। इसी लेख में भगतसिंह ने एक अपील की है कि जिसे आज पढ़ते हुए लगेगा मानो वह राजकिशोर जैसे लोगों को ही संबोधिात हो, ”हम प्रत्येक देशभक्त से निवेदन करते हैं कि वे हमारे साथ गम्भीरतापूर्वक इस युध्द में शामिल हों। कोई भी व्यक्ति अहिंसा और ऐसे ही अजीबो-गरीब तरीकों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर राष्ट्र की स्वतंत्राता से खिलवाड़ न करे (उपरोक्त, पृ. 376)Aये चंद पंक्तियां ही नहीं पूरा लेख गांधी जी के अहिंसक रास्ते के बरक्स क्रान्तिकारियों के सशस्त्र प्रतिरोधों के रास्ते की वकालत करता है। लेकिन राजकिशोर लिखते हैं, ”’बम का दर्शन’…बराबर उपलब्ध रहा है। इसके बावजूद, दुर्भाग्यवश, भगतसिंह की छवि सशस्त्र प्रतिरोधों के दावेदार की बनी हुई है।” अब इसे क्या माना जाये? या तो इस सर्वसुलभ लेख का हवाला देने से पहले राजकिशोर ने इसे पलटकर भी नहीं देखा, या फिर उनकी ”नीयत” के बारे में राजेन्द्र यादव की टिप्पणी पर यकीन किया जाये?
अगर राजकिशोर का इरादा हिंसा-अहिंसा के प्रश्न पर, या भगतसिंह के रास्ते के सही या गलत होने पर बहस चलाने का होता, तो बात और थी। लेकिन वह बहस नहीं चलाते, आलोकधान्वा की कविता के बहाने वह क्रान्तिकारी हिंसा के रास्ते के विरुध्द फतवा देते हैं, और इसके लिए तथ्यों के साथ मनमाना तोड़-मरोड़ करते हैं।इसलिए आइये, इस बारे में भगतसिंह के विचारों की कुछ और बानगियाँ देखते हैं।
फांसी दिये जाने से ठीक तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु ने पंजाब के गवर्नर को पत्रा लिखकर मांग की कि उन्हें फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये क्योंकि वे युध्दबंदी हैं। पत्र के शब्द थे :”…अंग्रेजों और भारतीय जनता के बीच युध्द छिड़ा हुआ है। …बहुत संभव है कि यह युध्द भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले। …यह तब तक खत्म नहीं होगा जब तक समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता।”जेल में लगातार अधययन और चिन्तन कर रहे भगतसिंह के दिमाग में भारतीय क्रान्ति के मार्ग की एक साफ तसवीर उभर रही थी जो कांग्रेस और गांधाी के रास्ते से एकदम अलग तो थी ही, भारतीय क्रान्तिकारियों की उस समय तक की राह से भी बिलकुल जुदा थी। फांसी से करीब एक महीना पहले लिखे ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में भगतसिंह ने एक क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के बारे में लिखा जिसकी ”मुख्य जिम्मेदारी यह होगी कि वे योजना बनायें, उसे लागू करें, प्रोपेगंडा करें, अलग-अलग यूनियनों में काम शुरू कर उनमें एकजुटता लायें, उनके एकजुट हमले की योजना बनायें, सेना व पुलिस को क्रान्ति-समर्थक बनायें और उनकी सहायता या अपनी शक्तियों से विद्रोह या आक्रमणकी शक्ल में क्रान्तिकारी टकराव की स्थिति बनायें, लोगों को विद्रोह के लिए प्रयत्नशील करें और समय पड़ने पर निर्भीकता से नेतृत्व दे सकें” (क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा, पूर्वोक्त, पृ. 403)। उपरोक्त कथन की व्याख्या किसी और अर्थ में करने की बात अगर कोई सोचे भी तो ‘मसविदे’ में ‘क्रान्तिकारी पार्टी’ उपशीर्षक के तहत दिया गया यह प्रस्ताव इसकी गुंजाइश खत्म कर देता है : ”ऐक्शन कमेटी : इसकारूप साबोताज, हथियार-संग्रह और विद्रोह का प्रशिक्षण देने के लिए एक गुप्त समिति। ग्रुप (क)नवयुवक : शत्रु की खबरें एकत्र करना, स्थानीय सैनिक सर्वेक्षण। ग्रुप (ख)विशेषज्ञ : शस्त्र-संग्रह, सैनिक प्रशिक्षण आदि” (पूर्वोक्त, पृ. 404)A लेखक: सत्यम
…………………………….समाप्त…………………..
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March 25, 2007
राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्या
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 10:00 pm
पिछले लेख से आगे
राजकिशोर ने भगतसिंह की ही आड़ में भगतसिंह की वैचारिक हत्या की है। उन्होंने बेहद ढिठाई से उस व्यवस्था (पूंजीवादी) के संविधान को क्रान्ति का कानूनी दस्तावेज बताया है जिसे भगतसिंह और उनके साथी बलपूवर्क उखाड़ने की बात कहते थे। 6 जून, 1929 को ‘बमकांड पर सेशन कोर्ट में बयान’ में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्पष्ट तौर पर लिखा था, ‘‘देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात है समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है, और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। क्रांति से हमारा मतलब अंततोगत्वा एक ऐसी समाज व्यवस्था की स्थापना से है जो इस बात के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा। जिसके फलस्वरूप स्थापित होने वाला विश्व संघ पीडि़त मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।
सामयिक चेतावनी
यह है हमारा आदर्श। इसी आदर्श से प्रेरणा लेकर एक सही तथा पुरजोर चेतावनी दी है। लेकिन अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन व्यवस्था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोड़े अटकाने से बाज न आई तो क्रांति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध छिड़ना अनिवार्य है। सभी बाधाओं को रौंदकर उस युद्ध के फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र की स्थापना होगी। यह अधिनायकतंत्र क्रांति के आदर्शों की पूर्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा।…’’
राजकिशोर इस बात का जवाब दें कि क्या भारतीय संविधान वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था पर अधिकार कर शोषण मुक्त समाज की स्थापना का अधिकार देता है? उस मेहनतकश वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना की स्वतंत्रता प्रदान करता है, जिसकी बात भगतसिंह ने की थी? अगर नहीं, तो उनके इस लेख को भगतसिंह की वैचारिक हत्या कहना गलत नहीं होगा।
… जारी
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March 24, 2007
भगतसिंह के शहादत दिवस पर राजकिशोर का वैचारिक वमन
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 2:49 pm
लगता है अखबारों के लिए भाड़े पर कलम घिसते-घिसते राजकिशोर जी बौद्धिक दीवालिएपन के शिकार हो गए है और उनकी कलम बांझपन की। भगतसिंह के शहादत दिवस पर जनसत्ता में छपे उनके लेख से तो यही साबित होता है। 23 मार्च को भगतसिंह का शहादत दिवस था। इस मौके पर जनसत्ता ने प्रख्यात ”बुद्धिजीवी” राजकिशोर के वैचारिक वमन को अपने संपादकीय पृष्ठ पर पर्याप्त जगह दी। इस लेख में राजकिशोर ने भगतसिंह के उद्धरण देते हुए भारत के नौजवानों को प्रेरित (भ्रमित) करने की पुरजोर कोशिश है, मुझे लगता है कि इस लेख को पढ़ कर कोई क्रान्तिकारी बने या न बने, भ्रान्तिकारी जरूर बन जाएगा और अपने संपर्क में आने वाले और लोगों को भी राजकिशोर के वैचारिक विभ्रम का शिकार बनाएगा। चलिए! अब इन भ्रामक तथ्यों और विचारों का बिंदुवार विश्लेषण भी कर लिया जाए।
लेख के चौथे पैरा में (शुरुआती तीन पैरा में उजागर हुए उनके दिमागी ढुलमुलपन की चर्चा बाद में करेंगे)लिखा है, ”…भगत सिंह के चिंतन में हमें भारत की सभी समस्याओं का हल मिल जाता है। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे गांधी के विचार और आचरण में…।” भई, अलग-अलग वैचारिक धरातल पर भारतीय समस्याओं का समाधान बताने वालों का रास्ता एक नहीं हो सकता और ऐसे में तय करना पड़ता है कि किसका रास्ता सही और व्यावहारिक है और एक बार तय कर लेने के बाद उसी रास्ते पर चलना चाहिए। लेकिन राजकिशोर जी भगतसिंह और गांधी दोनों ही के रास्तों को भारत के लिए हितकारी बता रहे हैं, जबकि दोनों में कहीं भी वैचारिक साम्य नहीं था। अगर भगतसिंह के पास भारतीय समस्याओं का समाधान था, तो गांधी के नाम का जाप क्यों? अगर उनके पास हल नहीं था, तो राजकिशोर को दृढ़ता से गांधी के रास्ते पर चलने का आह्वान करना चाहए था, भगतसिंह के शहादत दिवस पर लगभग आधा पन्ना काला करने की क्या जरूरत थी। जहां तक रास्ते का सवाल है, जिस भगतसिंह के नाम की माला खुद राजकिशोर जप रहे है, उन्हीं भगतसिंह ने भी कहा था कि, ”गांधी एक दयालु मानवतावादी व्यक्ति हैं। लेकिन ऐसी दयालुता से सामाजिक तब्दीली नहीं आती…।” (जगमोहन और चमनलाल द्वारा संपादित उसी किताब, ‘भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज’, की भूमिका जिसका मनमाना प्रयोग राजकिशोर ने अपने लेख में किया है) लगता है, या तो राजकिशोर ने खुद कभी इस पुस्तक और भगतसिंह को पूरी तरह पढ़ा और समझा नहीं है या फिर जानबूझकर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश कर रहे हैं।
उनकी मूखर्तापूर्ण दलीलें यहीं खत्म नहीं होती। आगे वो उपरोक्त पुस्तक से भगतसिंह का हवाला देते हुए क्रान्ति की स्पिरिट ताजा करने की बात करते हुए कहते हैं, ” हमारे पास तो क्रांति का एक कानूनी दस्तावेज भी है। यहां में यह याद दिलाना चाहता हूं कि स्वतंत्र भारत का संविधान बनाते समय हमारे पूर्वजों ने गांधी की बातों को लगभग नहीं माना, लेकिन उन्होंने भगतसिंह का पूरा सम्मान किया।यह सम्मान जान-बूझ कर या समझ-बूझ कर किया गया था, यह बात मानने लायक नहीं लगती। यह सम्मान अनजाने में ही हुआ और इसीलिए हुआ कि उस समय दुनिया भर में समाजवाद को ही सभी बंद तालों की एकमात्र कुंजी के रूप में देखा जा रहा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि संविधान बनाते समय भारत के एक बड़े बौद्धिक और राजनीतिक वर्ग ने चरम प्रकार का आत्म-मंथन किया था। वे कोशिश कर रहे थे कि दुनिया की विभिन्न व्यवस्थाओं में जो कुछ श्रेष्ठ है, उसे अपने सर्वाधिक मूल्यवान राष्ट्रीय दस्तावेज में समेट लिया जाए।…संविधान सभा में जैसी गहरी और ईमानदार बहसें हुईं, उनकी परछाई भी अब देखने को नहीं मिलती।…”वाह भाई राजकिशोर! ‘निठल्ला चिंतन’ नाम का एक हिंदी चिट्ठा (ब्लॉग) इंटरनेट पर देखा था, लेकिन आपने वाकई में इस नाम को सार्थक कर दिया। इस नाम की एक वेबसाइट अपने नाम से रजिस्टर करा लीजिए, ज्यादा उचित होगा। खैर उनके इस मुक्त चिंतन पर टिप्पणी करने से पहले पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की कविता ‘संविधान’ का उल्लेख करना मौजूं होगा:
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे न पढ़ें
इसके शब्दों में मौत की ठण्डक है
और एक-एक पृष्ठ
जिन्दगी के आखिरी पल जैसा भयानक
यह पुस्तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु…
और जब मैं जगा
तो मेरे इंसान बनने तक
यह पुस्तक मर चुकी थी
अब यदि इस पुस्तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोये हुए पशु।
Friday, March 7, 2008
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