ये ओम थानवी का नहीं प्रभाष जी के शिष्यों का ऑनलाइन जनसत्ता है और इसे आज के जनसत्ता के प्रिंट संस्करण से ज्यादा लोग पढ़ते हैं. यह खुला मंच है जहाँ खलीफा भी चेलों के साथ बैठते हैं और चेला अगर सच खोज लाता है तो उस्ताद को शर्म नहीं आती बल्कि गर्व होता है. इसका संपादक जानता है कि ख़बर क्या होती है और क्यों होती है. और यह भी कि जनसत्ता का जन से क्या सरोकार होना चाहिए. यह उन लोगों का मंच है जिन्हें प्रभाष जी की जलाई मशाल में अब भी रोशनी नज़र आती है. चलिए जनसत्ता को फ़िर से जीवित करें. आप सब का जनसत्ता से शुरू से जुडाव रहा है और आप में से ज्यादातर उसी गुरुकुल के शिष्य हैं. आप अपने अनुभव भेजिए, अच्छे बुरे, गौरवशाली या शर्मनाक . ये भी लिखिए कि अपन सब को आगे कौन सा पथ पकड़ना है?
जनसता के लोग
जनसता के लोग राम बहादुर राय, बनवारी जी, हरि शंकर व्यास, विवेक सक्सेना, प्रदीप श्रीवास्तव, मनोज मिश्र,अरविंद मोहन, आलोक तोमर, राजेश नायक, एस. पी. त्रिपाठी, श्रीश मिश्रा अनिल बंसल, रजनी नागपाल, सुरेन्द्र किशोर, प्रदीप सिंह,मनोहर नायक, अजय शर्मा, कुमार आनंद, रवींद्र त्रिपाठी, मंगलेश डबराल, पारुल शर्मा, शभु नाथ शुक्ला, श्याम आचार्य, महेश पाण्डेय, राजीव शुक्ला, अम्बरीश कुमार, संजय निरुपम, प्रभात रंजन दीन,हेमंत शर्मा, आत्मदीप, बीरबल चौरसिया, शम्स ताहिर खान, कुमार संजोय सिंह, जयप्रकाश, अमित कुमार सिंह, देवप्रिय अवस्थी, जगमोहन फुटेला, और चमन लाल के अलावा जनसत्ता से जुड़े रहे लेखक और करोड़ों पाठकों का खुला मंच. प्रभाष जी के किसी भी उत्तराधिकारी के लिए, उनके वंशजों के इस मंच पर तो क्या नेपथ्य में भी संभावना नहीं है. घर में किन्नर बिठाने की परम्परा से हम विनम्रता पूर्वक इनकार करते हैं.