प्रभाष जी को ये सम्मान लेना ही नहीं चाहिए था. उनके पहले सरकारी भांड- मीरासियों को यह मिला है और अब संस्थान ने अपनी वैधता और मह्त्वा बनाये रखने के लिए प्रभाष जी का नाम जोड़ दिया. टका पैसा हमारे गुरु को मोहता नहीं, नाम सम्मान देने वालों से कई गुना ज्यादा है, इस से बड़े सम्मानों के वे निर्णायक रहे हैं और सच तो ये है कि उनके कद को देखते हुए ये तो मोहल्ला स्तर का सम्मान है. प्रभाष जी हिन्दी में संज्ञा नहीं रह गए अलंकार हो गए हैं. अलंकारों को कैसा सम्मान? मेरे गुरु ने जो शिष्य परम्परा, बिना करमा कांडी दीक्षा दिए, बनायी है, उसके लिए उन्हें मिलने वाला कोई भी सम्मान ख़ुद सम्मानित हो ले तो हो ले, प्रभाष जी का सम्मान वो क्या बढायेगा?
हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में योगदान के लिए साल 2007-08 का शलाका सम्मान वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी को दिया जाएगा.
शलाका सम्मान हिंदी अकादमी को ओर से दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है. प्रभाष जोशी ने जनसत्ता को आम आदमी का अखबार बनाया. उन्होंने उस भाषा में लिखना-लिखवाना शुरू किया जो आम आदमी बोलता है. देखते ही देखते जनसत्ता आम आदमी की भाषा में बोलनेवाला अखबार हो गया. इससे न केवल भाषा समृद्ध हुई बल्कि बोलियों का भाषा के साथ एक सेतु निर्मित हुआ जिससे नये तरह के मुहावरे और अर्थ समाज में प्रचलित हुए.
नवंबर 1983 में वे जनसत्ता से जुड़े (एजेंसी में लिसने भी ये ख़बर लिखी है उसे शर्मिन्दा होना चाहिए. प्रभाष जी जनसत्ता से जुड़े नहीं थे, उसे जन्म दिया था. और एक्सप्रेस की प्रधान संपादकी का प्रस्ताव तज कर दिया था.)और इस अखबार के संस्थापक संपादक बने. नवंबर 1995 तक वे अखबार के प्रधान संपादक रहे लेकिन उसके बाद वे हाल फिलहाल तक जनसत्ता के सलाहकार संपादक के रूप में जुड़े रहे. उन्होंने अपनी लेखनी से राष्ट्रीयता को लगातार पुष्ट किया. वैचारिक प्रतिबद्धता का जहां तक सवाल है तो उन्होंने सत्य को सबसे बड़ा विचार माना. इसलिए वे संघ और वामपंथ पर समय-समय पर प्रहार करते रहे. अब तक उनकी प्रमुख पुस्तकें जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं वे हैं- हिन्दू होने का धर्म, मसि कागद और कागद कारे. अभी भी जनसत्ता में उनका नियमित कालम कागद कारे छपता है.
आलोक तोमर
Sunday, March 9, 2008
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3 comments:
yeh shlaka ko prabhash joshi samman
hai,prabhash ji ab patrkarita me
samman se uper hai.
ambrish kumar
प्रभाषजी हिन्दी पत्रकारिता के शलाका पुरूष हैं.हम मालवी लोग अपने गौरव-व्यक्तित्वों के लिये बहुत आत्ममुग्ध रहते हैं. प्रभाषजी ने रज्जूबाबू (स्व.राजेन्द्र माथुर) के बाद हिन्दी पत्रकारिता में नये रूपक गढ़े हैं मेरे जैसे हज़ारों एकलव्य हैं जिन्होंने अपने अंतर्मन में प्रभाषजी के लेखन से न जाने कितनी नई बातें सीखीं हैं. राजनीति,क्रिकेट और कुमार गंधर्व से लेकर मालवे की मिट्टी को जिस शिद्दत और ईमानदारी से प्रभाष जी ने जिया है वह उन्हें कई अख़बारनवीसों के मन आँगन का भेरूजी बनाता है. (भेरूजी मालवे के लोकदेवता हैं और हर गाँव के बाहर आपको उनका विग्रह देखने को मिल जाएगा)सम्मान उन्हे ठेठ से नहीं सुहाते ; वे तो पत्रकारिता के अवधूत हैं ...सम्मानों को यदि अपना क़द बड़ा करना हो तो ज़रूर प्रभाष जोशी को नवाज़ सकते हैं.
jansatta me prabhash ji ke bad sanghi sampadko aur unke mukhbiro ka bhi ek samai aaya tha per jyada chala nahi
per abhi ke samajvadi sampadak yani ot ke bhi sare mukhbir sanghi hai aise me kya bhavishya hoga .
anamika
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