
अभिव्यक्ति की आज़ादी और भावनाओं को ठेस का मतलब
प्रभाष जोशी
लालकृष्ण आडवाणी का कहना है कि कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने की आज़ादी नहीं हो सकती। अख़बार कहते हैं कि ऐसा उनने अपने सांसदों से कहा। भाजपा को यह बात मीडिया में उजागर करनी पड़ी, क्योंकि कुछ अख़बारों ने मेनका गांधी की उस चिट्ठी की ख़बर छापी थी, जो उनन जंग लगे भूतपूर्व लौह पुरुष को वडोदरा में भाजपाई-विहिपाई कार्यकर्ताओं द्वारा कला प्रदर्शनी में जबरन घुस कर तोड़-फोड़ करने के खिलाफ निंदा में लिखी थी। भाजपा दुनिया को बताना चाहती है कि वडोदरा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के कला संकाय में उनके कार्यकर्ताओं ने देवी-देवताओं के 'अश्लील और अशोभनीय' चित्रों के खिलाफ जो कुछ किया, पार्टी उसको बुरा नहीं मानती है। इस बेशर्मी को सिद्धांतकार लालकृष्ण आडवाणी के उद्धरण से अलंकृत किया गया है कि कोई कलाकार अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी के बहाने हमारी धार्मिक भावनाओं को चोट नहीं पहुंचा सकता। तथाकथित धार्मिक भावनाओं के बहाने इस देश के नागरिकों को मिली बुनियादी आज़ादियों के खिलाफ संघ संप्रदायिओं की यह फासिस्ट मुहिम है। कैसे? एक उदाहरण लीजिए-
कुछ साल पहले कथाकार कमलेश्वर और मुझे उज्जैन बुलाया गया था। वह कार्यक्रम शायद कालिदास अकादमी ने आयोजित किया था। साहित्य में सांप्रदायिक समरसता से निकला कोई विषय रहा होगा। कमलेश्वर ने बोलना शुरू किया और जैसे ही उनने बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने का ज़िक्र किया, श्रोताओं में से कुछ लोग उठे और उत्तेजित होकर चिल्लाने लगे। उनके एतराज़ को सुनने-समझने की कोशिश की गयी, तो बात निकल कर यह आयी कि उन्हें 'बाबरी मस्जिद के ध्वंस' से आपत्ति है। वे मानते हैं कि वह 'विवादित ढांचा' था, जो ढह गया। उसे 'बाबरी मस्जिद' क्यों कहा जा रहा है। वे यह नहीं सुनेंगे क्योंकि इससे उनकी भावनाओं को चोट पहुंचती है। और कमलेश्वर को इसका कोई अधिकार नहीं है कि वे लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाएं। कार्यक्रम में उपद्रव करने वाले लोगों का यह कहना मंच पर बैठे लोगों को मंज़ूर नहीं था। उनमें महेश बुच भी थे, जो कभी उज्जैन के कलेक्टर/कमिश्नर भी रह चुके थे। हमने उपद्रव करने वालों की यह मांग भी नहीं मानी कि कमलेश्वर न बोलें। बाकी के लोग बोलें तो कार्यक्रम चलने दिया जाएगा। मैंने कहा कि जिस सभा में कमलेश्वर को बोलने नहीं दिया जाएगा, उसमें मैं तो नहीं बोलूंगा। कोई आधे घंटे तक तनाव बना रहा।
कार्यक्रम के आयोजको, बाकी के श्रोताओं और उपद्रव करने आये उन लोगों के बीच बातचीत होती रही। हल्ला और हंगामा भी होता रहा। कई प्रतिष्ठित नागरिक हमें घेर कर बैठे रहे और हमें मनाते रहे कि विवाद और उपद्रव ख़त्म हो, तो कार्यक्रम फिर शुरू किया जा सके। आख़िर हमें सूचित किया गया कि कमलेश्वर अपना भाषण पूरा करेंगे। इसके बाद उपद्रव करने वालों में से कोई एक व्यक्ति आकर जो कुछ उसे बोलता है, बोलेगा और फिर मुझे भाषण देना है। फिर अध्यक्ष को जो कुछ कहना होगा, कहेंगे। मुझे लगा कि उपद्रव से कमलेश्वर का उत्साह और बोलने की सहज इच्छा काफी कम हो गयी थी। वे बोले और वही सब कुछ बोले, जो उन्हें बोलना था। बाबरी मस्जिद के ध्वंस को उनने बाबरी मस्जिद को तोड़ना ही कहा। फिर उपद्रवियों में से एक सज्जन आये और ज़ोर-ज़ोर से भाषण देने की कला के अपने प्रशिक्षण के अनुसार बोले और उनके साथ आये लोग तालियां पीटते रहे। फिर मैं कोई घंटे भर बोला। अपने धर्म और पुराणों की समझ में ये संघ परिवारी बेचारे बिल्कुल एकांगी हैं। भारतीय समाज की इनकी समझ भी मुसलमान काल से पीछे नहीं जाती। अपने समाज की विविधता, बहुलता और सर्वग्राहिता इनकी पकड़ में नहीं आती। शाखाओं में जो एकांगी और जड़ ज्ञान दिया जाता है, उसी को दोहराते रहते हैं। मेरा अनुभव है कि धर्म और भारतीय समाज पर इन्हें लेकर इनसे बड़ी आसानी से निपटा जा सकता है। उस दिन मैंने कहा कि आपके विवादित ढांचा कहने से बाबरी मस्जिद सिर्फ एक विवाद का ढांचा नहीं हो जाएगी।
सारी दुनिया जानती है कि 22/23 दिसंबर, सन 1949 की रात उसमें लाकर रामलला और दूसरी दो मूर्तियां रखी गयीं। ज़िला मजिस्ट्रेट नायर ने उन्हें मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के आदेश के बावजूद हटाया नहीं। हिंदू महासभा वालों ने अखंड पाठ चला कर जनता में रामलला के प्रकट होने की बात फैलायी। हज़ारों लोग इकट्ठा हुए। तबसे बाबरी मस्जिद में नमाज नहीं हुई। क्योंकि जहां मूर्तियां रखी हों, वहां नमाज नहीं पढ़ी जा सकती। सन 1528 में बनी बाबरी मस्जिद 1992 में आपके कहने से विवादित ढांचा नहीं हो जाएगी।
यह किस्सा इसलिए सुनाया कि बाबरी मस्जिद को विवादित ढांचा कहने को कमलेश्वर जैसे लेखक को मजबूर करने और उसके लिए 'हमारी भावनाओं को चोट पहुंचाने का' मामला सिर्फ कलाकार चंद्रमोहन और हुसैन से नहीं बनता। 'हमारी भावनाओं को चोट पहुंचाने का हल्ला' इसलिए मचाया जाता है कि जो हम मानते और करते हैं, आप भी वही मानिए, नहीं तो आपकी खैर नहीं है। यह मामला सिर्फ नैतिक पुलिसगिरी का भी नहीं है। यह उस जीवन पद्धति और सिर्फ उन मूल्यों पर हमला है, जो इस देश के लोगों ने सदियों के जीवनानुभव से विकसित किये हैं। यह हमारी सभी बुनियादी आज़ादियों पर हमला है। इसलिए महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के उस जगप्रसिद्ध ललित कला संकाय के अंतिम वर्ष के छात्र चंद्रमोहन की नियति को मात्र एक बेचारे कलाकार का दुर्भाग्य मत मानिए।
कल आप भी अपने ढंग से जीने और अभिव्यक्त होने के अपने मौलिक अधिकार और स्थान के लिए छह रात जेल में काटने को मजबूर किये जा सकते हैं।
आंध्र से वडोदरा के इस प्रख्यात कला संकाय में चित्रकारी सीखने आये चंद्रमोहन की माली हालत नाज़ुक है, लेकिन वह प्रतिभाशाली है, इसलिए उसे दो छात्रवृत्तियां मिली हुई है, जिनने उसे यहां पहुंचाया। गये साल उसे ललित कला अकादमी का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला है। इस साल परीक्षा के लिए उसने कुछ चित्र बनाये। ये चित्र कला संकाय के शिक्षकों और छात्रों के लिए थे, जो इन्हें देख कर और इनका आकलन करके चंद्रमोहन को नंबर और ग्रेड देते। उसका यह काम अपनी संकाय परीक्षा के लिए किया गया था और संकाय के शिक्षकों के लिए ही था। जैसे कोई छात्र अपनी परीक्षा के लिए उत्तर पुस्तिका लिखता है, वैसे ही और उसी के लिए चंद्रमोहन ने ये चित्र बनाये थे। संकाय में उनकी प्रदर्शनी भी परीक्षा और आकलन के लिए लगी थी। यह आम जनता क्या संकाय के बाहर विश्वविद्यालय के लिए भी आम प्रदर्शनी नहीं थी। क्या अंतिम वर्ष की परीक्षा और आकलन के लिए किये गये काम को आप सार्वजनिक स्थल पर आम लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाला काम कह सकते हैं?
फिर विश्व हिंदू परिषद के नीरज जैन अपने साथियों को लेकर उस हॉल में उपद्रव करने और कला संकाय के छात्रों और शिक्षकों से गाली गलौज और मारपीट करने कैसे पहुंच गये? उन्हें न सिर्फ वहां जाने और विश्वविद्यालय के कला संकाय के परीक्षा कार्य में कोई हस्तक्षेप करने का अधिकार था, न वे वहां रखे गये चित्रों पर कोई फैसला दे सकते थे। उन्हें वहां किसी ने बुलाया नहीं था। वह जगह आम जनता के लिए खुली नहीं थी। फिर नीरज जैन और उनके साथी वहां पहुंचे कैसे और चंद्रमोहन के चित्रों पर एतराज़ करके उन्हें हटाने की मांग क्यों करने लगे। इसलिए कि वे विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता हैं और गुजरात में भाजपाई नरेंद्र मोदी की सरकार है? और भी मज़ा देखिए कि न सिर्फ नीरज जैन और उनके साथी वहां पहुंच गये, वहां पुलिस भी आ गयी। जैसे विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने विश्वविद्यालय से इजाज़त नहीं ली थी, वैसे ही पुलिस भी बिना बुलाये, बिना पूछे आयी थी। किसी भी विश्वविद्यालय में यह नहीं हो सकता।
लेकिन गुजरात की पुलिस ने कला संकाय में बिना इजाज़त ज़बर्दस्ती घुस आये और परीक्षा के लिए बनाये गये चित्रों पर एतराज़ करने और उपद्रव मचाने वाले विश्व हिंदू परिषद कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। वह पकड़ कर ले गयी बेचारे उस चंद्रमोहन को, जिसके बनाये गये चित्रों पर इन धार्मिक और नैतिक भावनओं वाले कार्यकर्ताओं को एतराज़ था। उस पर भारतीय दंड विधान की धारा 153 ए और 295 के तहत आरोप लगाये गये। अब न तो यह एक आम जनता के लिए खुली सार्वजनिक प्रदर्शनी थी, न चंद्रमोहन ने ये चित्र सबके देखने के लिए बनाये थे। इनसे सार्वजनिक शांति और समरसता और लोगों की भावनाओं के आहत होने का सवाल कहां पैदा होता है? इनसे किसी को एतराज़ हो सकता था, तो कला संकाय के शिक्षकों और छात्रों को होना चाहिए था। लेकिन होता तो क्या ये लोग प्रदर्शनी में उन्हें रखने देते? और पुलिस के चंद्रमोहन को पकड़ कर ले जाने और प्रदर्शनी हटाने और उसके लिए जनता से माफी मांगने के कुलपति के आदेश का ऐसा विरोध करते? प्रोफेसर शिवजी पणिक्कर को कुलपति ने इसलिए निलंबित किया कि वे डीन थे और कुलपति के कहने पर उनने प्रदर्शनी बंद नहीं की, न उन चित्रों के लिए माफी मांगने को तैयार हुए। पणिक्कर अपने देश के विख्यात कला इतिहासकार और कला मर्मज्ञ हैं। वे और कला संकाय के छात्र चंद्रमोहन के साथ आज भी खड़े हैं।
लेकिन गुजरात पुलिस ही उपद्रवियों को पकड़ने के बजाय चंद्रमोहन को पकड़ कर नहीं ले गयी, बल्कि विश्वविद्यालय के कुलपति मनोज सोनी भी इस सारे मामले में अपने छात्रों और शिक्षकों का साथ देने के बजाय विश्व हिंदू परिषद के उपद्रवियों के साथ हो गये। उनने कला संकाय में जबरन घुस आये और परीक्षा के काम में दखल देने वाले कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुलिस में रपट तक नहीं लिखवायी। बल्कि वे संकाय को प्रदर्शनी बंद करने और डीन पणिक्कर से चंद्रमोहन के चित्रों के लिए सार्वजनिक माफी मांगने के आदेश दे आये। और जब पणिक्कर ने आदेश नहीं माने तो उन्हें निलंबित कर दिया। चंद्रमोहन के खिलाफ पुलिस कार्रवाई में अदालत में विश्वविद्यालय ने अपने छात्र का बचाव तक नहीं किया। पांच रात चंद्रमोहन जेल में बिता कर ज़मानत पर छूटा। पहली बार संघ परिवारियों ने अदालत में चंद्रमोहन की ज़मानत पर सुनवाई तक नहीं होने दी। चंद्रमोहन के पक्ष में प्रदर्शन करने आये देश भर के कलाकारों को विश्वविद्यालय ने अंदर आने तक नहीं दिया।
आप साफ देख सकते हैं कि वडोदरा की पुलिस और महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के कुलपति विश्व हिंदू परिषद के नीरज जैन जैसे कार्यकर्ताओं के साथ खड़े हैं। और लालकृष्ण आडवाणी जैसे जंग लगे लौहपुरुष कह रहे हैं कि चंद्रमोहन जैसे कलाकार 'अश्लील और अशोभनीय' चित्र बना कर हमारी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। एक विश्वविद्यालय के कला संकाय के छात्र ने अपनी डिग्री के लिए जो चित्र शिक्षकों के आकलन के लिए बनाये, उनसे नीरज जैन जैसे निठल्लों की धार्मिक भावनाएं आहत हुईं और उनने इसे राष्ट्रीय मामला बना दिया। कला के एक छात्र और शिक्षकों के बीच के परीक्षा कार्य में विश्व हिंदू परिषद, भाजपा और गुजरात सरकार का क्या दखल होना चाहिए? सिवाय इसके कि इनकी इच्छा है कि सिद्ध कलाकार ही नहीं, छात्र भी ऐसे चित्र बनाएं, जो हमारे तय किये ढांचें में फिट होते हों। जी, यही फासिस्ट इच्छा है और पता न हो तो जर्मनी और इटली के लोगों से पूछ लो।
अब संघ संप्रदायी, वकील और पैरोकार कहते हैं कि यह सवाल कलाकार की सृजन स्वतंत्रता का नहीं, किसी के भी ईश्वर निंदा/धर्म निंदा करने का अपराध का है। चंद्रमोहन ने तो वे चित्र सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए नहीं बनाये थे, लेकिन मंदिर बनाने वालों ने खजुराहो, कोणार्क और भुवनेश्वर के मंदिर सबके और धर्म के लिए बनाये। चंद्रमोहन का एक भी चित्र इन मंदिरों की कई मूर्तियों के सामने नहीं टिकेगा। और छोड़िए इन मंदिरों को, और हमारे पौराणिक साहित्य को- कभी सोचा है अरुण जेटली, कि महादेव का ज्योतिर्लिंग किसका प्रतीक है और जिस पिंडी पर यह लिंग स्थापित किया जाता है, वह किसकी प्रतीक है। क्या हिंदुओं के धर्म और देवी-देवताओं को सामी और संगठित इस्लाम या ईसाइयत समझ रखा है, जिसमें किसी पैगंबर की मूरत बनाना वर्जित हो। थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो। यूरोप और अरब की नकल मत करो।
कागद कारे, 20 मई 2007
2 comments:
Prabhashjee aapko hindutw se kya
dusmani hai? marne ke baad bhagban ko jabab dena hoga.
पहले प्रभाष जी को पढ़ना बहुत अच्छा लगता था। जनसत्ता मेरा प्रिय अखबार था ये तब की बात है जब वीपी सिंह की सरकार थी। मैं तब मुंबई में रहता था तब प्रभाष जी को देखकर दंग हो जाता था कि आखिर एक सम्पादक हर विषय पर इतनी महारत। क्या क्रिकेट, क्या राजनीति सभी विषयों पर जबर्दस्त पकड़। और रविवार का जनसत्ता सबरंग तो अवश्य ही पढ़ना था। परंतु फिर धीरे-धीरे प्रभाष जी एकतरफा लिखने लगे। एकतरफा आलोचना। दलविशेष उनके निशाने पर। उनके लेख सिर्फ कुछ विशेष लोगों पर केन्द्रित हो गये और उसी प्रकार उनके पाठक भी सिमट गये। पहले जहां वे सभी के चहेते थे बाद में वे सिर्फ कुछ लोगों के चहेते बनकर रह गये। यह अन्याय था अपने पाठकों के प्रति जो उन्हें संपूर्ण चाहते थे सभी पक्षों पर लिखते हुए देखना चाहते थे जो उन्हें पहले की तरह हर विषय पर कलम चलाते देखना चाहते थे। आज जब भी वे कोई लेख लिखते हैं लगता है सिक्के का सिर्फ एक ही पहलू है और उनके चाहने वाले उनकी आलोचना करने वालों को उनके बीते दिनों की याद दिलाते हैं उनका इतिहास बताते हैं। परंतु लगता है उन दिनों की अब यादें ही शेष हैं।
Post a Comment