Tuesday, June 22, 2010
Monday, April 26, 2010
लाल सलाम के काले सच
आलोक तोमर
माओवादी हत्यारों के मक्कार मित्रों के चालाक तर्कों या कुतर्कों का जवाब नहीं। उनका कहना है कि ये भारत के लोकतंत्र और व्यवस्था के खिलाफ देश के वंचित आदिवासियों की लड़ाई है। सारे आदिवासी वंचित नहीं हैं जैसे सारे नागरी और सवर्ण कहे जाने वाले अन्याय से मुक्त नहीं है। फिर भी कुतर्क ही सह...ी, उनकी बात सुनने में क्या हर्ज है? सुनना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अप्रैल 1967 में बंगाल के सिर्फ एक जिले दार्जिलिंग से नक्सलबाड़ी थाना इलाके में एक आंदोलन शुरू हुआ था और आज उसी से प्रेरणा पा कर चल रहा माओवादी आंदोलन देश के 23 राज्यों, 250 जिलों और 2000 पुलिस थानों के क्षेत्र में फैल गया है। कुल 92 हजार वर्ग किलोमीटर यानी भारत के भूगोल का 40 प्रतिशत माओवादी आतंक के कब्जे में हैं जिनके बीस हजार हथियारबंद लोग हैं और पचास हजार सहयोगी है। इस बीच में पुलिस का बजट केंद्र और राज्यों में छह सौ गुना बढ़ गया है और हम माओवाद से मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं। इसका एक तर्क यह है कि 1947 से 2004 के बीच विकास के नाम पर लगभग ढाई करोड़ आदिवासियों को बेदखल किया गया और उनमें से 72 प्रतिशत को अब भी पुनर्वास नहीं मिला है। जाहिर है कि अन्याय हुआ है। लेकिन अगर इसी अन्याय के प्रतिरोध और प्रतिशोध में यह आदिवासी माओवादी बन गए होते तो उनकी संख्या कम से कम एक करोड़ होनी चाहिए थी। विस्थापन सिर्फ छत्तीसगढ़, झारखंड और बंगाल में नहीं हुआ है, पंजाब और हरियाणा में भी हुआ है और वहां के ग्रामीण और आदिवासी माओवादी क्यों नहीं बन गए? दरअसल आदिवासियों ने हमेशा अपने साथ हो रहे अन्याय का प्रतिरोध किया है और सिंधू कानु, विरसा मुंडा और टीटूमीर जैसे उदाहरण हमारे सामने है। मगर ये सब अपने संस्कारों और विचारों के साथ लड़ रहे थे। उन्हें किसी मार्क्स, लेनिन या माओ ने अपने अधिकारो के लिए लड़ना नहीं सिखाया था। तथाकथित सोवियत और चीनी क्रांति से बहुत पहले भारत में अंग्रेज सरकार के खिलाफ विद्रोह हो चुका था और इसके लिए भी किसी आयातित विचार का सहारा नहीं लिया गया था। माओवादी और उनके मित्र बार बार बखान करते हैं कि यह गरीब आदिवासियों की लड़ाई है और सभ्य समाज को इसमें उनका साथ देना चाहिए। दूसरे शब्दों में माओवाद एक असभ्य समाज की लड़ाई है। यह पूरी की पूरी आदिवासी संस्कृति के अपमान की सुविधापूर्ण साजिश है। लेकिन जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से ले कर अन्य वैचारिक गुफाओं में बैठे चिंतक इस पर गौर नहीं करते। वे इस बात पर भी गौर नहीं करते कि माओवादियों के नेता रेड्डी, बनर्जी और मजूमदार किस्म के लोग हैं लेकिन आज तक जितने भी माओवादी मारे गए हैं उनमें से इन नामों के लोग बहुत खोजने पर भी नहीं मिलते। उन्होंने मरने के लिए आदिवासियों को खरीद लिया है। एक दिक्कत समाज की यह है कि आदिवासियों के बारे में यह माना जाने लगा है कि वे खुद अपना प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। इसीलिए माओवादी मसीहा उनके लिए फरिश्ता बन कर आए हैं। जवाब में कहा जाता है कि आखिर माओवादियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने भी सल्वा जुडूम नाम का संगठन खड़ा किया था जो आदिवासियों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। सल्वा जुडूम रमन सिंह ने नहीं बनाया। इसकी परिकल्पना छत्तीसगढ़़ में आदिवासियों के एक अच्छे खासे लोकप्रिय नेता महेंद्र कर्मा ने की थी। यह बात अलग है कि पिछली विधानसभा मंे प्रतिपक्ष के नेता रहे महेंद्र कर्मा को इस विधानसभा चुनाव में उनके आदिवासी मतदाताओं ने ही हरा दिया लेकिन इससे यह स्थापना गलत नहीं हो जाती कि सल्वा जुडूम एक आदिवासी आंदोलन का विचार था। अब आदिवासियों को उस मास मीडिया का सहारा है जो इंटरनेट और ब्लॉग पर मानवाधिकार के नाम पर लाशों के चेहरे और पुलिस तथा व्यवस्था के दमन की कहानियां कहते रहते हैं और फिर अचानक कोई अरुंधती राय या कोई विनायक सेन प्रकट हो जाते हैं जो इसे वर्ग संघर्ष कहते हैं। आदिवासी आदिवासियों को मार रहे हैं। यह कौन सा वर्ग संघर्ष हैं? दंतेवाड़ा में जो 76 सीआरपीएफ जवान मारे गए वे भी गरीब घरों के लड़के थे और उनके साथ यह किस किस्म का वर्ग संघर्ष चल रहा है? किसके लिए चल रह है और इसका नतीजा क्या होने वाला है? हमें तो यह भी नहीं मालूम कि जो आदिवासी माओवादी दलम में आगे चल कर बंदूक चला रहे हैं उनकी पीठ पर कोई और बंदूक तो नहीं टिकी हुई है? हमारे माओवादी विचारक मित्रों का मानना है कि जो उनके साथ नहीं हैं, वह उनके खिलाफ है। वे बार बार पर्चे बांटते हैं कि आप लोगों को सरकार ने न राशन दिया, न अस्पताल दिए, न स्कूल दिए और न नौकरियंा दी। हम आपको ये सब दे रहे हैं। कैसे दे रहे हैं यह सब जानते हैं। मनरेगा के हजारों करोड़ रुपए सरपंचों को धमका कर ये माओवादी वसूल करते हैं और उनमें से दस बीस लाख रुपए में चिकित्सा शिविर, राशन और शिक्षा पर खर्च कर देते हैं। शिक्षा में भी यह नहीं सिखाया जाता कि हमारा राष्ट्रगान क्या है और हमारे राष्ट्र ध्वज में कितने रंग हैं? सिखाया यह जाता है कि माओवादी देश का झंडा लाल है और इसका एक ही नारा है और वो है लाल सलाम। माओवादी भारत की सरकार के खिलाफ घोषित तौर पर युद्व लड़ रहें हैं और भारत के संविधान की धारा 121 के अनुसार भारत के शत्रु है। उनके और सरकार के बीच सिर्फ गोली का रिश्ता रह गया हैं। ऐसे में हम अपने गृह मंत्री पी चिदंबरम का क्या करें जो अब भी माओवाद को कानून और व्यवस्था का मसला मानते हैं और कहते हैं कि माओवाद से निपटने की असली जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। दिग्विजय सिंह जब उन्हें कानून व्यवस्था और आतंकवाद के बीच का फर्क समझाना चाहते हैं तो वे सुनने को राजी नहीं और दिग्विजय सिंह जब अखबार में लिख कर यही बात कहते हैं तो उन्हें सोनिया गांधी और पता नहीं किस किस के सामने सफाई देनी पड़ती है। झारखंड में जंगल महल से शुरू हुआ माओवादी आंदोलन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर- एमसीसी और मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टी के पीपुल्स वॉर ग्रुप से जन्मा है। इन आदिवासियों के लिए माओवादी भी उतने ही बाहर के लोग हैं जितने अबूझमाड़ के जंगलांे में रहने वाले और अपनी परंपराओं के कवच में जीवित आदिवासियों के लिए बाहर के लोग और सरकारी अधिकारी है। सच यह है कि माओवादियों का आदिवासियों और वनवासियों में जितना असर हैं उससे कम संघ परिवार के बनवासी और आदिवासी कल्याण का नहीं है। जाहिर है कि आदिवासी अपने प्रतिरोध की लड़ाई खुद लड़ रहे थे और माओवादियों ने आ कर उस पर कब्जा जमा लिया। अच्छा है कि माओवादी यह मान कर चल रहे हैं कि सारे आदिवासी उनके साथ है। जबकि असल में ऐसा हैं नहीं। आदिवासियों के बड़े वर्ग को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्यवस्था कौन सी हैं और इस व्यवस्था के बदल जाने से उन्हंे क्या फर्क पड़ेगा? आदिवासियों के साथ हमारे समाज ने भी कम अन्याय नहीं किया हैं लेकिन माओवादियों को इससे कोई अधिकार नहीं मिल जाता कि वे एक समानांतर शोषणतंत्र खड़ा करे। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के ताकत सामने खड़े इन माओवादियों का इंतजार मौत कर रही है और चिदंबरम जैसे लोगों को अब भी समझ जाना चाहिए कि यह सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला नहीं है।और देखें
Thursday, September 10, 2009
Friday, August 28, 2009
अपनी हैसियत ज़ाहिर न करें...
मगर लोकप्रिय की बात करें तो यह लोग कौन सा हैं? प्रभाष जी पर इल्जाम है कि वे जातिवादी हैं और ब्राह्मणों को हमेशा उन्होंने आगे बढ़ाया। दूर नहीं जाना है। मेरा उदाहरण लीजिए। मैं ब्राह्मण नहीं हूं और अपने कुलीन राजपूत होने पर मुझे दर्प नहीं तो शर्म भी नहीं है। पंडित प्रभाष जोशी ने मुझ जैसे गांव के लड़के को छह साल में सात प्रमोशन दिए और जब वाछावत वेतन आयोग आया था तो इन्हीं पदोन्नतियों की वजह से देश में सबसे ज्यादा एरियर पाने वाला पत्रकार मैं था जिससे मैंने कार खरीदी थी। प्रभाष जी ने जनसत्ता के दिल्ली संस्करण का संपादक बनवारी को बनाया जो ब्राह्मण नहीं हैं लेकिन ज्ञान और ध्यान में कई ब्राह्मणों से भारी पड़ेंगे। प्रभाष जी ने सुशील कुमार सिंह को चीफ रिपोर्टर बनाया। सुशील ब्राह्मण नहीं है। प्रभाष जी ने कुमार आनंद को चीफ रिपोर्टर बनाया, वे भी ब्राह्मण नहीं है। प्रभाष जी ने अगर मुझे नौकरी से निकाला तो पंडित हरिशंकर ब्यास को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया।
सिलिकॉन वैली में अगर ब्राह्मण छाए हुए हैं तो यह तथ्य है और किसी तथ्य को तर्क में इस्तेमाल करने में संविधान में कोई प्रतिबंध नहीं लगा हुआ है। प्रभाष जी तो इसी आनुवांशिक परंपरा के हिसाब से मुसलमानों को क्रिकेट में सबसे कौशलवादी कॉम मानते हैं और अगर कहते हैं कि इनको हुनर आता था और चूंकि हिंदू धर्म में इन्हें सम्मान नहीं मिला इसलिए उनके पुरखे मुसलमान बन गए थे। अगर जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, नरसिंह राव और राजीव गांधी ब्राह्मण हैं तो इसमें प्रभाष जी का क्या कसूर हैं? इतिहास बदलना उनके वश का नहीं है। प्रभाष जी ने इंटरव्यू में कहा है कि सुनील गावस्कर ब्राह्मण और सचिन तेंदूलकर ब्राह्मण लेकिन इसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि अजहरुद्दीन और मोहम्मद कैफ भारतीय क्रिकेट के गौरव रहे हैं।
एक और बात उछाली जा रही है और वह है सती होने की बात। एक जमाने में देवराला सती कांड हुआ था तो बनवारी जी ने शास्त्रों का हवाला दे कर एक संपादकीय लिखा था जिसमें कहा गया था कि सती होना भारतीय परंपरा का हिस्सा है। वे तथ्य बता रहे थे। सती होने की वकालत नहीं कर रहे थे। इस पर बवाल मचना था सो मचा और प्रभाष जी ने हालांकि वह संपादकीय नहीं लिखा था, मगर टीम के नायक होने के नाते उसकी जिम्मेदारी स्वीकार की। रविवार के इंटरव्यू में प्रभाष जी कहते हैं कि सती अपनी परंपरा में सत्य से जुड़ी हुई चीज है। मेरा सत्य और मेरा निजत्व जो है उसका पालन करना ही सती होना है। उन्होंने कहा है कि सीता और सावित्रि ने अपने पति का साथ दिया इसीलिए सबसे बड़ी सती हिंदू समाज में वे ही मानी जाती है।
अरे भाई इंटरव्यू पढ़िए तो। फालतू में प्रभाष जी को जसवंत सिंह बनाने पर तूले हुए हैं। प्रभाष जी अगर ये कहते हैं कि भारत में अगर आदिवासियों का राज होता तो महुआ शेैंपियन की तरह महान शराब मानी जाती लेकिन हम तो आदिवासियों को हिकारत की नजर से देखते है इसलिए महुआ को भी हिकारत से देखते हैे। मनमोहन सिंह को खेती के पतन और उद्योग के उत्थान के लिए प्रभाष जी ने आंकड़े दे कर समझाया है और अंबानी और कलावती की तुलना की है, हे अनपढ़ मित्रों, आपकी समझ में ये नहीं आता।
आपको पता था क्या कि शक संभवत उन शक हमलावरों ने चलाया था जिन्हें विक्रमादित्य ने हराया था लेकिन शक संभवत मौजूद है और विक्रमी संभवत भी मौजूद है। यह प्रभाष जी ने बताया है। प्रभाष जी सारी विचारधाराओं को सोच समझ कर धारण करते हैं और इसीलिए संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक राष्ट्रवाद कहते है। इसके बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी से ले कर भैरो सिंह शेखावत तक से उनका उठना बैठना रहा है। विनाबा के भूदान आंदोलन में वे पैदल घूमे, जय प्रकाश नारायण के साथ आंदोलन में खड़े रहे और अड़े रहे। चंबल के डाकुओं के दो बार आत्म समर्पण में सूत्रधार बने और यह सिर्फ प्रभाष जी कर सकते हैं कि रामनाथ गोयनका ने दूसरे संपादकों के बराबर करने के लिए उनका वेतन बढ़ाया तो उन्होंने विरोध का पत्र लिख दिया। उन्होंने लिखा था कि मेरा काम जितने में चल जाता है मुझे उतना ही पैसा चाहिए। ये ब्लॉगिए और नेट पर बैठा अनपढ़ों का लालची गिरोह प्रभाष जी को कैसे समझेगा?
ये वे लोग हैं जो लगभग बेरोजगार हैं और ब्लॉग और नेट पर अपनी कुंठा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते रहते हैं। नाम लेने का फायदा नहीं हैं क्योंकि अपने नेट के समाज में निरक्षरों और अर्ध साक्षरों की संख्या बहुत है। मैं बहुत विनम्र हो कर कह रहा हूं कि आप प्रभाष जी की पूजा मत करिए। मैं करूंगा क्योंकि वे मेरे गुरु हैं। आप प्रभाष जी से असहमत होने के लिए आजाद हैं और मैं भी कई बार असहमत हुआ हूं। जिस समय हमारा एक्सप्रेस समूह विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सारे घोड़े खोल चुका था और प्रधानमंत्री वे बन भी गए थे तो ठीक पंद्रह अगस्त को जिस दिन उन्होंने लाल किले से देश को संबोधित करना था, जनसत्ता के संपादकीय पन्ने पर मैंने उन्हें जोकर लिखा था और वह लेख छपा था। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लगभग विलखते हुए फोन किया था तो प्रभाष जी ने उन्में मेरा नंबर दे दिया था कि आलोक से बात करो।
यह कलेजा प्रभाष जी जैसे संपादक का ही हो सकता है कि एक बार रामनाथ गोयनका ने सीधे मुझे किसी खबर पर सफाई देने के लिए संदेश भेज दिया तो जवाब प्रभाष जी ने दिया और जवाब यह था कि जब तक मैं संपादक हूं तब तक अपने साथियों से जवाब लेना होगा तो मैं लूंगा। यह आर एन जी का बड़प्पन था कि अगली बार उन्होंने संदेश को भेजा मगर प्रभाष जी के जरिए भेजा कि आलोक तोमर को बंबई भेज दो, बात करनी है।
आपने पंद्रह सोलह हजार का कंप्यूटर खरीद लिया, आपको हिंदी टाइपिंग आती है, आपने पांच सात हजार रुपए खर्च कर के एक वेबसाइट भी बना ली मगर इससे आपको यह हक नहीं मिल जाता कि भारतीय पत्रकारिता के सबसे बड़े जीवित गौरव प्रभाष जी पर सवाल उठाए और इतनी पतित भाषा में उठाए। क्योंकि अगर गालियों की भाषा मैंने या मेरे जैसे प्रभाष जी के प्रशंसकों ने लिखनी शुरू कर दी तो भाई साहब आपकी बोलती बंद हो जाएगी और आपका कंप्यूटर जाम हो जाएगा। भाईयो बात करो मगर औकात में रह कर बात करो। बात करने के लिए जरूरी मुद्दे बहुत हैं।
आलोक तोमर
(आलोक तोमर वरिष्ठ पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के सम्पादक हैं, सम्प्रति सीएनईबी समाचार चैनल में सलाहकार संपादक के तौर पर सेवाएं दे रहे हैं)
Wednesday, July 8, 2009
Wednesday, June 10, 2009
Wednesday, July 16, 2008
कांग्रेस ही नहीं, सबकी अग्नि परीक्षा
शंभूनाथ शुक्ल
संसद में 22 जुलाई की अग्निपरीक्षा को अब ज्यादा दिन नहीं रह गए हैं। हर पार्टी में कोहराम मचा है। कहीं पैसों का खेल है, तो कहीं कॉरपोरेट घरानों के इशारे पर सांसदों को बरगलाया जा रहा है। पार्टी लाइन, नैतिकता आज सब ताक पर हैं। कल के दुश्मन आज गलबहियां डाले घूम रहे हैं, तो साथ मरने-जीने की कसमें खाने वाले कन्नी काटते नजर आ रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा, दोनों अपने साथियों से तो आशंकित हैं ही, सबसे बड़ा खतरा उनकी अपनी ही पार्टी के सांसदों से है कि ऐन मौकेपर कहीं वे ही बगलें न दिखाने लगें। पार्टी के एक इशारे पर जिस माकपा ने अपने नेता ज्योति बसु को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था, आज वही अपनी पार्टी के नेता और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पद छोड़ने के लिए राजी नहीं कर पा रही है। कोलकाता में माकपा सरकार के खेल और युवा मामलों के मंत्री सुभाष चक्रवर्ती पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव की लाइन की खुलेआम निंदा कर रहे हैं। भारतीय संसदीय राजनीति में शायद यह पहला मौका है, जब कोई पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि उसके सांसद उसकी लाइन को आंख मूंद कर मान ही लेंगे।
केंद्र की मनमोहन सरकार यह विश्वास प्रस्ताव क्यों ला रही है या उसको समर्थन दे रहे वाम दलों ने क्यों उसके पांवों के नीचे से दरी खींच ली, यह मुद््दा अब गौण हो गया है। शायद ही कोई अब एटमी डील के नफे-नुकसान की चर्चा करता हो। अब तो मामला है कि सरकार बचेगी या जाएगी। एक या दो सांसदों की पार्टियों की बात तो छोड़िए, 39 सांसदों वाली समाजवादी पार्टी के सांसद खुलेआम अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष और महासचिव की लाइन की अवहेलना की बात करते हैं
बेनीप्रसाद वर्मा और राज बब्बर तो खैर पुराने बागी हैं। जयप्रकाश रावत, मुनव्वर हसन, और राजनारायण बुधौलिया तक सपा के कहे मुताबिक वोट डालेंगे, इसमें शक है। उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के कितने ही सांसद अगली लोकसभा में पहुंचने के लिए बसपा का मुंह ताक रहे हैं। वे पुख्ता तौर पर कांग्रेस की लाइन पर वोट डालेंगे, यकीनी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। भाजपा में भी कांग्रेस के विश्वास प्रस्ताव पर मत विभाजन की आशंका है। भाजपा के अंदर डील को लेकर दो धाराएं साफ नजर आती हैं। यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और मुरली मनोहर जोशी जहां अमेरिका के साथ एटमी डील के कट््टर विरोधी हैं, वहीं पार्टी का एक बड़ा खेमा इसका समर्थक भी है।
दूसरी तरफ मायावती का पेच है। उन्होंने डील को मुसलिम विरोधी बताकर हर पार्टी को डिफेंसिव बना दिया है। कोई भी राजनीतिक दल मुसलमानों के वोट खोना नहीं चाहता। और यह सच है कि मुसलमानों में डील को लेकर एक हिच है। देश का आम मुसलमान बुश को इसलाम विरोधी समझता है, इसलिए बुश से कोई भी समझौता उसकी नजर में मुसलिम विरोधी हुआ। यही कारण है कि यूपीए की सहयोगी ऑल इंडिया मुसलिम लीग के इकलौते सांसद और मनमोहन सरकार में मंत्री ई. अहमद यूपीए से छिटक गए। हालांकि बसपा सुप्रीमो मायावती ने यह दांव अपने चिर विरोधी मुलायम सिंह को पस्त करने केलिए फेंका था, पर उसका असर हर पार्टी पर हुआ है। मुलायम सिंह की सपा पर कुछ ज्यादा, क्योंकि उनकी पार्टी के स्वास्थ्य के लिए मुसलमानों के वोट सबसे ज्यादा अहम हैं। यही कारण है कि पार्टी सुप्रीमो कुछ बोल रहा है और पार्टी के सांसद दूसरी राह पकड़ रहे हैं।
कोई 12 साल पहले जिस माकपा ने अपने सबसे ताकतवर और लोकप्रिय मुख्यमंत्री ज्योति बसु को प्रधानमंत्री की कुरसी पर बैठने नहीं दिया था, उसी माकपा का हाल यह है कि पार्टी महासचिव अपनी ही पार्टी के सोमनाथ चटर्जी को समझाने में नाकाम हैं। माकपा की बंगाल लॉबी पार्टी महासचिव प्रकाश करात का घोर विरोध कर रही है। ज्योति बसु का साफ कहना है कि एटमी डील के मुद््दे पर वाम दलों द्वारा समर्थन वापसी ही पर्याप्त था, उनका मकसद सरकार गिराना नहीं होना चाहिए। करात की अतिशय सक्रियता ज्योति बसु के खेमे को कतई रास नहीं आ रही है, इसीलिए ज्योति दा के सबसे करीबी सुभाष चक्रवर्ती खुल्लमखुल्ला प्रकाश करात की आलोचना कर रहे हैं। विश्वास प्रस्ताव के दौरान वाम दलों द्वारा भारतीय जनता पार्टी के साथ विरोध में मतदान करना वह पार्टी लाइन के खिलाफ मानते हैं। सुभाष चक्रवर्ती का कहना है कि कोयंबटूर बैठक में पार्टी ने तय किया था कि वह सांप्रदायिक ताकतों को दिल्ली की कुरसी से दूर रखेगी, अब भाजपा के साथ वोटिंग कर पार्टी अपनी ही लाइन के खिलाफ काम करेगी। यानी अब डील या नो डील नहीं, असल मसला पार्टियों की अंदरूनी खुन्नस का है। अगर डील को मुद््दा माना जाए, तो एबी बर्ध्दन और प्रकाश करात के साथ ही यशवंत सिन्हा खड़े दीखते हैं और अमर सिंह, मुलायम सिंह के साथ ज्योति बसु और सुभाष चक्रवर्ती।
भाकपा नेता एबी बर्ध्दन के इस आरोप पर, कि कांग्रेस सांसदों को 25-25 करोड़ में खरीद रही है,अगले ही रोज अमर सिंह ने कहा कि मायावती हमारे सांसदों को तोड़ने के लिए प्रति सांसद तीस करोड़ की बोली लगा रही हैं। रिलायंस के मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी भले ही अपने कारणों से सत्ता केगलियारे में सक्रिय हों, लेकिन वे भी इन दिनों निशाने पर हैं। औद्योगिक घरानों की सक्रियता हर पार्टी को शक के दायरे में ले आती है। आज हालत यह है कि किसी भी राजनीतिक दल को अपने ही सांसदों पर भरोसा नहीं रह गया है। खुद सांसद भी सांसत में हैं। 14 वीं लोकसभा को अब ज्यादा दिन नहीं रह गए हैं। आज सरकार बच जाए, तो भी अप्रैल तक चुनाव अवश्यंभावी हैं। अब प्रश्न यह है कि नए परिसीमन और समीकरण के चलते क्या वे अपनी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीत पाएंगे। उत्तर प्रदेश में तो स्थिति बहुत ही खराब है। कांग्रेस, भाजपा या सपा के सांसदों में से ज्यादातर को अपनी सीट बदलनी पड़ेगी, क्योंकि परिसीमन ने उन्हें अजीब पसोपेश में डाल दिया है। ज्यादातर सांसदों का संकट यह है कि जहां से वे लड़ना चाहते हैं, वहां पर उनका टिकट पाना मुश्किल है। और सीट बदली, तो जीतने की गारंटी तय नहीं। अलबत्ता बसपा के टिकट पर एक निश्चित वोट बैंक पक्का माना जा रहा है। इसलिए हर पार्टी के सांसदों में भगदड़ मची है। ऐसे में, यह कैसे संभव है कि पार्टी लाइन पर चलकर सांसद वोट डालेंगे।
शम्भू नाथ शुक्ला जनसत्ता के आदिवासी साथी हैं और अब अमर उजाला देल्ली के संपादक हैं. अपने अगन में आने पर उनका स्वागत है
Sunday, June 29, 2008
एक लटकती हुई चार्जशीट
दो साल, चार महीने और पाँच दिन। इतना वक्त लगा दिल्ली पुलिस को एक चार्जशीट दाखिल करने में। वो भी ऐसे मामले मैं जिसमें वह अभियुक्त की जमानत रद्द करवाने के लिए हाई कोर्ट में एक साल से अर्जी लगाये हुए है और वहां पुलिस का तर्क है कि अभियुक्त अगर आजाद रहा तो देश और न्याय के लिए भारी खतरा है।
ये मामला है 2006 के फरवरी महीने का जब एक संपादक पर इल्जाम लगाया गया था कि उसने वे डेनिश कार्टून भारत में छाप कर भारत में सांप्रदायिक अशांति फैलाने की कोशिश की है जिन्हें ले कर पूरी दुनिया के कई हिस्सों में फतवे जारी किए जा रहे है और खास तौर पर डेनमार्क में तो कार्टून छापने वाले संपादक को भूमिगत होना पड़ा है। तब पुलिस को इतनी फ़िक्र और इतनी जल्दी थी कि इस 'अभियुक्त संपादक' को बिना उचित अदालत में ले जाए, सीधे तिहाड़ जेल भेज दिया गया-इस आदेश के साथ कि इसे उस उच्च सुरक्षा बैरक में बंद करो जहाँ कश्मीरी आतंकवादी आदि बंद होते हैं। बारह दिन जेल में रहने के बाद जमानत हुई और इस बात का इंतजार भी कि कब अभियोग लगेंगे और कब मुक़दमा शुरू होगा। इस बीच संसार के लगभग हर देश के पत्रकार संगठनो ने भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को इंटरनेट पर और सीधे भी अपीलें भेजी। सर्वोदयी प्रभाष जोशी से ले कर वामपंथी कमलेश्वर तक अदालत में हाजिर हुए और उन्होने संपादक की बेगुनाही और धर्मनिरपेक्षता की कसमें खाई और संबंधित मजिस्ट्रेट ने जमानत के आदेश में ही पुलिस के आरोप की धज्जियां उड़ा दी। लेकिन दिल्ली की पुलिस कसम खाए बैठी थी कि संसार के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी में अभिव्यक्ति की आजादी का जो संवैधानिक मूल अधिकार है, उसे अपने बूटो ंके नीचे रौंद दिया जाय। दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी गृह मंत्री शिवराज पाटिल से इस गिरफ्तारी ंके खिलाफ अपील कर रहे थे तो झारखंड ंके उन्ही की पार्टी ंके एक नेता संपादक का सिर कलम करने वाले को करोड़ो रुपए का इनाम देने का ऐलान कर रहा था।
इस मामले में सवा दो साल में 17 जांच अधिकारी बदले गए, तीन थानेदार और तीन डीसीपी बदल गए लेकिन चार्ज शीट को न पेश होना था न वो हुई। हार कर कर अभियुक्त पत्रकार ने दिल्ली हाईकोर्ट से ही कहा कि मी लार्ड, अगर इल्जाम है तो मुक़दमा चलवाइए या फिर एफ़ आई आर को ही खारिज कीजिए। अदालत ने पुलिस से पूछा औए एक थकी हारी एफ़ आई आर 5 जून को पेश कर दी गयी। अब मुक़दमा चलेगा, तारीखें पड़ेंगी और पत्रकार लिखने की वजाय अदालत में मुजरिम बना रहेगा।
गिरफ्तारी के वक्त वहुत खबरें बनी थी, टीवी चेनलों के ओ वी वैन लगे थे। बहुत सारे संपादक टीवी पर प्रेस की आजादी का राग गा रहे थे तो एक तो ऐसे थे जो संपादक को ही नालायक करार दे रहे थे। इसके बाद वे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर गए होंगे और अपने होम थियेटर पर कोई फिरंगी फिल्म देखी होगी। अपनी अपनी बुध्दि, अपने अपने सरोकार। कोई ये नहीं देख पा रहा था कि तत्कालीन पुलिस आयुक्त की ख़ुद इस मामले में क्या दिलचस्पी थी, यह भी नहीं कि इस आयुक्त के के पॉल की धर्मं पत्नी ज़िंदगी भर कांग्रेस के एक ठिगने महाबली मंत्री के साथ-तू जहाँ जहाँ रहेगा, मेरा साया साथ होगा-की अदा में काम करती रहीं थी, आज भी कर रही हैं। शिखंडी की तरह आचरण कर रहे गृह मंत्री को आगे रख कर चलाया गया था ये हथियार।
के के पॉल का गुस्सा कितना निजी था ये इसी से ज़ाहिर है कि एक और मामले में, इसी पत्रकार को गिरफ्तार करने के लिए, कुछ ही महीने बाद पुलिस टीम हवाई अड्डे पर जहाज़ के नीचे खड़ी कर दी और पत्रकार को उठवा लिया। इस बार गिरफ्तारी दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने की थी। ये सेल आतंकवादियों और माफिया से निपटने के लिए वनाया गया है। फिर तिहाड़ जेल। इस बार संगत सांसद पप्पू यादव से ले कर नवी वार रूम लीक केस के अभियुक्तों की मिली। फिर जमानत हुई और ये लो, मामला अदालत की पहली पेशी में,दस- पन्द्रह मिनट में खारिज। कार्टून वाले मामले में चार्ज शीट तब तक भी नहीं आयी थी।
इस बीच के के पॉल को संघ लोक सेवा आयोग का सदस्य बना दिया गया। एक लापता इन्स्पेटर से जान का खतरा बहाना बना और पहले उन्हें ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा मिली और फिर जेड प्लस श्रेणी की। अपने देश में भूतपूर्व पुलिस आयुक्त होना कितने खतरे की बात है? लापता इंस्पेक्टर वापस भी आ गया, उसे धमकी के आरोप में गिरफ्तार भी नहीं किया गया। मगर के के पौल की सुरक्षा अब भी कायम है। बेटा वकालत कर रहा है और पत्नी एनजीओ भी चलाती हैं और देश ंके विदेश मंत्री की सलाहकार भी हैं। यह जोड़ा इतना करामाती है कि एनजीओ के लिए हरियाणा सरकार से करोड़ो की जमीन मिल गई और पत्नी ंके नाम से गुड़गांव ंके महंगे बीएलएफ ईलाके में एक करोड़ रुपए की लागत से और यह सिर्फ मकान बनाने की लागत है उनकी एक तीन मंजीला कोठी भी तैयार हो गयी। इस कोठी की जानकारी बिल्डर एमएल आहुजा की बेबसाईट-www.mlahujaassociates.com से मिल सकती है। लेकिन लोग तरक्की करे और बीबी के नाम से उसके जीते जी ताजमहल बनवाए, खुद को शाहजहां साबित करें, अपना क्या जाता है।
ये में अपनी कहानी लिख रहा हूँ। गुणों की खान नहीं हूँ इस लिए न्यायोचित रूप से निरासक्त नहीं रह पाया तो न्याय और आप क्षमा करें। न मर्यादा पुरुषोत्तम हूँ और न महात्मा गांधी, फिर भी चार अक्षर बेच कर रोजी चलाता हूँ। मेंरा एक सवाल है आप सब से और अपने आप से। जिस देश में एक अफसर की सनक अभिवक्ति की आजादी पर भी भरी पड़ जाए, जिस मामले में रपट लिखवाने वाले से ले कर सारे गवाह पुलिस वाले हों, जिसकी पड़ताल, 17 जांच अधिकारी करें और फिर भी चार्ज शीट आने में सालों लग जायें, जिसमें एक भी नया सबूत नहीं हो-सिवा एक छपी हुई पत्रिका के-ऐसे मामले में आज में कटघरे में हूँ, कल आप भी हो सकते हैं।
मित्रो, ग़लत फहमी मत पालिए। में न मुकदमा लड़ने ंके लिए चंदा मांग रहा हूँ और न जुलूस निकालने के लिए भीड़। न्याय या दंड भी मुझे अदालत से मिलेगा। मेरा सवाल सिर्फ़ यह है कि जब एक साथी पूरी व्यवस्था से निरस्त्र या ज्यादा से ज्यादा काठ की तलवारों के साथ लड़ता है तो आप सिर्फ़ तमाशा क्यों देखते हैं? समर शेष है, नही पाप का भागी केवल व्याध / जो तटस्थ है, समय लिखेगा, उनका भी अपराध।
अब चाहें तो वो लेख (मूल हिन्दी के इंग्लिश अनुवाद का हिन्दी अनुवाद ) पढ़ लें जिस पर सारा बवाल कटा है---
'पिछले दिनों इस्लाम धर्म की स्थापना करने वाले पवित्र हजरत मोहम्मद के एक कार्टून पर, जो डेनमार्क में छपा है, काफ़ी प्रदर्शन हुए, और अब भी चल रहे हैं। हजरत मोहम्मद के कार्टून छापने वाली पत्रिका वाही है जिसने च्रिस्ट के कार्टून छपने से इनकार कर दिया था। अब जॉर्ज बुश भी कहते हैं कि मुस्लिमों में परिहास बोध नहीं होता और इसी से उनके धर्म के मूल आधार का पता चलता है। अमेरिका की इन मूर्खता भरी टिप्पणियों से आतिशबाजी उठनी स्वाभाविक हैं। आप किसी भी धर्म की मूल आधार को चुनौती दे कर बच नहीं सकते।
माना कि किसी भी धर्मं की महानता का पैमाना उसकी सहिष्णुता है और यह तथ्य भी कि वह अपने पर की गयी टिप्पणियों को कितना सहन कर सकता है। किंतु अगर कोई धर्म अगर अपने पर मजाक का बुरा मानता हो तो उसे अपने पथ का संधान करने के लिए ख़ुद छोड़ देना चाहिए।'
कुछ ग़लत लिखा था?
Saturday, April 5, 2008
क्रिकेट राजनीति का तीसरा अंपायर
सुप्रिया रॉय
राजीव शुक्ला आज राजनीति में भी हैं, क्रिकेट में भी, पत्रकारिता में भी, खबरों के कारोबार में भी और ग्लैमर की दुनिया में भी। सैंतालीस साल की उम्र में राज्य सभा में दूसरी बार आ जाने और देखते ही देखते क्रिकेट की दुनिया पर छा जाने वाले राजीव शुक्ला ने बचपन में कंचे और गिल्ली ठंडा खूब खेला है और कानपुर के दैनिक जागरण में, बड़े भाई दिलीप शुक्ला की छत्र छाया में जब उन्होनें पत्रकारिता शुरू की होगी तो ज्यादातर लोगों की तरह उनकी उम्मीदें बड़ी भले ही हों लेकिन खुद उन्हें अंदाजा नही होगा कि आखिर उनकी नाव किस घाट पर जा कर लगेगी। आज वे सफल भी हैं, समृध्द भी और प्रसिध्द भी लेकिन यह नही कहा जा सकता कि उनकी नाव घाट पर लग गई है। अभी बहुत सारी धाराएं, बहुत सारे भंवर और बहुत सारे प्रपात रास्तें में आने हैं और राजीव शुक्ला को उन्हें पार करना है। इतना तो है कि 1983 में दिल्ली के एक क्रांतिकारी अखबार में नौकरी के लिए इंटरव्यूह देने आए सभी लोगों के बीच कम से कम ढाई हजार रुपए की मांग करने की आम सहमति बनाते धूम रहे राजीव शुक्ला आज अपने टी वी चैनल में लोगों को आसानी से ढाई-ढाई लाख रुपए की नौकरियां देते हैं और एक जमाने में स्कूटर तक नही खरीद पाने वाले राजीव अब हवाई जहाज से नीचे नही उतरते और आम तौर पर उन्हें चार्टड जहाजों में भी देखा जाता है।
इन दिनों जब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में वर्चस्व की लड़ाई जोर शोर से चल रही है, जगमोहन डालमिया पर आरोप लगें हैं और वे इनके जवाब में लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के मूड में हैं, भारतीय क्रिकेट टीम कभी शेर हो जाती तो कभी ढेर हो जाती है- ऐसे दौर में बी सी सी आई के ताकतवर उपाध्यक्ष और सबसे प्रसिध्द चेहरे के तौर पर होने के बावजूद राजीव शुक्ला विवादों के घेरे में नही आते। वे रणवीर महिन्द्रा, बिन्द्रा, ललित मोदी और शरद पवार के साथ आसानी से चल लेते है और यह बात बहुतों को आश्चर्य में डालती है लेकिन उन्हें नही जो राजीव शुक्ला की फितरत को जानते हैं। बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो काफी आसानी से राजीव शुक्ला के सब तरह के उथान को जूगाड़ और अवसरवाद करार दे कर अपना कलेजा ठंडा कर लेते हैं और उनके पास इसके बारे में कुछ तर्क, कुछ कारण जरूर होगें लेकिन उनके लिए यह समझना कठिन है कि अस्तित्व और आकांक्षा के अध्दैत को साधने के लिए निर्गुण और सगुण का नही निराकार और साकार में से साकार का चुनाव करना पड़ता है। राजीव शुक्ला ने राजनीति के साकार पात्रों को साधा और एक बड़ी बात यह है कि धाराएं भले ही अलग हो गई हो, नाता किसी से नही तोड़ा। पता नही कब और किस मोड़ पर वे यह ध््राुव सत्य सीख गए थे कि असली निवेश रिश्तों में किया गया निवेश होता है। जब वे राज्य सभा का पहला चुनाव निर्दलीय लड़े और बड़े बड़े धन्ना सेठों को हरा कर सबसे ज्यादा वोटों से जीते तब यह सच पहली बार उनके संदर्भ में सामने आया था।
राजीव शुक्ला के बहाने समकालीन राजनीति का और खेल की राजनीति का एक पूरा खाका आप खींच सकते हैं। वे जब किराए के एक मकान में, सरकारी कॉलोनी में कई दोस्तों के साथ रहते थे तो अखबार के काम के अलावा उनका ज्यादातर समय अपनी निजी संपर्क डायरेक्टरी विकसित करने में बीतता था। दिल्ली आ कर वे सबसे पहले पड़ोसी मेरठ जिले के संवाददाता बने और देखते ही देखते मेरठ खबरों के अखिल भारतीय नक्शे पर आ गया। फिर वे रविवार में गए और जिस समय विश्वनाथ प्रताप सिंह को निरमा साबुन से भी ज्यादा साफ समझा जाता था और उन्हें जयप्रकाश नारायण के उत्ताराधिकारी के तौर पर स्थापित करने की समवेत कोशिशें चल रहीं थी, राजीव ने रविवार के आवरण कथा में एक सच लिख कर सबके छक्के छुड़ा दिए। सच यह था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक नाटकीय क्षण में अपनी बहुत सारी जमीन विनोबा भावे की भूदान यात्रा में दान कर के यश कमाया था और फिर जब उन्हें लगा था कि गलती हो गई तो उन्होनें अपनी पत्नी की ओर से अपने ही खिलाफ हलफनामा दिलवाया कि उनका पति पागल है और उसके ध्दारा दस्तखत किए गए किसी भी दस्तावेज को कानूनी मान्यता नही दी जाए। राजीव शुक्ला को कांग्रेस का एजेंट घोषित कर दिया गया मगर वे यह मुहावरा चलने के बहुत साल पहले मुन्ना भाई की तर्ज पर लगे रहे। कम लोग जानते हैं कि शाहबानों प्रसंग में बागी आरिफ मोहम्मद खान और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच संवाद का एक सबसे बड़ा सेतु भी राजीव ही थे और यही उनके इस परिवार से संपर्क स्थाापित होने की शुरूआत थी।
क्रिकेट की दुनिया में राजीव शुक्ला को स्वर्गीय माधव राव सिंधिया लाए थे। राजीव ने इस खेल की महिमा और ताकत को पहचाना और इसके सहारे कई राजनैतिक मंजिलें भी पार की। इस बीच वे अचानक बहुत हाई प्रोफाइल हो चुके थे, राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच चाहे जैसी तनातनी चलती रहे लेकिन दोनों की विदेश यात्राओं में राजीव की सीट पक्की होती थी। दिल्ली की पीटीआई बिल्डिंग में अपने ऑफिस में काम करते वक्त पीटीआई की एक बहुत दमदार पत्रकार अनुराधा से पहचान हुई, रिश्ता बना और आज तक बना हुआ है। अनुराधा टीवी में चैनलों की क्रांति होने के पहले से ही दिलचस्पी रखती थी और पीटीआई टीवी के नाम से शुरू हुई संस्था में उनकी मुख्य भूमिका थी। राजीव शुक्ला से भी उन्होनें दूरदर्शन पर बड़े लोगाेंं से अंतरग मुलाकातों का कार्यक्रम रूबरू शुरू करवाया। इस कार्यक्रम को आज एनडीटीवी पर चलने वाले शेखर गुप्ता के वॉक द टॉक का पूर्वज माना जा सकता है। इसी दौरान वे फिल्मकार रमेश शर्मा के टीवी शो के लिए निकले और चंबल घाटी पर कई ऐपीसोड की किस्तें बना कर ले आए।
राजीव शुक्ला की कहानी हमारे समय की राजनीति की एक प्रतिनिधि कथा है। बहुत सारे परिचित और अपरिचित हैं जो राजीव शुक्ला की छवि को पच्चीस साल पुराने सांचे में रखकर देखते हैं जब वे दिल्ली की एक्सप्रेस बिल्डिंग के बगल के एक ढाबे में दोस्तों के साथ खाना खाते थे और अपने हिस्से का दाम चुकाने के लिए चिल्लर की तलाश करते थे। नए अवतार में राजीव शुक्ला पुराने ही हैं मगर उनकी एक छवि में बहुत सारी छवियां समा गई हैं। उनके दोस्तों में अब शाहरुख खान भी हैं और विजय माल्या भी। अंबानी कुटुबं से तमाम विरोधाभासों के बावजूद उनकी इतनी तो निभती ही है कि अंबानी समूह के अखबार ऑब्जर्बर के संपादक वे सांसद बनने के बाद तक बने रहे। आज भी संसद की उनकी परिचय पुस्तिका में उनका पेशा पत्रकारिता ही लिखा हुआ है। रिडिफ वेबसाईट ने तो उन्हें पिछले पंद्रह साल से भारत में सबसे ज्यादा प्रभावशाली संपर्को वाला पत्रकार घोषित किया हुआ है। हिंदी मीडियम में पढे अौर ज्यादातर हिंदी पत्रकारिता करने वाले राजीव शुक्ला ने इतनी धमाकेदार अंग््रोजी कब और कहां से सीख ली, यह जरुर सबके लिए रहस्य बना हुआ है।
लिखने के मामले में राजीव शुक्ला प्रभाष जोशी या राजेन्द्र माथुर नही हैं और न उनकी रिर्पोटिंग में पत्रकारिता में उनके अग््राज उदयन शर्मा वाली तल्लीनता है। लेकिन उनके लिखने, राजनीति करने और क्रिकेट से ले कर कांग््रोस तक के उलझे हुए समीकरण सुलझाने में एक त्वरित तात्कालिकता जरुर है जो उन्हें किसी का विकल्प बनने की मजबूरी में नही फंसाती। बचपन में वे अपने कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम कितने गए हैं यह तो पता नही लेकिन क्रिकेट की दुनिया में अपनी प्रासंगिकता बनाने के लिए वे टीम के मैनेजर भी बने और बहुत सारे निशाने साधने वाले तीरंदाज भी। जगमोहन डालमिया और शरद पवार के बीच डालमिया के भूतपूर्व शिष्य इंद्रजीत सिंह बिंद्रा की वजह से जो लफड़ा शूरू हूआ है उसे निपटाने में राजीव शुक्ला की बड़ी भूमिका रहने वाली है। आपने गौर किया होगा कि डालमिया ने शरद पवार, निरंजन शाह और उनकी मंडली पर सैकेंड़ों करोड़ के घोटाले के आरोप लगा डाले हैं, शरद पवार को तो उन्होनें मुशर्रफ से बड़ा तानाशाह कह डाला है लेकिन इस शत्रु सूची में राजीव शुक्ला का नाम नही है। राजीव शुक्ला क्रिकेट की राजनीति के लगभग अदृश्य रहने वाले तीसरे अंपायर हैं।
Thursday, April 3, 2008
उट्ठो ज्ञानी खेत संभालो
घाटे पानी सब भरे औघट भरे न कोय।
औघट घाट कबीर का भरे सो निर्मल होय।।
साधो, क्या तुम मानोगे कि मनमोहन सिंह का सपना भारत और इंडिया की दूरी खत्म करना है? तुम साधुओं को किसी पर भी अविश्वास नहीं करना चाहिए। फिर ये तो साक्षात प्रधानमंत्री हैं। सौ करोड़ से ज्यादा लोगों का यह देस उन पर भरोसा करता है। यह बात अलग है कि वह खुद अपने आदमी नहीं हैं। पहले राजीव गांधी की तरफ देख कर काम करते थे। फिर नरसिंहा राव ने उन पर भरोसा किया। और राव साब भले ही सोनिया गांधी को फूटी आंखों नहीं भाते होंगे, सोनियाजी का मौका आया तो उनने भी मनमोहन सिंह पर ही भरोसा किया। बल्कि नरसिंहा राव से भी ज्यादा किया। उनने तो इन्हें वित्तमंत्री बनाया था। सोनियाजी ने तो प्रधानमंत्री ही बना दिया। ऐसे भरोसेमंद आदमी हैं। कोई चीज़ माथे में नहीं जाती। कभी पर नहीं उगते। जो कहा जाता है अपना तन, मन, धन लगाकर वही करते हैं। जिन पर राजनीति के बेबिस्वासी लोग इतना भरोसा करते हैं उनको हम साधु लोग शक की नज़र से क्यों देखें?
मनमोहन सिंह पंजाब के जिस गांव में जन्में थे वह आज़ादी के पहले का गांव था और अब पाकिस्तान में रह गया है। वह गांव ही था तो साफ-सफाई, पीने का पानी, बिजली, पाठशाला आदि कुछ भी वहां नहीं था। धूल धक्कड़, गंदगी और फटेहाली ही थी। उन्हें पढ़ने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता था। मनमोहन सिंह को उस गांव की बहुत याद आती है। तभी से उनको धुन लगी हुई है कि गांव और शहर की दूरी पट जाए और गांव वाला किसान देख सके कि उसका जीवन स्तर शहर वाले से कमतर नहीं है।
यानी साधो, मनमोहन सिंह गांव को मुंबई और मुंबई को शंघाई बनाना चाहते हैं। जैसा अमेरिका वालों ने गांवों को शहर बनाकर गांवो का नामो निशान नहीं छोड़ा है और खेती को कारखाना बना दिया है वैसा ही मनमोहन सिंह का सपना है। अब दिक्कत यह हो रही है कि सत्रह साल पहले उनने जो आर्थिक नीतियां चलाई थी वो फल-फूल कर गांवो को शहर बनाने में लगी हैं। जैसे ऑमलेट को बनाने के लिए अंडों को तोड़ना पड़ता है वैसे ही गांव को खत्म किए बिना गांववालों को शहर की सुविधाएं नहीं दी जा सकती। इंडिया और भारत का संघर्ष खत्म करने के लिए भारत को खत्म करना पड़ेगा। इंडिया तभी बनेगा। उसमें गांव वाले नहीं रहेंगे। शहरी ही होंगे जो अपने विमान और हेलीकॉप्टर से खेती देखने जाएंगे और शाम तक लौट आएंगे। कभी मौज के लिए रुकना हुआ तो रेंच हाउस होंगे ही।
अपना वही सपना पूरा करने के लिए मनमोहन सिंह सत्रह साल से खेती, गांव, गंदगी, काहिली सब खत्म करने में लगे हुए हैं। उनकी पूरी तैयारी है कि गांव वाले खेती छोड़ कर शहर में उद्योग चलाएं नहीं तो बाहर से आने वालों की सेवा करें। खेती अंबानियों, मित्तलों, टाटाओं और बिरलाओं के करने का काम रह जाए। जैसे वे कारखाना लगा कर लाभ कमाते हैं वैसे ही खेती करके कमाएंगे। खेती किसान का नहीं कॉर्पोरेट का काम है। तभी तो आज के आधे से ज्यादा किसान खेती छोड़ने के लिए तैयार किए जा रहे हैं। अभी कालाहांडी का किसान साल भर हाड़तोड़ मेहनत करके सिर्फ तीन हज़ार रूपए पाता है। अंबानी और शेयर बाज़ार के बेटे बिना कुछ किए ही रातो रात करोड़ों कमा लेते हैं। आज खेती में बड़ा घाटा है। अंबानी का हाथ लगते ही वह सोना उगलने लगेगी। साधो, उट्ठो अपना खेत संभालो।
तहलका में प्रभाष जी का लोकप्रिय स्तम्भ
Wednesday, April 2, 2008
भीख नहीं है शिक्षा और रोजगार
भारत की संसद को रोजगार गारंटी कानून बनाने में तीन साल लगे। विधेयक 2005 के बजट सत्र के बाद लाया गया था लेकिन खासतौर पर कॉरपोरेट समूहों के मीडिया द्वारा तमाम तरह के सवाल उठाने के बाद वोटों और प्रचार की चिंता में कोई खुल कर सामने नहीं आ रहा था और आजिविका का संविधान में दिया गया मौलिक अधिकार संसद की फाइलों में एक कागजी सपना बन कर बैठा हुआ था।
इसमें कोई शक नहीं कि इतने बडे देश में इतने ज्यादा लोगों को रोजगार देना और उसके लिए उचित अवसर पैदा करना एक असाध्य काम है। यहां मैं असाध्य शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं असंभव का नहीं। देश को अंग्रेजों से आजाद करवाना असंभव माना जाता था और वह भी इसी देश के लोगों की इच्छाशक्ति ने संभव कर दिखाया। यह आजादी तब तक पूरी नहीं होगी जब तक यह आजीविका के लिए आजाद लोगों का देश नहीं बनेगा। इस कानून से सबसे ज्यादा परेशान वे लोग हैं जिन्होंने अपना कारोबार पहले कोटा परमिट राज में जुगाडाें से और अब खुली अर्थव्यवस्था में अपनी उद्यम शक्ति से खडा किया है और दुनिया में जगह बनाई है। विशेषज्ञता और तकनीकी कौशल की मांग करने वाले इन कॉरपोरेट घरानों को अगर यह बर्दाश्त नहीं है कि सरकार के आदेश पर उन्हें कर्मचारी अपने नियम और संहिता तोड क़र रखने ही पडें तो इस आपत्ति को समझा जा सकता है। आखिर दस करोड शिक्षित और प्रशिक्षित तथा पच्चीस करोड अन्य बेरोजगारों के लिए रोजगार का अवसर पैदा करना आसान नहीं है। इसके लिए मनमोहन सिंह की खगोलीय अर्थव्यवस्था को चुनौती देनी होगी और रोजगार से जुडी अपनी सामाजिक मानसिकता भी बदलनी पडेग़ी।
अभी जो सामाजिक मानसिकता है उसके अनुसार रोजगार का पहला अर्थ होता है कि सरकारी नौकरी मिल जाए। उसमें लोगों को आश्वस्ति और सुरक्षा नजर आती है लेकिन खुद सरकार के पास इतनी नौकरियां नहीं हैं और जो लाल फीताशाही का हाल है उसमें नौकरियों के अवसर पैदा करने में इतनी बाधाएं और इतने घोटाले होने तय हैं कि योजना की पवित्रता तो खंडित होगी ही, इसका पूरा उद्देश्य मिट्टी में मिल जाएगा। इसके लिए पहली जरूरत तो यह है कि रोजगार गारंटी कानून में योग्यता के आधार पर उपयुक्त आजीविका देने का प्रावधान जोडा जाए। आप अगर निकम्मे लोगों को रॉकेट उडाने पर लगा देंगे तो उसके नतीजे बहुत अच्छे नहीं मिलने वाले। अभी तक सरकार औद्योगिक घरानों को कारखाने और विशेष आर्थिक क्षेत्र-सेज -बनाने के लिए किसानों की जमीन जबर्दस्ती हडपने के अधिनियम पारित करती रही है लेकिन अपनी मूल आत्मा में रोजगार गारंटी कानून कामगार वर्ग को शक्ति देने वाला है और यही इसका सबसे बडा खतरा है।
पहला खतरा तो यह है कि कानून तो बन गया लेकिन जमीनी स्तर पर इसका पालन कैसे होगा इसका अभी तक कोई ढांचा नहीं बनाया गया है। अभी कुछ दिन पहले इंडिया डेवलपमेंट फाउंडेशन नाम के एक लगभग अज्ञात संगठन द्वारा एक सर्वेक्षण करवा कर बहुत सारे ढोल नगाडे पीटे गए थे। इस कॉरपोरेट सर्वेक्षण में बताया गया था कि रोजगार गारंटी योजना से मुद्रास्फीति बढेग़ी और इसका कारण बताया गया था कि सरकार पर खर्चे का बोझ और बढ ज़ाएगा। विनम्र निवेदन है कि भारत में रक्षा सेवाओं पर होने वाला खर्चा पूरे देश के बेरोजगारों को रोजगार दिलवाने में हो सकने वाले खर्चे का दसवां हिस्सा भी नहीं है और यह एक दिन में खर्च नहीं होने वाला। अभी जो गांव देहात में गरीबों को साल में चालीस पचास दिन के लिए रोजगार की जो गारंटी दी जाती है उसका सभी राज्यों को मिला कर बजट निकाला जाए तो इस पूरे खर्चे से ज्यादा बैठेगा। इन योजनाओं के नतीजे सबको मालूम हैं।
उधर सरकार भी अपनी ओर से बहुत टुच्चे प्रचार में उतर आयी है। सरकार के प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो 28 दिसम्बर 2007 को एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिए यह ऐलान किया था कि रोजगार गारंटी योजनाएं बहुत सफल हुई हैं। यह प्रेस विज्ञप्ति एक फरमान की तरह थी कि जिसमें एक भी आंकडा नहीं दिया गया था। सरकारी इमाम जो बोले उसे फतवा मान लो और उस पर भरोसा करो। यह तब है जब सरकार की ही सीएजी रपट में लगातार साठ पन्नों में बताया गया है कि देश के सबसे गरीब इलाकों में जो पैसा दिया जाता है वह गरीबों तक कभी नहीं पहुंचता। हालांकि यह कोई रहस्योद्धाटन नहीं है लेकिन सरकार की पहले से शंका में घिरी हुई नीयत पर और बडे सवाल खडे क़रता है। इससे मुक्ति पाना सरकारी तंत्र के ही हाथ में है।
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना पर अमल करवाना मूलत: ग्रामीण विकास मंत्रालय के हाथ में रहने वाला है क्योंकि सबसे ज्यादा बेरोजगार इन्हीं क्षेत्रों में हैं। रोजगार देकर सरकार कोई परोपकार नहीं कर रही है, सिर्फ अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करने का अवसर उसने भले ही चुनावी कारणों से, स्थापित किया है। यह अवसर एक दुर्भाग्य में नहीं बदले और रोजगार सबको उपलब्ध हो, लोकतंत्र सबकी दहलीज तक पहुंचे इसके लिए सबसे पहले लोकतंत्र को बदनीयत हाथों से बचाने की जरूरत है। दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे संविधान में शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं है और इसके लिए भी एक कानून बनाने का प्रस्ताव संसद में तीन साल से ही पडा हुआ है। इस साल मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की पहल पर संसद सत्र के पहले हुई मंत्रिमंडल की बैठक में तय किया गया था कि इस विधेयक को भी कानून बना दिया जाएगा और इसके लिए जो अपार खर्चा आएगा वह खुली अर्थव्यवस्था से पैसा कमाने वालों से ही वसूला जाएगा।
आपको याद होगा कि अनिवार्य शिक्षा के लिए पहले से दो प्रतिशत का एक टैक्स पिछले तीन साल से लागू है और इस कोष में अरबों रुपये जमा हो गए। केंद्रीय विद्यालय संगठन से लेकर नवोदय और बहुत सारे विश्वविद्यालय देश में मौजूद हैं और जरूरत पडने पर और खोले जा सकते हैं। जब तक रोजगार की गारंटी और शिक्षा की गारंटी एक साथ लागू नहीं होगी तब तक साफ है कि हमारे पास करने का इरादा तो होगा लेकिन अवसरों को भरने के लिए पात्र नहीं होंगे। भले ही इसे चुनावी कहा जाए लेकिन शिक्षा के अधिकार को मौलिक बनाना संविधान की रचना में हुई एक अक्षम्य भूल को सुधारने का काम हो सकता है और वह होना ही चाहिए। वरना आप कागज पर कानून बनाते रहिए और अदालतों में इसके विरोध को झेलते रहिए। रोजगार और शिक्षा दोनों बहस के नहीं प्रतिबध्दता के विषय हैं और इस पर जो बहस करता है उसे हैलिकॉप्टर में लाद कर अरब सागर में फेंक देना चाहिए।
शब्दार्थ
Saturday, March 29, 2008
घाटे पानी सब भरे औघट भरे न कोय।
घाटे पानी सब भरे औघट भरे न कोय।
औघट घाट कबीर का भरे सो निर्मल होय।।
हमने तो पढ़ी नहीं तुमने पढ़ी हो तो बताओ साधो। नहीं पढ़ी ना। हम जानते थे। हजार पत्रों की उस महापोथी को तुम जैसे रमते राम बांचें भी तो कैसे। न तुम्हें भाजपाइयों को बताना है कि तुम लालकृष्ण आडवाणी का कितना आदर करते हो न तुम्हें अगली हो सकने वाली सरकार में अपनी गोटी अभी से जमा कर रखनी है। तुम्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वालों को भी दिखाना नहीं है कि तुम लालकृष्ण आडवाणी पर नजर रखे हुए हो और जब भी वे संघ की खींची गई लकीर से इधर-उधर होंगे तो घंटी बजाकर सावधान कर दोगे। जानना-बताना भी नहीं है कि जिन घटनाओं को तुमने खुद देखा और जाना है उनको लालकृष्ण आडवाणी ने कैसे देखा और बताया है और उसमें सच क्या और झूठ कितना है। तुम्हें न अखबार में लिखना है न टीवी पर बताना है कि तुम अपनी धूनी छोड़कर लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा पढ़ो। तुमने ठीक ही किया साधो जो हल्ले में नहीं आए और ‘आसन मार डिंब धरी’ बैठे रहे।
जब अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री होने की हवा चलाई जा रही थी तो उनकी कविता को आगे-आगे धजा की तरह उड़ाया जाता था। कविता की पोथी छपी तो खुद प्रधानमंत्री नरसिंह राव उसका विमोचन करने आए। ऐसा समारोह मना कि जैसे कविता ही वह पालकी होगी जो अटल जी को सिंहासन पर जा बैठाएगी। फिर कविता तो नहीं प्रमोद महाजन की दलाली ने जरूर चंद्रबाबू नायडू को पटा लिया और अटल जी तेरह दिन की नामुराद सरकार की भभूत झाड़कर असल के प्रधानमंत्री हो गए। तब देखते-देखते उनकी कविता दिन की सबसे चटकीली ललाई और नशे में लपेट लेने वाली धुन हो गई। पॉप गायिका से लेकर संगीत सम्राट तक उनकी कविता गाने लगे। भारत में कोई कवि नहीं रहा जो अटल कवि के सामने टिक सके। फिर चुनाव हुए और अटल जी सिंहासन से पटिये पर आ गए। प्रमोद महाजन ने उन्हें सहस्र चंद्र दर्शन जरूर करवाए। लेकिन अब और कोई तो छोड़िए भाजपाई दरबारी लाल भी कभी अटल जी की कोई पंक्ति नहीं सुनाता।
ऐसा राजनेता के लिखने का होता है साधो। हमने तो लिखा भी नहीं। लिखना तो जानते ही नहीं। कहते हैं बस। तुम हमारे कहे को कहते फिरते हो तो लोग हमीं को आकर बताते हैं कि ऐसा हमने कहा है। हम कहते हैं कि ठीक है कहा होगा। लेकिन कोई बता रहा था साधो कि लालकृष्ण आडवाणी तो बोलते हुए भी सावधान रहते हैं कि उनका बोला लिखा जाएगा। जो बोलने में इतना सचेत रहता है साधो, वह लिखने में कितनी चतुराई बरतता होगा। उनकी आत्मकथा के हजार पन्ने पढ़ लोगे तो समझ आ जाएगा। तुम कहोगे कि आप तो कहते हो कि हमन को होशियारी क्या और हमें लालकृष्ण आडवाणी की चतुराई पकड़ने में लगाते हो। नहीं साधो, ऐसा करने को हम क्यों कर कहेंगे। हम तो तुम्हें भी इश्क मस्ताना ही मानते हैं। होशियारी की जासूसी तो पंडित और मौलाना पर छोड़ देनी चाहिए। अपनी तो फकीरी ही काम की है।
लेकिन लालकृष्ण आडवाणी को बहुत दुख है साधो कि उनने बुलाया था फिर भी सोनिया गांधी उनकी आत्मकथा के विमोचन पर नहीं आई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी बुलाया था पर उनसे भी ऐसे संबंध नहीं हैं कि वे आते। पूरी कांग्रेस पार्टी में से कोई भी नहीं आया। अटल की कविताओं के संग्रह का तो विमोचन ही कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने किया था और कांग्रेसी मंत्री सांसद सब आए थे। थी तो वह कविता की पोथी लेकिन अवसर तो राजनैतिक ही था। ऐसा लगता था कि अटल जी प्रधानमंत्री हो जाएं तो कांग्रेस वालों को कोई ऐतराज नहीं होगा। लेकिन लालकृष्ण आडवाणी से तो कांग्रेस ने वह शिष्टाचार भी नहीं बरता जो विपक्ष के नेता से किया जाना चाहिए। जैसा लोकसभा में आडवाणी करवाते हैं वैसा ही बहिष्कार उनकी आत्मकथा के विमोचन का कांग्रेस ने कर दिया।
अखबार वाले कहते हैं साधो! लालकृष्ण आडवाणी ने भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से अपनी आत्मकथा उतनी विमोचित नहीं करवाई जितने अपने संभावित प्रधानमंत्रित्व का शुभारंभ। कलाम को तो निश्चित ही कोई एतराज नहीं था। कांग्रेस को था। लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री होने की सीढ़ी पर चढ़ाने में सोनिया गांधी क्यों हथेली लगाएं। उनका अपना बेटा राहुल गांधी नहीं है क्या! फिर आडवाणी राजनीति बोते हैं तो सद्भावना कैसे काट लेंगे। उदारता खुंदक में कहां मिलती है साधो!
Sunday, March 16, 2008
जेल की दहलीज पर थलसेना अध्यक्ष
आलोक तोमर
भारतीय सेना अपने इतिहास के सबसे बड़े संकट में फंस गई है। सेना अध्यक्ष जनरल दीपक कपूर के खिलाफ आर्थिक अनिमियताओं के मामले में रक्षा मंत्रालय ने जांच बैठा दी है और रक्षामंत्री ए के एंटनी ने श्री कपूर को अनौपचारिक प्रस्ताव भेज दिया है कि जांच होने तक वे अगर चाहे तो अवकाश पर जा सकते हैं।इसका दूसरा अर्थ यह है कि सेना अध्यक्ष कुर्सी छोड़ दे । आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि सेना के तीनों अंगो के किसी भी एक मुखिया को अवकाश पर जाने के लिए कहा गया हो। उनके अवकाश पर रहने पर उनके उत्तराधिकारी कोई और जनरल बनेंगे और सेना में असली कमान सेना अध्यक्ष के ही हाथ में होती है। दीपक कपूर को जल्दी ही हटना पड़ सकता है और उनके खिलाफ सेना की जांच में अगर सीएजी के आरोपों की पुष्टि हुई तो उनका कोर्ट मार्शल भी हो सकता है और उनसे जनरल की पदवीं और सारे पदक छीने जा सकते हैं।सीएजी की ऑडिट रिर्पोट में आरोप है कि जनरल कपूर ने पांच और वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मिलकर घास और झाड़िया काटने के उपकरण खरीदने के नाम पर लाखों रूपए की हेराफेरा की ।यह तब की बात है जब वे जम्मू कश्मीर में सेना की उत्तरी कमान के मुखिया थे। इसके अलावा श्री कपूर पर एक ऐसे ब्रिगेडियर को संरक्षण देने का भी आरोप है जो कारगिल इलाके में डीजल और मिट्टी का तेल निजी व्यापारियों को तस्करी के जरिए बेचा करता था इसी ब्रिगेडियर ने चार्जशीट मिलने पर जनरल कपूर का नाम लिया था। जनरल कपूर पर यह भी आरोप है कि उन्होंने कपूरथला सैनिक स्कूल के प्रशासक रहने के दौरान उसकी इमारत के रखरखाव के लिए पैसा तो मंजूर करवा लिया लेकिन इमारत जर्जर हालत में है। पंजाब सरकार ने यह इमारत अब वापस मांगी है।चूंकि यह अभूतपूर्व मामला है इसलिए रक्षा मंत्रालय अभी तक यह तय नहीं कर पाया कि सेना अध्यक्ष का कोर्ट मार्शल कैसे किया जाए। नियमानुसार सेना के किसी भी अधिकारी पर मुकदमा उसके वरिष्ठ अधिकारी ही चला सकते हैं। इसका दूसरा विकल्प यह है कि मामला सिविल अदालत को सौंप दिया जाए और इसका सीधा मतलब यह है कि एफआईआर दर्ज होते ही जनरल कपूर को हिरासत में लिया जाएगा और फिर तब तक वह कैद में रहेंगे जब तक उन्हें जमानत नहीं मिल जाती। रक्षामंत्री एंटनी को इस मामले में संसदीय समिति से जांच करवाने का सुझाव दिया गया था लेकिन उन्होंने इससे साफ इनकार कर दिया।
इस साल नहीं होगी मानसरोवर यात्रा?
आलोक तोमर
नेपाल के इरादे भारत के साथ रिश्तों को लेकर बहुत नेक नजर नहीं आते।सरकार में शामिल माओवादियों के दबाव में नेपाल ने पहले चीन से रेल संपर्क जोड़ा और अब तिब्बती बगावत के नाम पर एवरेस्ट का नेपाल से जाने वाला रास्ता भी पर्वतारोहियों के लिए बंद कर दिया गया है। खबर है कि इस बार चीन कैलाश मानसरोवर यात्रा भी नहीं होने देगा।हिंदू तीर्थ कैलाश मानसरोवर चीन में आता है और इसका सबसे सहज रास्ता नेपाल होकर ही जाता है। भारतीय विदेश मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार नेपाल में स्थित भारतीय दूतावास को संकेत दे दिए गए हैं कि तीर्थ यात्री अगर भारतीय आधार शिविर से रवाना भी हो जाए तो उन्हें नेपाल में ही रोक लिया जाए। अब तक हिंदू राष्ट्र की मान्यता रखने वाले नेपाल ने इससे पहले यह कदम इससे पहले कभी नहीं उठाया। हर साल पंद्रह हजार से ज्यादा तीर्थ यात्री कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाते हैं और इसी साल भारत सरकार ने हज यात्रियों की तरह उन्हें अनुदान देने की घोषणा की थी।चीन ने तिब्बत पर कब्जे को लेकर भारत सरकार की तकनीकी सहमति वाजपेयी सरकार के दौरान ही ले ली थी। इसी आधार पर चीन ने अरूणांचल प्रदेश से अपना कब्जा छोड़ा था और नाथुला पास का रास्ता भारत-चीन व्यापार के लिए खोलने की अनुमति दी थी। इस फैसले से भारत में बसे लाखों तिब्बती शरणार्थी नाराज हैं और उन्होंने अपने धर्म गुरू दलाईलामा की बात मानने से भी इनकार कर दिया है। तिब्बत में चीनी दमन का दौर जारी है और यह लिखने तक सोलह लोग जान गवां चुके हैं।चीन ने घोषित कर दिया है कि उनका देश तिब्बत में हो रही अशांति को लोक संग्राम करार दिया है और चेतावनी दी है कि इसमें शामिल किसी भी व्यक्ति को देशद्रोही माना जाएगा और सबसे कड़ी सजा दी जाएगी। भारतीय विदेश मंत्रालय इस मंत्रालय अब तक कुछ भी कहने से बच रहा है लेकिन चिंता का हाल यह है कि इतवार को भी शास्त्री भवन में विदेश मंत्रालय की चीन युनिट का कार्यालय खुला रहा। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी कल संसद में इस संबंध में कोई बयान दे सकते हैं। उन्हें इस बात का भी जबाव देना होगा कि अमेरिका भारत और चीन के इस मामले में दखल क्यों दे रहा है?
Thursday, March 13, 2008
दलाईलामा के खिलाफ अब हुई बगावत
आखिरकार तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को उनके शिष्य भी नहीं झेल पाए। भारत में रह कर निर्वासित सरकार चला रहे और भारत के ही खर्चे पर पल रहे दलाई लामा इन दिनों चीन को ले कर अपने गोल-मोल रवैये से भारत सरकार ही नहीं, अपने शिष्यों के लिए भी परेशानी का कारण बने हुए हैं।
आखिर दलाई लामा तिब्बत से भारत भाग कर आए ही इसीलिए थे कि वे अपने आप को धर्म गुरु के नाते तिब्बत का शासक मानते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो वे तिब्बत की बराबरी वेटिकन से कर रहे थे, जहां पोप को राष्ट्र प्रमुख का दर्जा दिया जाता है। लगभग छयालीस साल से भारत को अनाथालय बना कर रह रहे दलाई लामा को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है। यह भी कहा जाता है कि चीन को सबक सिखाने क लिए अमेरिकी सीआईए के लोगों ने तिब्बत में बगावत को हवा दी थी और सीआईए ने ही दलाई लामा के भारत पहुंचने में मदद की थी।
जिन लोगों की दलाई लामा में अटूट आस्था है, वे सपना देख रहे थे कि अपनी परा भौतिक शक्तियों और खगोलीय राजनयिक दांव-पेंचों के जरिए दलाई लामा आखिरकार तिब्बत को आजाद देश बना लेंगे और वहां फिर बौध्द धर्म का राज चलेगा। शुरू में दलाई लामा के तेवर थे भी इसी तरह के, लेकिन बहुत दिनों तक अकारण अभिवादन प्राप्त करते हुए और फोकट का अन्न खाते हुए शायद हिज होलीनैस की मति भ्रष्ट हो गई या उम्र का असर हुआ इसीलिए अब उनका झुकाव बार-बार चीन की ओर दिखाई देता है। बीजिंग ओलंपिक के मामले में तो खास तौर पर तिब्बत की आजादी को मुद्दा बनाने की पहल उनके प्रवक्ताओं ने की थी और जब यह पहल चीन से धिक्कार के साथ लौट आई, तो उन्होंने भी अपना रुख बदल लिया और कहा कि तिब्बत को सिर्फ सीमित स्वायत्ता दे दी जाए, तो भी काम चल जाएगा। दूसरे शब्दों में वे तिब्बत में गोरखा लैंड की तर्ज पर एक प्रशासनिक ढांचा चाहते थे और हिज होलीनैस होने के बावजूद उनकी तमन्ना भूतपूर्व सिपाही सुभाष घिशिंग से ज्यादा नहीं थी। भारत सरकार तो अपनी स्थापित राजनयिक नीति की वजह से इसे झेल गई, लेकिन अपने तिब्बत का सपना देखते हुए उम्र बिता देने वाले दलाई लामा के भक्तों को यह हजम नहीं हुआ।
इसीलिए धर्मशाला और उसके पड़ोस में जो हुआ, वह हुआ। यह बात अलग है कि बीजिंग ओलंपिक के मुहाने पर तिब्बत समस्या की ओर अंतररराष्ट्रीय समुदाय का अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये खेल आयोजन के विरोध में धर्मशाला से ल्हासा मार्च की तैयारियां धरी की धरी रह गईं। रही सही कसर भारतीय पुलिस ने पूरी कर दी। विरोध मार्च के लिये निर्वासन में रह रहे तिब्बत युवा कांग्रेस व दूसरे चार संगठनों के करीब एक हजार लोग इसके लिये तैयार थे। इसकी तैयारियां निछले तीन माह से चल रहीं थीं। लेकिन तिब्बतियों के अध्यात्मिक नेता महामहिम दलाई लामा ने तिब्बत की आजादी की 49 वीं वर्षगांठ पर दिये अपने अभिाभाषण में सबका जोश ठंडा कर दिया। तिब्बति समाज में दलाई लामा की बात का सम्मान किया जाता है। लिहाजा सबकुछ बदल गया। बावजूद इसके तिब्बत युवा कांग्रेस के अध्यक्ष सेवांग रिंगजिन के नेतृत्व में तिब्बतियों का एक जत्था धर्मशाला से निकल चुका है।
लेकिन पुलिस ने साफ कर दिया है कि यह लोग कांगड़ा जिला की सीमा को पार नहीं कर पायेंगे। कांगड़ा के पुलिस अधीक्षक अतुल फुलझले ने बताया कि केन्द्र सरकार से उन्हें एक आदेश मिला है। लिहाजा मार्च को रोक लिया जायेगा। यह भारत व निवौसित तिब्बतियों के बीच ये अनुबन्ध का खुला उल्लंघन है। जिसमें भारतीय भूमि पर चीन का विरोध नहीं करने की बात है। यही वजह है कि मार्च को रोकन के आदेश प्रदेश सरकार ने भी जारी कर दिये हैं। उधर दलाई लामा ने भी चीन के प्रति अपने नरम रूख का इजहार करते ये कहा है कि तिब्बतियों को खेल आयोजन में कोई भी बाधा उत्पन नहीं करनी चाहिये। उन्होंने कहा है कि चीनी समाज पूरी उत्सुकता के साथ इंतजार कर रहा है। उन्होंने स्पष्ट किया कि वह शुरू से ही चीन में इसके आयोजन के हक में रहा॥ उन्होंने तिब्बतियों से इस खेल आयोजन में कोई बाधा उत्पन्न न की जाये। इसी बात से हम चीन समुदाय की सोच भी बदल सकते हैं। लेकिन दलाई लामा की यही बात अब तिब्बतियों के एक बड़े वर्ग को चुभने लगी है। लेकिन दर्लाईलामा इसी बात पर पिछले दिनों से चीन सरकार की अलोचनाओं के शिकार हो रहे थे , व चीन बार बार कह रहा था कि दलाई लामा आलोकिं में कोई बाधा उत्पन्न न करे। दरअसल दलाई लामा भी जानते हैं कि बदलते समय में विरोध एक सीमा में रह कर किया जा सकता है।
खुद दलाई लामा भी कह रहे हैं कि मैं जब भी तिब्बतियों की भलाई की बात अंतरराष्ट्रीय समुदाय से करता। , उन्हें बुरा लगाता है। लेकिन जब तक दोनों किसी नतीजे पर न पंचे तब तक यह खत्म नहीं होगा। मेरे कंधों पर जो जिम्मेदारी है उसे बखूबी निभाना है। सब जानते है कि मैं भी अपनी रिटायरमेंट की ओैर बढ़ रहा हूं। समय बदल रहा है। दलाई लामा ने कहा कि चीन प्रगति कर रहा है , ताकतवर राष्ट्र बन चुका है। इसका स्वागत किया जाना चाहिये। लेकिन उन्हें भी बदलना चाहिये। दलाई लामा की इसी नीति पर नई बहस छिड़ गई है।
दलाई लामा के रिटायर होने के साथ ही क्या तिब्बत का मुद्दा भी रिटायर हो जाएगा? यह सवाल दलाई लामा से तो क्या पूछा जाएगा, लेकिन भारत सरकार से पूछा जाना चाहिए कि जब धर्म गुरु खुद संधि और समर्पण की मुद्रा में हैं, तो हमें चीन के फटे में टांग अड़ाने की जरूरत क्यों महसूस हो रही है। अच्छे-खासे रिश्ते बेहतर हो रहे हैं और सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है, लेकिन हमें दलाई लामा की भक्ति के चक्कर में अपने देश का कबाड़ा करने की क्या जरूरत है और कब तक हम एक बूढ़े सफेद हाथी को ढोएंगे?
(धर्मशाला से बिजेंद्र शर्मा के साथ)
मनमोहन सरकार की मौत की मुनादी
शंभूनाथ सिंह
अमेरिका के साथ परमाणु करार का मुद््दा मनमोहन सरकार के गले की हड््डी बन गया है। इसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की राजनीतिक अदूरदर्शिता कहा जाए या उनकी सरकार की दुर्बलता माना जाए कि बिना सोचे-समझे या अपनी स्थिति का आकलन किए बगैर वह अंतरराष्ट्रीय मंच पर परमाणु करार करने की घोषणा कर आए और मसौदे पर अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ हस्ताक्षर भी कर आए। अब उसे अमली जामा पहनाने का मतलब अपनी सरकार की मौत की मुनादी करने जैसा हो गया है। करार से पीछे हटकर सरकार की मृत्यु को टाला जा सकता है, लेकिन ऐसा करके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनीतिक-कूटनीतिक साख की मौत को चकमा नहीं दिया जा सकता। देश की राजनीति में मनमोहन सिंह की जो भी हैसियत हो, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रधानमंत्री होने के नाते वह दुनिया के एक अरब लोगों का प्रतिनिधित्व करने के कारण बहुत ताकतवर शख्सीयत माने जाते हैं।
जिस अमेरिका में वह कभी नौकरी करते थे, वहां विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री के रूप में आतिथ्य ग्रहण करते समय उनका उत्साह और आत्मविश्वास चरम पर चला गया होगा और कुछ समय के लिए भूल गए होंगे कि वह जिस सरकार के मुखिया हैं, उसके शक्ति के स्रोत सरकार के भीतर नहीं, बाहर हैं। उन्होंने सोचा होगा कि अमेरिका के साथ परमाणु करार करके इतिहास बनाया जाए और देश पर तीन दशकों से लगे हुए अंतरराष्ट्रीय परमाणु प्रतिबंध को खत्म कर दिया जाए। 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था, तभी से परमाणु टेक्नोलॉजी और उसके ईंधन आपूर्ति वगैरह के मामले में भारत पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लागू हैं। क्योंकि भारत सीटीबीटी और एनपीटी जैसे अंतरराष्ट्रीय परमाणु समझौतों का हस्ताक्षरकर्ता देश नहीं है। इंदिरा गांधी ने अमेरिका और तथाकथित अभिजात्य अंतरराष्ट्रीय परमाणु क्लब के ताकतवर सदस्य देशों की परवाह किए बिना पोखरण में परीक्षण किया था। पोखरण का दूसरा परीक्षण अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में 1998 में हुआ।
उन्होंने भी बिना किसी की परवाह किए यह काम किया। मनमोहन सिंह को लगा होगा कि उनकी पार्टी की सर्वमान्य नेता इंदिरा गांधी के समय से जो परमाणु प्रतिबंध लगा हुआ है, यदि वह उनके हाथों से खत्म हो, तो यह श्रीमती गांधी के प्रति उनकी राजनीतिक श्रध्दांजलि भी होगी। लेकिन वह न तो इंदिरा गांधी और वाजपेयी जितने भाग्यशाली हैं और न ही राजनीतिक रूप से उतने ताकतवर। श्रीमती गांधी के अच्छे-बुरे फैसलों पर उस समय कांग्रेस पार्टी ही नहीं, पूरे देश में किसी की उंगली उठाने की हिम्मत नहीं थी। वाजपेयी भी गठबंधन की सरकार जरूर चला रहे थे, पर सर्वमान्य और ताकतवर नेता के रूप में जाने जाते थे। वाजपेयी की निर्भीकता भी सर्वविदित है। पोखरण्ा के परमाणु परीक्षण की तैयारियों की भनक तब रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस तक को नहीं लगी थी। इसीलिए पिछले दिनों संसद में संकटग्रस्त होने पर जब मनमोहन सिंह वाजपेयी को भारतीय राजनीति का भीष्म पितामह कहकर मदद के लिए पुकार रहे थे, तो भाजपा के नेता बैठे मुसकरा रहे थे।
भारत चूंकि अंतरराष्ट्रीय परमाणु अप्रसार संधियों का हस्ताक्षरकर्ता देश नहीं है और परमाणु शक्ति संपन्न भी है, इसलिए उसके साथ समझौता करने के लिए अमेरिका को अपने घरेलू कानूनों में ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय परमाण्ाु कानूनों में भी संशोधन करवाने के लिए ज्यादा मशक्कत करनी पड़ी है। फिर भी यदि यह करार नहीं हो पाया, तो यह बुश प्रशासन की विदेश नीति के इतिहास में विफलता के एक अध्याय के रूप में जुड़ जाएगा। अमेरिका भी इन दिनों चुनावी प्रक्रिया के दौर से गुजर रहा है। वहां के चुनावों में विदेश नीति एक बड़ा मुद््दा होती है। आठ साल से अमेरिकी सत्ता पर काबिज जॉर्ज बुश की विदेश नीति वहां वैसे भी विवाद और आलोचनाओं के घेरे में है। भारत के साथ परमाणु करार एक सकारात्मक तत्व हो सकता है, जिसकी संभावना लगातार क्षीण होती जा रही है। यही वजह है कि बुश प्रशासन का धैर्य टूट रहा है। लेकिन अमेरिकी जल्दबाजी से भारत में ऐसा लग रहा है कि परमाणु करार से अमेरिका का कोई बड़ा फायदा होने वाला है। दूसरा पक्ष यह भी उभर रहा है कि अमेरिकी दबाव में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारतीय हितों के साथ जरूर कोई न कोई समझौता कर रहे हैं, वरना इसके लिए सरकार को दांव पर लगाने की बात न करते। इस तरह परमाणु करार के दूसरे पक्ष गौण होते जा रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में भारतीय हितों को लेकर चल रही सौदेबाजी पूरी हो गई है और परमाणु ऊर्जा विभाग व विदेश मंत्रालय का प्रतिनिधिमंडल वहां से सुरक्षा उपायों के मसौदे को लेकर वापस आ चुका है। यह मसौदा भारत के अनुकूल बताया जा रहा है। सरकार को लगता था कि संयुक्त राष्ट्र की एक वैधानिक संस्था से भारतीय परमाणु हितों की संस्तुति हो जाने से देश में प्रसन्नता महसूस की जाएगी। लेकिन माकपा महासचिव कॉमरेड प्रकाश करात ने करार पर सरकार गिराने की धमकी दे दी। घबराई सरकार के विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अपने कदम पीछे खींचते हुए करार के लिए सरकार को कुरबान करने से मना कर दिया। मुखर्जी ने वाम दलों को खुश करने के लिए यह साफ कर दिया कि हम किसी समय सीमा में बंधकर काम नहीं कर सकते।
जबकि वह बखूबी जानते हैं कि यदि अगले तीन-चार महीनों में करार का अंतिम मसौदा अमेरिकी कांग्रेस के विचारार्थ नहीं पहुंचा, तो यह खटाई में पड़ जाएगा। अभी 45 देशों के परमाणु ईंधन आपूर्तिकर्ता देशों के संगठन से इस मसौदे को गुजरना बाकी है। वामपंथी यह जानते हैं कि यदि मसौदे को कुछ समय के लिए रोक लिया जाए, तो यह अपने आप ही बेमतलब हो जाएगा। इसलिए उन्होंने सरकार को बताया है कि मसौदे का ठीक से अध्ययन करने के लिए उन्हें कम से कम दो-तीन महीने का समय लगेगा। सवाल यह उठता है कि वाम दल अमेरिका के नाम पर अपने देश के हितों को स्थगित करने को क्यों तत्पर हैं?
इसकी वजह वाम राजनीति की अपने हितों की रक्षा करना है। वामपंथी जानते हैं कि अमेरिका से भारत का कोई समझौता हो जाता है, तो आसमान नहीं टूट पड़ेगा। लेकिन वे यह भी जानते हैं कि शीतयुध्द का दौर खत्म होने के बाद अमेरिका को यदि कोई अपना दुश्मन नंबर एक मानता है, तो वह है अंतरराष्ट्रीय मुसलिम समुदाय।
इसलिए यदि विकट अमेरिकी विरोध के जरिये देश के बीस करोड़ मुसलिम मतदाताओं को अपना
बंधक बनाया जा सकता है, तो यह घाटे का सौदा नहीं है। उन्होंने करार पर राजनीति करके मुसलमानों की नजरों में कांग्रेस को भी गिराने का काम किया है। एक कॉमरेड की व्यंग्यात्मक टिप्पणी थी कि भारतीय मुसलमान मानें या न मानें, पर आज की तारीख में अमेरिका के दुनिया में दो ही विश्वसनीय शत्रु बचे हैं। एक, अल कायदा और दूसरा, भारत की वामपंथी पार्टियां।
(शब्दार्थ)
कालाहांडी से डर गए 'युवराज'?
असगर वजाहत
राहुल गांधी शासक दलों के एक घटक के महामंत्री हैं। इन्हें मीडिया प्रेमवश युवराज कहकर संबोधित करता है। वह सोनिया गांधी के सुपुत्र हैं। इसलिए यह बात समझ में नहीं आती कि उन्हें कालाहांडी के आदिवासियों की समस्याओं को समझने के लिए वहां जाने की जरूरत क्यों आन पड़ी।
क्या वहां की खबरें उन तक नहीं पहुंचतीं? या उन ख़बरों पर राहुल गांधी को विश्वास नहीं है? वह अपनी पार्टी के किसी विश्वसनीय आदमी को कालाहांडी भेजकर वहां के लोगों की समस्याओं की जानकारी क्या नहीं ले सकते थे? या उनके पास ऐसा विश्वसनीय कोई आदमी नहीं है? क्या यहां के मीडिया पर उन्हें विश्वास नहीं है? क्या वह सरकारी-अर्ध्दसरकारी संस्थाओं के आंकड़ों पर विश्वास नहीं करते? क्या कालाहांडी कोई ऐसी दुर्गम जगह है, जहां के बारे में अब तक देश को कुछ पता नहीं? फिर वह कालाहांडी क्यों गए? क्या सिर्फ इसलिए कि उनके पिता जी और दादी जी भी वहां गए थे?
अगर कालाहांडी जाने की यही वजह है, तो उनका वहां न जाना ही उचित होता, क्योंकि उनके पिताजी ने, और उससे पहले उनकी दादी जी ने कालाहांडी के गरीब आदिवासी लोगों से बहुत से वायदे किए थे। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि कालाहांडी के लोग राहुल गांधी से उन वायदों की चर्चा करने लगे।
यह भी पता चला है कि उन्होंने कालाहांडी में किसी आदिवासी घर में खाना खाया। इससे पहले वह बुंदेलखंड में भी एक दलित परिवार के यहां खाना खा चुके हैं। दलितों और आदिवासियों के घर खाना खाकर वह आखिर क्या साबित करना चाहते हैं? क्या वह दलितों या आदिवासियों के बारे में जानना चाहते हैं? क्या वह खान-पान की इनकी आदत पर कोई किताब लिख रहे हैं? सवाल यह है कि आदिवासी के घर भोजन करके वह उनकी कौन-सी समस्या का समाधान कर देंगे?
आज देश के दुर्गम से दुर्गम ग्रामीण क्षेत्र के बारे में सभी जानकारियां उपलब्ध हैं। अगर ज्यादा जानकारी चाहिए, तो पी. साईनाथ जैसे दिग्गज पत्रकार से बात की जा सकती है, जिन्होंने अपना जीवन ही वंचितों की बेहतरी के लिए समर्पित कर दिया। लिहाजा राहुल गांधी को दुर्गम इलाकों में जाकर अपना समय बरबाद करने की कोई जरूरत नहीं थी। बेहतर होता कि वह अपने बहुमूल्य समय का उपयोग देश की गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, जड़ता और धर्मांधता समाप्त करने में लगाते। इससे इस देश का कुछ कल्याण होता। लेकिन इसके बजाय उन्हें रोड शो करने की सलाह दी जाती है और वह वैसा ही करते हैं। जबकि ऐसे रोड शो का कोई फायदा नहीं। चुनावों में इसका लाभ उनकी पार्टी को नहीं मिला।
उनके ऐसे दौरों से उलटे परेशानियां ही ज्यादा होती हैं। मसलन, अगर उनकी उड़ीसा यात्रा को देखें, तो कालाहांडी और उस इलाके के उनके दौरे ने स्थानीय प्रशासन के लिए परेशानियां ही खड़ी कर दीं। प्रशासन जनता को छोड़ कर उनकी सुरक्षा और सुविधा का बंदोबस्त करने में जुटा रहा। न जाने ऐसे मामले में हमारे नेताओं को कभी कोई अपराध बोध क्यों नहीं होता। वे यह क्यों महसूस नहीं कर पाते कि उनकी सुविधा और सुरक्षा के कारण बहुत से लोगों का समय बरबाद होता है, वे अपनी जिम्मेदारी से विमुख होते हैं।
राहुल गांधी को जानना चाहिए कि इस देश की समस्याएं जग जाहिर हैं। यह सब कुछ जानने के लिए दलित, आदिवासी परिवारों के साथ खाना खाने या चुनावी रोड शो करने की जरूरत नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस के राजनीतिक नेतृत्व में उन समस्याओं से जूझने की इच्छा है? पूरा देश जानता है कि हमारे समाज में अमीरों और गरीबों के बीच बहुत बड़ा अंतर आ गया है। आर्थिक मजबूती की खुशफहमी में हाशिये केलोगों के दुखों की अनदेखी हो रही है। यहां लोकतंत्र की परंपरा कितनी भी मजबूत क्यों न हो, सामाजिक न्याय का रिकॉर्ड उतना अच्छा नहीं है। यह परिदृश्य भयावह और अमानवीय है। हमारी नीतियां धनवानों की ओर झुकी हुई हैं।
यही कारण है कि देश में जिस तेजी से खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, उसी तीव्रता से भुखमरी, अकाल, शोषण, आत्महत्या, बेरोजगारी भी बढ़ रही है। क्या राहुल गांधी और उनकी पार्टी के पास इसका कोई इलाज है? जाहिर है, इन समस्याओं का समाधान सिर्फ रोड शो से या केंद्र में सरकार बन जाने से नहीं होगा। कांग्रेस के युवराज को समझना चाहिए कि गरीब के घर खाना खा लेने, उन्हें माला समर्पित कर देने, बच्चों को गोद में उठा लेने, सिर पर टोकरा उठा लेने जैसे नुसखे अब पुराने पड़ गए हैं। उन्हें समझना चाहिए कि देश की मुख्य समस्याओं से आंखें चुराने के नतीजे बहुत भयानक निकलते हैं। सांप्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद के दानव आज बहुत विकराल हो गए हैं। कहीं ये पूरे देश को निगल न लें!
(शब्दार्थ)
Wednesday, March 12, 2008
समाजवादी जॉर्ज पर इजरायली मिसाइल
समाजवादी जॉर्ज पर इजरायली मिसाइल
आलोक तोमर
ईमानदारी की प्रतिमा और समाजवाद के प्रतीक कहे जाने वाले जॉर्ज फर्नांडीज पर अलग-अलग तरीकों और अलग-अलग कोनों से वार होते ही रहे हैं, लेकिन इस बार हमला मिसाइल का है। मिसाइल का यह हमला अरब सागर के किनारे से निकल कर गंगा के किनारे बिहार में जा कर राजनीति करने वाले जॉर्ज फर्नांडीज का बिहार में अस्तित्व साफ कर देने वाला है। इसीलिए नहीं कि वास्तव में उन्होंने रिश्वत ली थी, जैसा कि आरोप है, बल्कि इसीलिए कि यह आरोप उन पर लगा, उन्होंने नैतिकता का अभिनय करते हुए फटाक से मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया और कुछ दिन बाहर रहने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की कृपा से वापस देश के रक्षा मंत्री बन गए।
जॉर्ज फर्नांडीज और उनकी सहेली जया जेटली के अलावा इस कांड में और भी अभियुक्त हैं और इनमें से सबसे चौंका देने और चमका देने वाले नाम नौसेना के अध्यक्ष रहे एडमिरल सुशील कुमार नंदा, उनके बेटे सुरेश नंदा और उनके भी बेटे संजीव नंदा के हैं। संजीव नंदा की किस्मत तो कुछ ज्यादा ही खराब है। वे अपने जन्मदिन से ठीक पहले हुई एक पार्टी के बाद देर रात हथियारों की दलाली से हुई काली कमाई से खरीदी गई बीएमडब्लू कार से आठ लोगों को कुचल कर मार डालने के मामले में अदालत का सामना कर ही रहे थे और 75 लाख की जमानत पर बाहर थे कि आयकर अधिकारियों को रिश्वत देने के आरोप में फिर अंदर पहुंच गए।
जॉर्ज फर्नांडीज चूंकि बडे अादमी हैं इसीलिए अभी तक उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई और उन तक हथकड़ियां पहुंचना तो दूर, यह लिखने तक उनसे किसी किस्म की कोई सरकारी पूछताछ भी नहीं की गई। सीबीआई इस दलाली की जांच कर रही है और उसकी शब्दावली में प्राथमिक रपट तैयार हो चुकी है और एफआईआर दाखिल होना बाकी था। 9 अगस्त, 2006 को एफआईआर ही दाखिल कर दी गई। मजदूरों और किसानों के नेता और समाजवाद के स्वयंभू प्रवक्ता और देश के भूतपूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज देश की नौसेना के भूतपूर्व अध्यक्ष सुशील कुमार नंदा के साथ भ्रष्टाचार और षड़यंत्रपूर्वक देश का पैसा हजम करने के अभियुक्त हैं।
जॉर्ज बूढ़े हो चुके हैं और हो सकता है कि अगला लोकसभा चुनाव वे इसी बहाने न लड़ने का फैसला करें कि उन पर इल्जाम है। हालांकि राजनीति में इस बात की संभावना बहुत कम होती है। आखिर शिबू सोरेन से ले कर शहाबुद्दीन और पप्पू यादव तक चुनाव लड़ते ही रहे हैं और जीतते भी रहे हैं। लेकिन जॉर्ज फर्नांडीज ने राजनीति में और खास तौर पर अपने जनता दल यूनाइटेड में नेतृत्व का नैतिक अधिकार सिरे से खो दिया है। उसे दोबारा अर्जित करना असंभव नहीं तो, दुर्लभ जरूर है।
इस घपले की जांच के लिए जनवरी, 2003 में न्यायमूर्ति एस एन फूकन के नेतृत्व में एक आयोग बैठा था और उसी की रपट पर सीबीआई अमल कर रही है। इसके पहले इस आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वेंकटस्वामी बनाए गए थे, मगर अज्ञात कारणों से उन्हें हटा दिया गया। जॉर्ज फर्नांडीज जाहिर है कि दो न्यायमूर्तियों और देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी के घेरे में हैं और यह घेरा इसीलिए और जटिल हो जाता है क्योंकि जब बराक मिसाइलें खरीदी जा रही थीं, तब सेना के शोध और विकास संगठन डी आर डी ओ के मुखिया एपीजे अब्दुल कलाम थे। उन्होंने इस खरीद का विरोध किया था। विचित्र बात यह है कि जिस व्यक्ति को देश के सर्वोच्च पद पर बिठाने में भाजपा दूसरी बार भी विचार नहीं किया, उसी की राय को सीबीआई के दस्तावेजों में अब तक शामिल नहीं किया गया है। वैसे यह पूरा मामला ज्यादा शर्मनाक इसीलिए भी है क्योंकि देश का रक्षा मंत्री, देश का नौसेना अध्यक्ष और देश के एक भूतपूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह का नाम भी इसमें आता रहा है। नटवर सिंह कांग्रेस में जरूर थे, लेकिन जॉर्ज फर्नांडीज का कहना है कि बराक मिसाइल कंपनी के कारोबारी दूतों से उन्हें नटवर सिंह ने ही मिलवाया था। उनका यह भी कहना है कि मैं तो सबसे मिलने के लिए तैयार रहता हूं और मेरे घर के दरवाजे कभी बंद नहीं होते। इस भोलेपन पर फिदा होने का मन करता है। गनीमत है कि जॉर्ज फर्नांडीज महिला नहीं हुए, वरना सनातन गर्भवती रहते!
सीबीआई की एफआईआर के अनुसार अक्टूबर, 1998 में सुरेश नंदा एक एजेंट की हैसियत से जया जेटली और समता पार्टी के कोषाध्यक्ष आर के जैन से जॉर्ज फर्नांडीज के बंगले पर ही मिले थे, जिसके दरवाजे कभी बंद नहीं होते। एफआईआर के अनुसार सुरेश नदां ने जैन को एक करोड़ रुपए दिए थे, जो उसने मंजूर भी किया है। लेकिन एफआईआर के अनुसार ये पैसे जॉर्ज फर्नांडीज को बराक के हित में खुश करने के लिए उनकी सहेली जया जेटली को सौंप दिए गए थे। यहां तक तो एफआईआर में वही लिखा है, जो तहलका के खुलासे में आ चुका था। एफआईआर में नई बात यह है कि एक वरिष्ठ रक्षा अधिकारी द्वारा 2 नवंबर, 1998 को जॉर्ज फर्नांडीज को लिखा गया एक पत्र मौजूद है, जिसमें बराक मिसाइलों को नौसेना के बेड़े में शामिल नहीं करने की अपील की गई थी।
26 नवंबर, 1998 को नौसेना मुख्यालय में रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार के तौर पर भी काम कर रहे श्री कलाम को पत्र लिख कर पूछा कि बराक मिसाइलों के आयात में इतनी देरी क्यों हो रही है? इसका जवाब श्री कलाम ने 20 जनवरी, 1999 को दिया और उसमें लिखा था कि 3 अक्टूबर, 1997 को ही सुरक्षा मामलों संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक में हुए फैसले के हिसाब से बेहतर मिसाइल तंत्र प्राप्त करने का फैसला किया जाएगा। इसमें यह भी कहा गया था कि त्रिशूल मिसाइलें भारत बना रहा है और उससे बहुत उम्मीदें हैं। हालांकि अब त्रिशूल परियोजना रद्द कर दी गई है। कलाम के जवाब के बावजूद जॉर्ज फर्नांडीज के दोस्त दलालों के दबाव में नौसेना मुख्यालय ने फिर लिखा कि फैसला होता रहेगा, लेकिन मोल भाव समिति बना कर उसकी बैठकें शुरू कर देनी चाहिए।
बेटा दलाल था और पिता जी नौसेना के अध्यक्ष थे। एडमिरल सुशील नंदा ने 15 जनवरी, 1999 को प्रस्ताव रखा कि कम-से-कम दो मिसाइलों का आयात कर ही लिया जाए। 23 जून, 1999 को श्री कलाम ने इस प्रस्ताव को बेहुदा बताया। कलाम का तर्क था कि अब तक आयात किए गए रक्षा उपकरणों में से पचास प्र्रतिशत बेकार साबित हुए हैं और अगर बराक इजरायल से आयात की ही जाती है, तो उसके पुर्जों के लिए भी भारत को इजरायल के सामने बंधक बनना पड़ेगा। मतलब था-साफ इनकार। एडमिरल नंदा कहां मानने वाले थे? उन्होंने 25 जून, 1999 को ही यानी सिर्फ अड़तालीस घंटे में कलाम से मुलाकात की और नया प्रस्ताव दिया कि नौसेना मुख्यालय ने 1996 में ही बराक मिसाइलों को आयात करने की अनुमति दे दी थी। उस समय रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव थे और उन्होंने इस संबंध में भेजे गए पत्र का जवाब भी नहीं दिया था। कलाम से मिल कर नंदा जॉर्ज फर्नांडीज के पास पहुंचे और 28 जून, 1999 को उन्होंने कलाम की राय टाल कर बराक के आयात की अनुमति दे दी। अगर आप गौर करें तो कुल पांच दिनों में चार सौ करोड़ का यह घपला संभव हो गया।
तत्कालीन रक्षा सचिव टी आर प्रसाद ने इसके बावजूद 30 अगस्त, 1999 को माननीय रक्षा मंत्री को पत्र लिखा और याद दिलाया कि मंत्रिमंडलीय समिति ने मिसाइलों के आयात को स्थगित करके इसका फैसला अगली सरकार के लिए छोड़ दिया है और समिति की जानकारी के बगैर कोई निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए। स्वाभाविक तौर पर जॉर्ज फर्नांडीज भी इस समिति के सदस्य थे और तकनीकी रूप से उन्हें भी इसकी जानकारी थी। फिर 2 मार्च, 2000 को मंत्रिमंडलीय समिति ने यह सौदा मंजूर कर दिया और मंजूरी के इस फैसले ने तीन लाइन में श्री कलाम की आपत्तियों को खारिज भी कर दिया। फटाफट मोल भाव हुआ और पहली सात बराक मिसाइलों को खरीदने का फैसला 23 अक्टूबर, 2000 को हो गया। यह सौदा आठ अरब रुपए का था। आर के जैन का बयान कहता है कि इसमें से तीन प्रतिशत जॉर्ज फर्नांडीज और जया जेटली के पास गया और आधा प्रतिशत उसे मिला। अदायगी नौसेना के अध्यक्ष के बेटे सुरेश नंदा के हाथ से हुई थी।
इस सौदे में लेन-देन भी कम संदिग्ध नहीं है। मोटरोन-टरबियोन नाम की एक कंपनी ने सुरेश नंदा की कंपनी डायनाट्रोल सर्विसेज के खते में मोटी रकम जमा की। यह रकम निकल कर मैग्नन इंटरनेशनल ट्रेडिंग में चली गई और वहां से निकली तो यूरेका सेल्स कॉरपोरेशन के खाते में पहुंच गई। यूरेका सेल्स कॉरपोरेशन के मालिक कोई सुधीर चौधरी हैं, जो नंदा के रिश्तेदार भी हैं और व्यापारिक सहयोगी भी। कलाम के हटने के बाद भी डीआरडीओ बराक आयात का विरोध करता ही रहा। त्रिशूल परियोजना के भूतपूर्व परियोजना प्रबंधक खुद बराक का प्रदर्शन देखने इजरायल गए थे और उन्होंने भी विरोध में एक पत्र लिखा। लेकिन पैसा आ चुका था, सौदा हो चुका था और खुद रक्षा मंत्री की मेहरबानी थी इसीलिए सौदे को कोई रोक नहीं सका। जॉर्ज फर्नांडीज जब सीबीआई के सामने जवाब देने बैठेंगे, तो आज से सुन लीजिए कि भूल जाने का नाटक करेंगे क्योंकि यह नाटक वे एक बार मेरे साथ भी कर चुके हैं। दाऊद इब्राहीम से मेरे दुबई में हुए इंटरव्यू का टेप वे मेरे ऑफिस आ कर ले कर गए थे और जब वापस मांगा, तो उन्होंने पूछा-कौन सा टेप? पता नहीं उस टेप का सौदा कितने में हुआ था।
Tuesday, March 11, 2008
हॉकी के बंटाधार के लिए कौन जिम्मेदार?
हॉकी के बंटाधार के लिए कौन जिम्मेदार?
संजय शर्मा
अगर हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद 100 साल जी गए होते, तो हॉकी को रसातल में जाते देखकर न जाने उन पर क्या बीतती। हालांकि वर्ष 1979 में जब उनका निधन हुआ, तब वह मांट्रियल ओलंपिक में भारत का बुरा प्रदर्शन देख चुके थे। लेकिन 80 साल में यह पहली बार है, जब भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाई। चिली में फाइनल में ब्रिटेन ने उसे 2-0 से पीट दिया। यानी वर्ष 1928 के बाद पहली बार होगा, जब आठ बार स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम ओलंपिक में नहीं होगी। जाहिर है, इस हार पर पूरे भारत में हायतौबा मची हुई है।
भारत की खोज में निकले राहुल गांधी ने चयन में पक्षपात को जिम्मेदार बताया है, तो कुंभकर्णी नींद में पड़े खेल मंत्रालय के मौजूदा मंत्री मणिशंकर अय्यर ने लंबी रणनीति बनाने की बात कही है। कुछ सांसदों ने अफसोस जताया है, तो कुछ पूर्व ओलंपियनों ने ठीकरा अध्यक्ष केपीएस गिल पर फोड़ा है। एक समय अध्यक्ष के चुनाव में गिल के खिलाफ खम ठाेंकने वाले उपाध्यक्ष नरेंद्र बतरा की अंतरात्मा अलसुबह जाग गई और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। पूर्व ओलंपियन जलालुद््दीन साहब ने बताया कि हॉकी वालों में एक जुमला खूब चलता है कि गिल साहब जो जिम्मेदारी लेते हैं, उसे खत्म करके ही दम लेते हैं। पहले पंजाब से आतंक को खत्म किया, अब हॉकी को खत्म करेंगे। गिल साहब का कहना है कि इस्तीफा नहीं देंगे
हॉकी को वक्त चाहिए। यह कोई इन्स्टेंट कॉफी मशीन नहीं है। हालांकि वह काफी वक्त ले चुके हैं।
दरअसल सचाई यह है कि कभी हिटलर तक को मोहित करने वाली भारतीय हॉकी की सफलता के जमाने में इसके बहुत माई-बाप थे, आज भी हैं। लेकिन इन सबने इसकी ठीक से परवरिश नहीं की। वर्ष 1975 का वर्ल्ड कप जब हम जीते थे, तब वह टीम भारतीय ओलंपिक संघ ने भेजी थी, क्योंकि तब हॉकी फेडरेशन में झगड़ा चल रहा था।
विडंबना देखिए कि जब हमारे यहां छीना-झपटी का खेल चल रहा था, तब दूसरे देश इस खेल में भारत-पाकिस्तान के दबदबे को खत्म करने के लिए इसे एस्ट्रो टर्फ पर लाकर कलात्मक की जगह 'पावर गेम' बनाने में जुटे थे। ऑस्ट्रेलिया ने जिस भारतीय शख्स को वर्ष 1971 के आसपास अपनी टीम का कोच बनाया था, उसे हमारे फेडरेशन वालों ने कभी घास नहीं डाली। जहां यूरोपीय हॉकी को एस्ट्रो टर्फ पर लाने वाले थे, वहीं कंगारुओं ने इस भारतीय शख्स की मदद से एशियाई और यूरोपीय हॉकी को मिलाकर अपनी हॉकी को 'खच्चर' बना डाला। उसके बाद हॉकी में आस्ट्रेलिया की ताकत दुनिया ने देखी।
आखिरी बार हम वर्ष 1975 में क्वालालंपुर में घास के मैदान पर विश्व चैंपियन बने थे। और मॉस्को में पॉलीग्रास (यह भी कृत्रिम घास थी) पर ताकतवर मुल्कों की गैरमौजूदगी में हमने ओलंपिक जीता था। लेकिन हमारी हॉकी ने वर्ष 1976 के मांट्रियल ओलंपिक में मानो कफन ओढ़ लिया। भले ही लोग कहें कि इस पर आखिरी कील अब ठुकी है, लेकिन इसका एक ठोस पहलू यह भी है कि वर्ष 1983 में कपिल देव की टीम के इंगलैंड में विश्व कप क्रिकेट जीतने के साथ ही इसका पतन शुरू हो गया था।
हॉकी को रसातल में ले जाने का जिम्मा भले ही हॉकी फेडरेशन का हो, लेकिन कुछ बातें हैं, जिन पर गौर करें, तो हॉकी में फैली हताशा समझी जा सकती है। इसकी एक वजह तो क्रिकेट का ब्रांड बनना या उसका एकाधिकार ही है। फिर हॉकी के राष्ट्रीय खेल होने और वेस्ट इंडीज क्रिकेट के पराभव का भी विश्लेषण करें, तो बात आसानी से समझ में आ जाएगी। हर कोई जानता है कि एकाधिकार या प्रभुत्व ऐसे बरगद हैं, जिनके नीचे कोई दूसरा वृक्ष पनप नहीं सकता। क्रिकेट रूपी बरगद ब्रांड के नीचे हॉकी समेत अन्य सभी खेल दबते चले गए। हॉकी में 1975 की पराजय के दस साल के भीतर क्रिकेट भारत में ब्रांड बनने लगा था।
यह जानकर हैरत होगी कि वर्ष 1983 की विजेता टीम की अगवानी और सम्मान कार्यक्रम कराने के लिए लता मंगेशकर ने बीसीसीआई के लिए पैसे जुटाए थे, क्योंकि क्रिकेट को भारत सरकार से वित्तीय सहायता नहीं मिलती थी और बीसीसीआई केपास इतने पैसे नहीं थे। वैसे यह क्रिकेट के लिए शुभ ही रहा।
एक अन्य बिंदु है वेस्ट इंडीज क्रिकेट का पराभव, जिससे हम भारतीय हॉकी की दुर्गति को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। वेस्ट इंडीज की क्रिकेट अचानक निचली पायदान पर नहीं गई। इसकी प्रक्रिया तभी शुरू हो गई थी, जब यह टीम शिखर पर थी। तब उन 15-20 सालों में वहां के बच्चे-किशोर क्रिकेट के बजाय बास्केटबॉल को अपना रहे थे। जानते हैं क्यों? उन्हें बगल में बसे अमेरिका में अपना भविष्य सुरक्षित नजर आया। वहां बास्केटबॉल में इफरात पैसा था और इस मामले में कंगाल वेस्ट इंडीज बोर्ड अपनी कामयाबी के मद में इतना चूर था कि वह जान ही नहीं पाया कि उसके पैरों तले जमीन खिसक चुकी है। नतीजा यह हुआ कि जिन प्रतिभाशाली लड़कों में लॉयड, होल्डिंग, गार्नर, रिचड््र्स बनने के गुण थे, वे बास्केटबॉल में नामी हो गए।
हमें यह समझना होगा कि किसी भी देश में बेहतरीन मेधा सीमित ही होती है और यह उसके तंत्र पर निर्भर करता है कि वह विभिन्न क्षेत्रों या खेलों में अग्रणी बनने के लिए उसका उपयोग समान रूप से कैसे करता है। कहना न होगा कि इस मोरचे पर हमारा प्रबंधन तंत्र बुरी तरह से विफल रहा है। विभिन्न खेल संघों पर राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के कब्जे ने हालात को बदतर बनाया है। ऐसे में, स्वाभाविक रूप से हॉकी समेत तमाम खेलों में पेशेवर नजरिये की कमी देखी गई।
वर्ष 1983 में क्रिकेट में जीत और 1976 में मांट्रियल ओलंपिक की हार के नतीजों के संभावित परिणामों का हमारी सरकार और भारतीय ओलंपिक संघ सही आकलन नहीं कर पाए। उनमें शायद इतनी दूरदर्शिता थी भी नहीं। क्रिकेट में जीत से लोगों को ऐसा नशा मिला, जिसे बढ़ना ही था। इसमें ग्लैमर आया, पैसा घुसा, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की क्रांति के बाद यह छोटे शहरों और कसबों में पसर गया। नतीजा यह हुआ कि जो यूपी, बिहार (झारखंड), पंजाब, हरियाणा हॉकी, फुटबॉल, कुश्ती, बॉलीवॉल और बास्केटबॉल की नर्सरी होते थे, आज वहां के कसबों-गांवों की दिमागी और शारीरिक तौर से मजबूत बाल-किशोर प्रतिभाएं क्रिकेट की सप्लाई लाइन बन गई हैं। अगर सरकार और खेल संगठनों ने सभी क्षेत्रों में इस सप्लाई लाइन के समान वितरण के गणित को नहीं समझा, तो यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं होनी चाहिए कि देश से दूसरे खेलों का वजूद मिटते देर नहीं लगेगी।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)
Monday, March 10, 2008
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देशभक्तों का महान संगठन ?
कल आपने देखा कि जिसे गाना था उसने वंदेमातरम् गाया जिसे नहीं गाना था उसने नहीं गाया. जिन राज्यो में भारतीय जनता पार्टी का राज है और जहां वह दूसरी पार्टी के साथ राज कर रही है, वहां की सरकारों ने वंदेमातरम् गाने का अनिवार्य कर दिया था. लेकिन जहां कॉग्रेस और दूसरी पार्टियों का राज है वहां इसके गाने न गाने की छूट थी. जिन भाजपाई सरकारों ने इसे अनिवार्य किया वे भी दावा नहीं कर सकतीं कि जो मुसलमान, ईसाई और सिख इसे गाना नहीं चाहते थे उनसे भी वंदेमातरम् गवा लिया गया है. आदमी अगर ऐसा ही मशीनी होता और गाना रेकॉर्ड बजवाने जैसा मैकेनिकल काम होता तो न तो महान गीत होते न महान संगीत. अपनी मां, मातृभूमि और देश से आप सहज और स्वैच्छिक प्रेम करते हैं. कोई करवा नहीं सकता. सहजता और स्वैच्छिकता संस्कृति की महान उपलब्धियों की कुंजी है. जो राष्ट्र अपने नागरिकों की सहजता और स्वैच्छिकता का आदर करता है और उन पर कोई चीज़ थोप कर उन्हें मजबूर नहीं करता सभ्यता और संस्कृति में वह उतना ही विकसित होता है.
कोई प्रेरित व्यक्ति जितने बड़े काम कर सकता है मजबूर आदमी नहीं कर सकता है. अगर इस सत्य को आप समझते हैं तो लोगों को प्रेरित करेंगे, जो वे मन से और सहजता से कर सकते हैं उसे करने की छूट देंगे और इस स्वतंत्र और स्वैच्छिक वातावरण में जो प्राप्त होगा उसका गौरव गान करेंगे. वंदेमातरम् के राष्ट्रगीत होने की जैसे भी और जैसी भी मनाई गई शताब्दी पर अगर देशप्रेम, शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रति कृतज्ञता और समर्पण को ऊंचा उठा देने वाली भावना सर्वव्यापी नहीं हुई तो दोष उन्हीं का है जो इसका गाना अनिवार्य करना चाहते थे. यह पहली बार नहीं हुआ है कि मुसलमानों के एक तबके ने वंदेमातरम् के गाने को इस्लाम विरोधी कहा हो. वैसे ही यह भी पहली बार नहीं हुआ है कि संघ परिवारियों ने इसके गाने को मुसलमानों के लिए अनिवार्य करने का हल्ला मचाया हो. मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच यह झगड़ा आज़ादी के बहुत पहले से चला आ रहा है. आज़ादी के आंदोलन की मुख्यधारा तो कॉग्रेस की ही थी और उसी ने वंदेमातरम् को बाक़ायदा अपनाया भी. लेकिन उसी ने इसे गाते हुए भी इसका गाना स्वैच्छिक रखा. कॉग्रेस का सन १९३७ के अधिवेशन का प्रस्ताव इसका प्रमाण है. उसी ने इसे स्वतंत्र लोकतांत्रिक गणराज्य भारत का राष्ट्रगीत भी बनाया.
अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के लिए वंदेमातरम् का गाना अनिवार्य करने की मांग संघ परिवारियों की ही रही है. ये वही लोग हैं जिनने उस स्वतंत्रता संग्राम को ही स्वैच्छिक माना है जिसमें से वंदेमातरम् निकला है. अगर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए क़ुरबान हो जाना ही देशभक्ति की कसौटी है तो संघ परिवारी तो उस पर चढ़े भी नहीं, खरे उतरने की तो बात ही नहीं है. लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि राष्ट्रभक्ति का कोई प्रतीक स्वैच्छिक हो. तो फिर आज़ादी की लड़ाई के निर्णायक ”भारत छोड़ो आंदोलन” के दौरान वे खुद क्या कर रहे थे? उनने खुद ही कहा है- ”मैं संघ में लगभग उन्हीं दिनों गया जब भारत छोड़ो आंदोलन छिड़ा था क्योंकि मैं मानता था कि कॉग्रेस के तौर-तरीक़ों से तो भारत आज़ाद नहीं होगा. और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत थी.” संघ का रवैया यह था कि जब तक हम पहले देश के लिए अपनी जान क़ुरबान कर देने वाले लोगों का मज़बूत संगठन नहीं बना लेते, भारत स्वतंत्र नहीं हो सकता. लालकृष्ण आडवाणी भारत छोड़ो आंदोलन को छोड़कर करांची में आरम-दक्ष करते देश पर क़ुरबान हो सकने वाले लोगों का संगठन बनाते रहे. पांच साल बाद देश आज़ाद हो गया. इस आज़ादी में उनके संगठन संघ- के कितने स्वयंसेवकों ने जान की क़ुरबानी दी? ज़रा बताएं.
एक और बड़े देशभक्त स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी हैं. वे भी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बच्चे नहीं संघ कार्य करते स्वयंसेवक ही थे. एक बार बटेश्वर में आज़ादी के लिए लड़ते लोगों की संगत में पड़ गए. उधम हुआ. पुलिस ने पकड़ा तो उत्पात करने वाले सेनानियों के नाम बताकर छूट गए. (दस्तावेजी प्रमाण के लिए यहां देखें) आज़ादी आने तक उनने भी देश पर क़ुरबान होने वाले लोगों का संगठन बनाया जिन्हें क़ुरबान होने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि वे भी आज़ादी के आंदोलन को राष्ट्रभक्ति के लिए स्वैच्छिक समझते थे.
अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को देशभक्तों का महान संगठन कहे और देश पर जान न्योछावर करने वालों की सूची बनाए तो यह बड़े मज़ाक का विषय है. सन् १९२५ में संघ की स्थापना करने वाले डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार को बड़ा क्रांतिकारी और देशभक्त बताया जाता है. वे डॉक्टरी की पढ़ाई करने १९१० में नागपुर से कोलकाता गए जो कि क्रांतिकारियों का गढ़ था. हेडगेवार वहां छह साल रहे. संघवालों का दावा है कि कोलकाता पहुंचते ही उन्हें अनुशीलन समिति की सबसे विश्वसनीय मंडली में ले लिया गया और मध्यप्रांत के क्रांतिकारियों को हथियार और गोला-बारूद पहुंचाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की थी. लेकिन ना तो कोलकाता के क्रांतिकारियों की गतिविधियों के साहित्य में उनका नाम आता है न तब के पुलिस रेकॉर्ड में. (इतिहासकारों का छोड़े क्योंकि यहां इतिहासकारों का उल्लेख करने पर कुछ को उनकी निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करने का अवसर मिल सकता है) खैर, हेडगेवार ने वहां कोई महत्व का काम नहीं किया ना ही उन्हें वहां कोई अहमियत मिली. वे ना तो कोई क्रांतिकारी काम करते देखे गए और ना ही पुलिस ने उन्हें पकड़ा. १९१६ में वे वापस नागपुर आ गए.
लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद वे कॉग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों में काम करते रहे. गांधीजी के अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में भाग लेकर ख़िलाफ़त आंदोलन के वे आलोचक हो गए. वे पकड़े भी गए और सन् १९२२ में जेल से छूटे. नागपुर में सन् १९२३ के दंगों में उनने डॉक्टर मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया. अगले साल सावरकर का ”हिन्दुत्व” निकला जिसकी एक पांडुलिपी उनके पास भी थी. सावरकर के हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए ही हेडगेवार ने सन् १९२५ में दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की. तब से वे निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन और राजनीति में रहे लेकिन संघ को इन सबसे अलग रखा. सारा देश जब नमक सत्याग्रह और सिविल नाफ़रमानी आंदोलन में कूद पड़ा तो हेडगेवार भी उसमें आए लेकिन राष्टीय स्वयंसेवक संघ की कमान परांजपे को सौंप गए. वे स्वयंसेवकों को उनकी निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने देते थे लेकिन संघ को उनने न सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधियों में लगाया न अहिंसक असहयोग आंदोलनों में लगने दिया. संघ ऐसे समर्पित लोगों के चरित्र निर्माण का कार्य कर रहा था जो देश के लिए क़ुरबान हो जाएंगे. सावरकर ने तब चिढ़कर बयान दिया था, ”संघ के स्वयंसेवक के समाधि लेख में लिखा होगा- वह जन्मा, संघ में गया और बिना कुछ किए धरे मर गया.”
हेडगेवार तो फिर भी क्रांतिकारियों और अहिंसक असहयोग आंदोलनकारियों में रहे दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर तो ऐसे हिन्दू राष्ट्रनिष्ठ थे कि राष्ट्रीय आंदोलन, क्रांतिकारी गतिविधियों और ब्रिटिश विरोध से उनने संघ और स्वयंसेवकों को बिल्कुल अलग कर लिया. वाल्टर एंडरसन और श्रीधर दामले ने संघ पर जो पुस्तक द ब्रदरहुड इन सेफ़्रॉन- लिखी है उसमें कहा है, ”गोलवलकर मानते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबंदी लगाने का कोई बहाना अंग्रेज़ों को न दिया जाए.” अंग्रेज़ों ने जब ग़ैरसरकारी संगठनों में वर्दी पहनने और सैनिक कवायद पर पाबंदी तो संघ ने इसे तत्काल स्वीकार किया. २९ अप्रैल १९४३ को गोलवलकर ने संघ के वरिष्ठ लोगों के एक दस्तीपत्र भेजा. इसमें संघ की सैनिक शाखा बंद करने का आदेश था. दस्तीपत्र की भाषा से पता चलता है कि संघ पर पाबंदी की उन्हें कितनी चिंता थी- ”हमने सैनिक कवायद और वर्दी पहनने पर पाबंदी जैसे सरकारी आदेश मानकर ऐसी सब गतिविधियां छोड़ दी हैं ताकि हमारा काम क़ानून के दायरे में रहे जैसा कि क़ानून को मानने वाले हर संगठन को करना चाहिए. ऐसा हमने इस उम्मीद में किया कि हालात सुधर जाएंगे और हम फिर ये प्रशिक्षण देने लगेंगे. लेकिन अब हम तय कर रहे हैं कि वक़्त के बदलने का इंतज़ार किए बिना ये गतिविधियां और ये विभाग समाप्त ही कर दें.” (ये वो दौर था जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी अपने तरीक़े से संघर्ष कर रहे थे) पारंपरिक अर्थों में गोलवलकर क्रांतिकारी नहीं थे. अंग्रेज़ों ने इसे ठीक से समझ लिया था.
सन् १९४३ में संघ की गतिविधियों पर तैयार की गई एक सरकारी रपट में गृह विभाग ने निष्कर्ष निकाला था कि संघ से विधि और व्यवस्था को कोई आसन्न संकट नहीं है. १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में हुई हिंसा पर टिप्पणी करते हुए मुंबई के गृह विभाग ने कहा था, ”संघ ने बड़ी सावधानी से अपने को क़ानूनी दायरे में रखा है. खासकर अगस्त १९४२ में जो हिंसक उपद्रव हुए हैं उनमें संघ ने बिल्कुल भाग नहीं लिया है.” हेडगेवार सन् १९२५ से १९४० तक सरसंघचालक रहे और उनके बाद आज़ादी मिलने तक गोलवलकर रहे. इन बाईस वर्षों में आज़ादी के आंदोलन में संघ ने कोई योगदान या सहयोग नहीं किया. संघ परिवारियों के लिए संघ कार्य ही राष्ट्र सेवा और राष्ट्रभक्ति का सबसे बड़ा काम था. संघ का कार्य क्या है? हिन्दू राष्ट्र के लिए मर मिटने वाले स्वयंसेवकों का संगठन बनाना. इन स्वयंसेवकों का चरित्र निर्माण करना. उनमें ऱाष्ट्रभक्ति को ही जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा और शक्ति मानने की परम आस्था बैठाना. १९४७ में जब देश आज़ाद हुआ तो देश में कोई सात हज़ार शाखाओं में छह से सात लाख स्वयंसेवक भाग ले रहे थे. आप पूछ सकते हैं कि इन एकनिष्ठ देशभक्त स्वयंसेवकों ने आज़ादी के आंदोलन में क्या किया? अगर ये सशस्त्र क्रांति में विश्वास करते थे तो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इनने कितने सशस्त्र उपद्रव किए, कितने अंग्रेज़ों को मारा और उनके कितने संस्थानों को नष्ट किया. कितने स्वयंसेवक अंग्रेज़ों की गोलियों से मरे और कितने वंदेमातरम् कहकर फांसी पर झूल गए? हिन्दुत्ववादियों के हाथ से एक निहत्था अहिंसक गांधी ही मारा गया.
संघ और इन स्वयंसेवकों के लिए आज़ादी के आंदोलन से ज़्यादा महत्वपूर्ण स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र के लिए संगठन बनाना और स्वयंसेवक तैयार करना था. संगठन को अंग्रेज़ों की पाबंदी से बचाना था. इनके लिए स्वतंत्र भारत राष्ट्र अंग्रेज़ों से आज़ाद कराया गया भारत नहीं था. इनका हिन्दू राष्ट्र तो कोई पांच हज़ार साल से ही बना हुआ है. उसे पहले मुसलमानों और फिर अंग्रेज़ों से मुक्त कराना है. मुसलमान हिन्दू राष्ट्र के दुश्मन नंबर एक और अंग्रेज़ नंबर दो थे. सिर्फ़ अंग्रेज़ों को बाहर करने से इनका हिन्दू राष्ट्र आज़ाद नहीं होता. मुसलमानों को भी या तो बाहर करना होगा या उन्हें हिन्दू संस्कृति को मानना होगा. इसलिए अब उनका नारा है- वंदे मातरम् गाना होगा, नहीं तो यहां से जाना होगा. सवाल यह है कि जब आज़ादी का आंदोलन- संघ परिवारियों के लिए स्वैच्छिक था तो स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत में वंदेमातरम् गाना स्वैच्छिक क्यों नहीं हो सकता? भारत ने हिन्दू राष्ट्र को स्वीकार नहीं किया है. यह भारत संघियों का हिन्दू राष्ट्र नहीं है. वंदेमातरम् राष्ट्रगीत है, राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं
साभार- जनसत्ता,
बीच बहस में- वंदेमातरम्
नीरज दीवान
वंदेमातरम् पर हुई राजनीति पर बहुत से आलेख पिछले दिनों लिखे गए. यहां कोशिश की गई कि इतिहास की तारीख़ों पर नज़र डालते हुए कुछ संशय आपके सामने रखूं.
१८७६ में इस गीत की रचना हुई. बंकिमचंद्र चटर्जी ने इसे लिखा उसके छह साल बाद यानी १८८२ में आनंदमठ प्रकाशित हुई. १८७६ से १९७६ तक के सौ साल और उसके बाद १२५ साल २००१ मे पूरे हुए.
१८९६ में कोलकाता अधिवेशन में गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया. इस लिहाज़ से १९९६ में इसके १०० साल पूरे हुए.
१९०५ (अथवा १९०६) में सात सितम्बर को बनारस में हुए कॉग्रेस अधिवेशन में इसे टैगोर की भतीजी सरला देवी चौधरानी ने तत्कालीन अध्यक्ष लोकमान्य तिलक के अनुरोध पर गाया. कहा जाता है कि इसी अधिवेशन में कॉग्रेस ने इसे अपना आधिकारिक गीत अंगीकार किया.
इतिहासकार सुमीत सरकार ने सवाल उठाया है कि कॉग्रेस के अधिवेशन अमूमन दिसम्बर में होते रहे हैं. मेरा (ब्लॉगर) स्वयं का प्रेक्षण रहा है कि कॉग्रेस का सालाना अधिवेशन हमेशा दिसम्बर में होता आया है. फिर सितम्बर में अंगीकार करने के सवाल पर सफाई अब कॉग्रेस को देनी है.
आज ही मैंने अखिल भारतीय कॉग्रेस कमेटी की आधिकारिक साइट पर जाकर देखा तो हैरानगी हुई कि जिस अधिवेशन की बात कॉग्रेस सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के अर्जुन सिंह यह बताते हुए कह रहे हैं कि इसी साल (२००६) में इसके सौ साल पूरे हुए तो लगा कि या तो सरकार के तथ्य सही नहीं है या फिर साइट झूठ बोल रही है. साइट के मुताबिक़ बनारस अधिवेशन १९०५ में हुआ था. यानी १०० साल तो २००५ में ही हो चुके थे.
उससे भी बड़ी हैरानगी तब होती है जब मानव संसाधन मंत्रालय बिना इतिहासकारों की राय लिए या दस्तावेजी प्रमाण हासिल किए एक फ़रमान जारी कर दे और संघ परिवार उसका स्वामिभक्ति से पालन करने लग जाए. इससे पहले सौ या सवा सौ सालों पर किसी सरकार (कॉग्रेस, एनडीए और यूपीए) ने कोई उत्सव नहीं मनाया.
थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो
अभिव्यक्ति की आज़ादी और भावनाओं को ठेस का मतलब
प्रभाष जोशी
लालकृष्ण आडवाणी का कहना है कि कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने की आज़ादी नहीं हो सकती। अख़बार कहते हैं कि ऐसा उनने अपने सांसदों से कहा। भाजपा को यह बात मीडिया में उजागर करनी पड़ी, क्योंकि कुछ अख़बारों ने मेनका गांधी की उस चिट्ठी की ख़बर छापी थी, जो उनन जंग लगे भूतपूर्व लौह पुरुष को वडोदरा में भाजपाई-विहिपाई कार्यकर्ताओं द्वारा कला प्रदर्शनी में जबरन घुस कर तोड़-फोड़ करने के खिलाफ निंदा में लिखी थी। भाजपा दुनिया को बताना चाहती है कि वडोदरा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के कला संकाय में उनके कार्यकर्ताओं ने देवी-देवताओं के 'अश्लील और अशोभनीय' चित्रों के खिलाफ जो कुछ किया, पार्टी उसको बुरा नहीं मानती है। इस बेशर्मी को सिद्धांतकार लालकृष्ण आडवाणी के उद्धरण से अलंकृत किया गया है कि कोई कलाकार अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी के बहाने हमारी धार्मिक भावनाओं को चोट नहीं पहुंचा सकता। तथाकथित धार्मिक भावनाओं के बहाने इस देश के नागरिकों को मिली बुनियादी आज़ादियों के खिलाफ संघ संप्रदायिओं की यह फासिस्ट मुहिम है। कैसे? एक उदाहरण लीजिए-
कुछ साल पहले कथाकार कमलेश्वर और मुझे उज्जैन बुलाया गया था। वह कार्यक्रम शायद कालिदास अकादमी ने आयोजित किया था। साहित्य में सांप्रदायिक समरसता से निकला कोई विषय रहा होगा। कमलेश्वर ने बोलना शुरू किया और जैसे ही उनने बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने का ज़िक्र किया, श्रोताओं में से कुछ लोग उठे और उत्तेजित होकर चिल्लाने लगे। उनके एतराज़ को सुनने-समझने की कोशिश की गयी, तो बात निकल कर यह आयी कि उन्हें 'बाबरी मस्जिद के ध्वंस' से आपत्ति है। वे मानते हैं कि वह 'विवादित ढांचा' था, जो ढह गया। उसे 'बाबरी मस्जिद' क्यों कहा जा रहा है। वे यह नहीं सुनेंगे क्योंकि इससे उनकी भावनाओं को चोट पहुंचती है। और कमलेश्वर को इसका कोई अधिकार नहीं है कि वे लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाएं। कार्यक्रम में उपद्रव करने वाले लोगों का यह कहना मंच पर बैठे लोगों को मंज़ूर नहीं था। उनमें महेश बुच भी थे, जो कभी उज्जैन के कलेक्टर/कमिश्नर भी रह चुके थे। हमने उपद्रव करने वालों की यह मांग भी नहीं मानी कि कमलेश्वर न बोलें। बाकी के लोग बोलें तो कार्यक्रम चलने दिया जाएगा। मैंने कहा कि जिस सभा में कमलेश्वर को बोलने नहीं दिया जाएगा, उसमें मैं तो नहीं बोलूंगा। कोई आधे घंटे तक तनाव बना रहा।
कार्यक्रम के आयोजको, बाकी के श्रोताओं और उपद्रव करने आये उन लोगों के बीच बातचीत होती रही। हल्ला और हंगामा भी होता रहा। कई प्रतिष्ठित नागरिक हमें घेर कर बैठे रहे और हमें मनाते रहे कि विवाद और उपद्रव ख़त्म हो, तो कार्यक्रम फिर शुरू किया जा सके। आख़िर हमें सूचित किया गया कि कमलेश्वर अपना भाषण पूरा करेंगे। इसके बाद उपद्रव करने वालों में से कोई एक व्यक्ति आकर जो कुछ उसे बोलता है, बोलेगा और फिर मुझे भाषण देना है। फिर अध्यक्ष को जो कुछ कहना होगा, कहेंगे। मुझे लगा कि उपद्रव से कमलेश्वर का उत्साह और बोलने की सहज इच्छा काफी कम हो गयी थी। वे बोले और वही सब कुछ बोले, जो उन्हें बोलना था। बाबरी मस्जिद के ध्वंस को उनने बाबरी मस्जिद को तोड़ना ही कहा। फिर उपद्रवियों में से एक सज्जन आये और ज़ोर-ज़ोर से भाषण देने की कला के अपने प्रशिक्षण के अनुसार बोले और उनके साथ आये लोग तालियां पीटते रहे। फिर मैं कोई घंटे भर बोला। अपने धर्म और पुराणों की समझ में ये संघ परिवारी बेचारे बिल्कुल एकांगी हैं। भारतीय समाज की इनकी समझ भी मुसलमान काल से पीछे नहीं जाती। अपने समाज की विविधता, बहुलता और सर्वग्राहिता इनकी पकड़ में नहीं आती। शाखाओं में जो एकांगी और जड़ ज्ञान दिया जाता है, उसी को दोहराते रहते हैं। मेरा अनुभव है कि धर्म और भारतीय समाज पर इन्हें लेकर इनसे बड़ी आसानी से निपटा जा सकता है। उस दिन मैंने कहा कि आपके विवादित ढांचा कहने से बाबरी मस्जिद सिर्फ एक विवाद का ढांचा नहीं हो जाएगी।
सारी दुनिया जानती है कि 22/23 दिसंबर, सन 1949 की रात उसमें लाकर रामलला और दूसरी दो मूर्तियां रखी गयीं। ज़िला मजिस्ट्रेट नायर ने उन्हें मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के आदेश के बावजूद हटाया नहीं। हिंदू महासभा वालों ने अखंड पाठ चला कर जनता में रामलला के प्रकट होने की बात फैलायी। हज़ारों लोग इकट्ठा हुए। तबसे बाबरी मस्जिद में नमाज नहीं हुई। क्योंकि जहां मूर्तियां रखी हों, वहां नमाज नहीं पढ़ी जा सकती। सन 1528 में बनी बाबरी मस्जिद 1992 में आपके कहने से विवादित ढांचा नहीं हो जाएगी।
यह किस्सा इसलिए सुनाया कि बाबरी मस्जिद को विवादित ढांचा कहने को कमलेश्वर जैसे लेखक को मजबूर करने और उसके लिए 'हमारी भावनाओं को चोट पहुंचाने का' मामला सिर्फ कलाकार चंद्रमोहन और हुसैन से नहीं बनता। 'हमारी भावनाओं को चोट पहुंचाने का हल्ला' इसलिए मचाया जाता है कि जो हम मानते और करते हैं, आप भी वही मानिए, नहीं तो आपकी खैर नहीं है। यह मामला सिर्फ नैतिक पुलिसगिरी का भी नहीं है। यह उस जीवन पद्धति और सिर्फ उन मूल्यों पर हमला है, जो इस देश के लोगों ने सदियों के जीवनानुभव से विकसित किये हैं। यह हमारी सभी बुनियादी आज़ादियों पर हमला है। इसलिए महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के उस जगप्रसिद्ध ललित कला संकाय के अंतिम वर्ष के छात्र चंद्रमोहन की नियति को मात्र एक बेचारे कलाकार का दुर्भाग्य मत मानिए।
कल आप भी अपने ढंग से जीने और अभिव्यक्त होने के अपने मौलिक अधिकार और स्थान के लिए छह रात जेल में काटने को मजबूर किये जा सकते हैं।
आंध्र से वडोदरा के इस प्रख्यात कला संकाय में चित्रकारी सीखने आये चंद्रमोहन की माली हालत नाज़ुक है, लेकिन वह प्रतिभाशाली है, इसलिए उसे दो छात्रवृत्तियां मिली हुई है, जिनने उसे यहां पहुंचाया। गये साल उसे ललित कला अकादमी का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला है। इस साल परीक्षा के लिए उसने कुछ चित्र बनाये। ये चित्र कला संकाय के शिक्षकों और छात्रों के लिए थे, जो इन्हें देख कर और इनका आकलन करके चंद्रमोहन को नंबर और ग्रेड देते। उसका यह काम अपनी संकाय परीक्षा के लिए किया गया था और संकाय के शिक्षकों के लिए ही था। जैसे कोई छात्र अपनी परीक्षा के लिए उत्तर पुस्तिका लिखता है, वैसे ही और उसी के लिए चंद्रमोहन ने ये चित्र बनाये थे। संकाय में उनकी प्रदर्शनी भी परीक्षा और आकलन के लिए लगी थी। यह आम जनता क्या संकाय के बाहर विश्वविद्यालय के लिए भी आम प्रदर्शनी नहीं थी। क्या अंतिम वर्ष की परीक्षा और आकलन के लिए किये गये काम को आप सार्वजनिक स्थल पर आम लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाला काम कह सकते हैं?
फिर विश्व हिंदू परिषद के नीरज जैन अपने साथियों को लेकर उस हॉल में उपद्रव करने और कला संकाय के छात्रों और शिक्षकों से गाली गलौज और मारपीट करने कैसे पहुंच गये? उन्हें न सिर्फ वहां जाने और विश्वविद्यालय के कला संकाय के परीक्षा कार्य में कोई हस्तक्षेप करने का अधिकार था, न वे वहां रखे गये चित्रों पर कोई फैसला दे सकते थे। उन्हें वहां किसी ने बुलाया नहीं था। वह जगह आम जनता के लिए खुली नहीं थी। फिर नीरज जैन और उनके साथी वहां पहुंचे कैसे और चंद्रमोहन के चित्रों पर एतराज़ करके उन्हें हटाने की मांग क्यों करने लगे। इसलिए कि वे विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता हैं और गुजरात में भाजपाई नरेंद्र मोदी की सरकार है? और भी मज़ा देखिए कि न सिर्फ नीरज जैन और उनके साथी वहां पहुंच गये, वहां पुलिस भी आ गयी। जैसे विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने विश्वविद्यालय से इजाज़त नहीं ली थी, वैसे ही पुलिस भी बिना बुलाये, बिना पूछे आयी थी। किसी भी विश्वविद्यालय में यह नहीं हो सकता।
लेकिन गुजरात की पुलिस ने कला संकाय में बिना इजाज़त ज़बर्दस्ती घुस आये और परीक्षा के लिए बनाये गये चित्रों पर एतराज़ करने और उपद्रव मचाने वाले विश्व हिंदू परिषद कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। वह पकड़ कर ले गयी बेचारे उस चंद्रमोहन को, जिसके बनाये गये चित्रों पर इन धार्मिक और नैतिक भावनओं वाले कार्यकर्ताओं को एतराज़ था। उस पर भारतीय दंड विधान की धारा 153 ए और 295 के तहत आरोप लगाये गये। अब न तो यह एक आम जनता के लिए खुली सार्वजनिक प्रदर्शनी थी, न चंद्रमोहन ने ये चित्र सबके देखने के लिए बनाये थे। इनसे सार्वजनिक शांति और समरसता और लोगों की भावनाओं के आहत होने का सवाल कहां पैदा होता है? इनसे किसी को एतराज़ हो सकता था, तो कला संकाय के शिक्षकों और छात्रों को होना चाहिए था। लेकिन होता तो क्या ये लोग प्रदर्शनी में उन्हें रखने देते? और पुलिस के चंद्रमोहन को पकड़ कर ले जाने और प्रदर्शनी हटाने और उसके लिए जनता से माफी मांगने के कुलपति के आदेश का ऐसा विरोध करते? प्रोफेसर शिवजी पणिक्कर को कुलपति ने इसलिए निलंबित किया कि वे डीन थे और कुलपति के कहने पर उनने प्रदर्शनी बंद नहीं की, न उन चित्रों के लिए माफी मांगने को तैयार हुए। पणिक्कर अपने देश के विख्यात कला इतिहासकार और कला मर्मज्ञ हैं। वे और कला संकाय के छात्र चंद्रमोहन के साथ आज भी खड़े हैं।
लेकिन गुजरात पुलिस ही उपद्रवियों को पकड़ने के बजाय चंद्रमोहन को पकड़ कर नहीं ले गयी, बल्कि विश्वविद्यालय के कुलपति मनोज सोनी भी इस सारे मामले में अपने छात्रों और शिक्षकों का साथ देने के बजाय विश्व हिंदू परिषद के उपद्रवियों के साथ हो गये। उनने कला संकाय में जबरन घुस आये और परीक्षा के काम में दखल देने वाले कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुलिस में रपट तक नहीं लिखवायी। बल्कि वे संकाय को प्रदर्शनी बंद करने और डीन पणिक्कर से चंद्रमोहन के चित्रों के लिए सार्वजनिक माफी मांगने के आदेश दे आये। और जब पणिक्कर ने आदेश नहीं माने तो उन्हें निलंबित कर दिया। चंद्रमोहन के खिलाफ पुलिस कार्रवाई में अदालत में विश्वविद्यालय ने अपने छात्र का बचाव तक नहीं किया। पांच रात चंद्रमोहन जेल में बिता कर ज़मानत पर छूटा। पहली बार संघ परिवारियों ने अदालत में चंद्रमोहन की ज़मानत पर सुनवाई तक नहीं होने दी। चंद्रमोहन के पक्ष में प्रदर्शन करने आये देश भर के कलाकारों को विश्वविद्यालय ने अंदर आने तक नहीं दिया।
आप साफ देख सकते हैं कि वडोदरा की पुलिस और महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के कुलपति विश्व हिंदू परिषद के नीरज जैन जैसे कार्यकर्ताओं के साथ खड़े हैं। और लालकृष्ण आडवाणी जैसे जंग लगे लौहपुरुष कह रहे हैं कि चंद्रमोहन जैसे कलाकार 'अश्लील और अशोभनीय' चित्र बना कर हमारी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। एक विश्वविद्यालय के कला संकाय के छात्र ने अपनी डिग्री के लिए जो चित्र शिक्षकों के आकलन के लिए बनाये, उनसे नीरज जैन जैसे निठल्लों की धार्मिक भावनाएं आहत हुईं और उनने इसे राष्ट्रीय मामला बना दिया। कला के एक छात्र और शिक्षकों के बीच के परीक्षा कार्य में विश्व हिंदू परिषद, भाजपा और गुजरात सरकार का क्या दखल होना चाहिए? सिवाय इसके कि इनकी इच्छा है कि सिद्ध कलाकार ही नहीं, छात्र भी ऐसे चित्र बनाएं, जो हमारे तय किये ढांचें में फिट होते हों। जी, यही फासिस्ट इच्छा है और पता न हो तो जर्मनी और इटली के लोगों से पूछ लो।
अब संघ संप्रदायी, वकील और पैरोकार कहते हैं कि यह सवाल कलाकार की सृजन स्वतंत्रता का नहीं, किसी के भी ईश्वर निंदा/धर्म निंदा करने का अपराध का है। चंद्रमोहन ने तो वे चित्र सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए नहीं बनाये थे, लेकिन मंदिर बनाने वालों ने खजुराहो, कोणार्क और भुवनेश्वर के मंदिर सबके और धर्म के लिए बनाये। चंद्रमोहन का एक भी चित्र इन मंदिरों की कई मूर्तियों के सामने नहीं टिकेगा। और छोड़िए इन मंदिरों को, और हमारे पौराणिक साहित्य को- कभी सोचा है अरुण जेटली, कि महादेव का ज्योतिर्लिंग किसका प्रतीक है और जिस पिंडी पर यह लिंग स्थापित किया जाता है, वह किसकी प्रतीक है। क्या हिंदुओं के धर्म और देवी-देवताओं को सामी और संगठित इस्लाम या ईसाइयत समझ रखा है, जिसमें किसी पैगंबर की मूरत बनाना वर्जित हो। थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो। यूरोप और अरब की नकल मत करो।
कागद कारे, 20 मई 2007
क्योंकि हॉकी क्रिकेट नहीं है
क्योंकि हॉकी क्रिकेट नहीं है
आलोक तोमर
कवंर पाल सिंह गिल को लगता है कि जीते जी मोक्ष प्राप्त हो चुका है। लगभग अस्सी साल में पहली बार भारत की हॉकी टीम ओलंपिक जीतना तो दूर, वहां के मैदान में जाने लायक भी नहीं बची और इस पर जब गिल साहब की राय पूछी गई, तो उनका कहना था कि वे वक्त आने पर जवाब देंगे। भारत के राष्ट्रीय खेल को मोहल्ला स्तर का गिल्ली-डंडा बना देने वाले महारथियों से ऐसे ही जवाब की उम्मीद थी। गिल साहब से तो और भी क्योंकि वे भारतीय हॉकी फैडरेशन के अध्यक्ष जरूर हैं, लेकिन उनका ज्यादातर समय या तो जाम के साथ बीतता है या जाम के बाद होने वाली उनकी हरकतों की वजह से अदालतों में माफी मांगते हुए।
आज हॉकी के लिए और इसीलिए देश के लिए शर्मनाक दिन तो है ही, मगर आखिरी बार हॉकी का विश्व कप जीतने वाली टीम के कप्तान और बाद में नेता बन गए असलम शेर खान का गुस्सा भी कम जायज नहीं है। खान कहते हैं कि जितने भी खेल एसोसिएशन या फैडरेशन हैं, उनमें खिलाड़ियों के लिए कोई जगह नहीं है। हालांकि यह बात सबके लाड़ले क्रिकेट पर भी लागू होती है, मगर क्रिकेट दनादन आगे बढ़े जा रही है और हॉकी खेलने वालों को कुछ ऐसी नजर से देखा जाता है, जैसे हवाई जहाज में चलने वाले उतरते समय रन वे के पास बनी झुग्गियों को देखते हैं।
सवाल सिर्फ यह नहीं है कि हॉकी की इतनी दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है। क्रिकेट को छोड़ कर और एक हद तक टेनिस और शतरंज के अलावा अपने देश में लगता ही नहीं कि कोई खेल खेला जाता है। अगर शक हो तो आने वाले कॉमनवैल्थ खेल देख लीजिएगा, जिसमें मेजबान हम होंगे और सारे मैडल मेहमान ले जाएंगे। क्रिकेट की निंदा करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन जो बात सच है, वह कहे बिना रहा भी नहीं जा सकता। आपने देखा कि टीम इंडिया के सितारे आस्टे्रलिया को उसी की जमीन पर निपटा कर भारत लौटे, तो उनकी दीन-दुनिया ही बदल गई। साइकिलों पर चलने वाले जहाज चार्टर करने की हालत में आ गए और उनका अभिनंदन ऐसे किया गया, जैसा करगिल के विजेताओं का भी नहीं किया गया था।
उधर हॉकी की दशा देखिए। हॉकी का बड़े से बड़ा टूर्नामेंट जीत लिया जाए, तो भी भारत सरकार डेढ़ लाख से ले कर चार लाख रुपए से ज्यादा का इनाम नहीं देती। यह इनाम भी टीम के चौदह खिलाड़ियों में बंट कर कितना रह जाता होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। हॉकी के खिलाड़ियों को विदेश भेजने के लिए सरकार के पास अपवाद स्वरूप ही पैसे होते हैं। उनके प्रशिक्षण के लिए स्टेडियम इसीलिए नहीं मिलते क्योंकि उन्हें हमारे देश के शाही खेल में बुक करवाया हुआ होता है।
भारत ने पहली बार 1928 में एर्म्स्टडम में ओलंपिक में टीम उतारी थी और हालैंड को तीन गोल से हरा कर स्वर्ण पदक जीता था। हारने वाली टीम को तो एक भी गोल दागने का मौका नहीं दिया गया। 1928 से 1956 के बीच के 28 सालों में भारत ने ओलंपिक में लगातार छह स्वर्ण पदक जीते और इस पूरे दौर में भारत ने चौबीस ओलंपिक मैच खेले, सारे जीते और कुल 178 गोल दागे। पहली बार 1960 में इन 28 जीतों के बाद भारत सिर्फ एक गोल से रोम ओलंपिक में पाकिस्तान से हार गया था। संयोग से इसी ओलंपिक में भारत के अभी तक के सबसे तेज धावक माने जाने वाले मिल्खा सिंह सेंकेंड के लगभग सौवें हिस्से से पदक पाने से चूक गए थे।
अगले ओलंपिक में यानी 1964 में टोक्यो में भारत ने अपना स्वर्ण पदक वापस ले लिया और आखिरी स्वर्ण पदक 1980 में मॉस्को में जीता गया था। इसके बाद की पतन गाथा आपको मालूम ही है। हम किंवदंतियों और भूली हुई दंत कथाओं की तरह ध्यानचंद और कुंवर दिग्विजय सिह बाबू को याद करते हैं। इन दोनों को जादूगर कहा जाता है। 1949 में जब बाबू भारतीय टीम के कप्तान थे तो दुनिया की सभी टीमों ने मिल कर जो 236 गोल किए थे, उनमें से 99 सिर्फ बाबू के थे।
ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार भी भारतीय टीम में थे और शानदार खिलाड़ी माने जाते थे। ध्यानचंद के बारे में तो यह मशहूर है कि गेंद उनकी स्टिक से चिपकी रहती थी और गोल तक पहुंच कर ही छूटती थी। कई शिकायतों के बाद उनकी स्टिक की जांच भी की गई कि कहीं इसमें कोई चुंबक तो नहीं लगा हुआ है। उनके छोटे भाई रूप सिंह भी उसी टीम में थे और सबसे तेज खिलाड़ियों में से एक थे। हॉकी के प्रति रूप सिंह का समर्पण इस हद तक था कि वे झांसी से बस में बैठ कर भिंड में लगभग दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके हमारे स्कूल में हॉकी सिखाने आते थे और हॉस्टल के एक कमरे में जमीन पर सोते थे। खाना भी वे इटावा रोड के एक ढाबे में खाते थे।
अब तो हॉकी हमारे लिए मुगल काल के इतिहास की तरह कोई पुरानी याद बन कर रह गई है। भारतीय हॉकी फैडरेशन की हालत इतनी खराब है कि उसकी बैठकों में या तो लोग पहुंचते नहीं हैं या पहुंच कर फिर झगड़ा करते हैं। अपने तानाशाह रवैये के लिए मशहूर कंवर पाल सिंह गिल और भारतीय फैडरेशन के महासचिव ज्योति कुमारन को तो अंदाजा भी नहीं है कि दुनिया में लोग भारतीय हॉकी का कितना मजाक उड़ा रहे हैं। यह बात अलग है कि पूरी दुनिया में हॉकी की दशा खराब है क्योंकि यह क्रिकेट नहीं है। सच तो यह है कि 2012 के लंदन ओलंपिक में हॉकी को शामिल किए रखने के बारे में बाकायदा मतदान हुआ और सिर्फ एक वोट से हॉकी बची रह गई। यह एक वोट भारत का नहीं था क्योंकि भारतीय प्रतिनिधि इस बैठक में जाने के लिए टिकट खरीदने का पैसा भारत के खेल मंत्रालय ने मंजूर नहीं किया था। इसीलिए किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आखिरी ओलंपिक हमने 1980 में जीता था और आखिरी विश्व कप 1975 में।
महिला हॉकी पर चक दे इंडिया बनी तो अचानक लोगों को लगा कि हॉकी का जमाना वापस आ रहा है। फिल्म बनाने वालों ने पैसा कूट लिया और शाहरुख खान को फिल्म फेयर में सबसे अच्छी एक्टिंग का अवॉर्ड मिल गया। मिलना भी चाहिए था। जिस खेल की देश में इतनी दुर्दशा हो, उसमें इतने उत्साह का अभिनय कोई करामाती अभिनेता ही कर सकता है। यहां यह मत भूलिए कि हॉकी के स्वयभूं ब्रांड एम्बेसडर कहे जाने वाले शाहरुख खान को जब मौका मिला, तो उन्होंने पैसा लगाने के लिए क्रिकेट को चुना। आखिर धंधा अलग है और जोश और जुनून अलग। अभी संसद चल रही है और सरकार चाहे तो हॉकी की बजाय क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल बनाने का विधेयक ला सकती है। आखिर 2010 में भारत में ही हॉकी का विश्व कप होना है और 2008 में हम बीजिंग ओलंपिक के मैदान तक नहीं पहुंच सके।
(शब्दार्थ)