पार्टी प्रमुखों को यकीन नहीं कि उनके सांसद किस पाले में जाएंगे
शंभूनाथ शुक्ल
संसद में 22 जुलाई की अग्निपरीक्षा को अब ज्यादा दिन नहीं रह गए हैं। हर पार्टी में कोहराम मचा है। कहीं पैसों का खेल है, तो कहीं कॉरपोरेट घरानों के इशारे पर सांसदों को बरगलाया जा रहा है। पार्टी लाइन, नैतिकता आज सब ताक पर हैं। कल के दुश्मन आज गलबहियां डाले घूम रहे हैं, तो साथ मरने-जीने की कसमें खाने वाले कन्नी काटते नजर आ रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा, दोनों अपने साथियों से तो आशंकित हैं ही, सबसे बड़ा खतरा उनकी अपनी ही पार्टी के सांसदों से है कि ऐन मौकेपर कहीं वे ही बगलें न दिखाने लगें। पार्टी के एक इशारे पर जिस माकपा ने अपने नेता ज्योति बसु को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था, आज वही अपनी पार्टी के नेता और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पद छोड़ने के लिए राजी नहीं कर पा रही है। कोलकाता में माकपा सरकार के खेल और युवा मामलों के मंत्री सुभाष चक्रवर्ती पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव की लाइन की खुलेआम निंदा कर रहे हैं। भारतीय संसदीय राजनीति में शायद यह पहला मौका है, जब कोई पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि उसके सांसद उसकी लाइन को आंख मूंद कर मान ही लेंगे।
केंद्र की मनमोहन सरकार यह विश्वास प्रस्ताव क्यों ला रही है या उसको समर्थन दे रहे वाम दलों ने क्यों उसके पांवों के नीचे से दरी खींच ली, यह मुद््दा अब गौण हो गया है। शायद ही कोई अब एटमी डील के नफे-नुकसान की चर्चा करता हो। अब तो मामला है कि सरकार बचेगी या जाएगी। एक या दो सांसदों की पार्टियों की बात तो छोड़िए, 39 सांसदों वाली समाजवादी पार्टी के सांसद खुलेआम अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष और महासचिव की लाइन की अवहेलना की बात करते हैं
बेनीप्रसाद वर्मा और राज बब्बर तो खैर पुराने बागी हैं। जयप्रकाश रावत, मुनव्वर हसन, और राजनारायण बुधौलिया तक सपा के कहे मुताबिक वोट डालेंगे, इसमें शक है। उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के कितने ही सांसद अगली लोकसभा में पहुंचने के लिए बसपा का मुंह ताक रहे हैं। वे पुख्ता तौर पर कांग्रेस की लाइन पर वोट डालेंगे, यकीनी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। भाजपा में भी कांग्रेस के विश्वास प्रस्ताव पर मत विभाजन की आशंका है। भाजपा के अंदर डील को लेकर दो धाराएं साफ नजर आती हैं। यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और मुरली मनोहर जोशी जहां अमेरिका के साथ एटमी डील के कट््टर विरोधी हैं, वहीं पार्टी का एक बड़ा खेमा इसका समर्थक भी है।
दूसरी तरफ मायावती का पेच है। उन्होंने डील को मुसलिम विरोधी बताकर हर पार्टी को डिफेंसिव बना दिया है। कोई भी राजनीतिक दल मुसलमानों के वोट खोना नहीं चाहता। और यह सच है कि मुसलमानों में डील को लेकर एक हिच है। देश का आम मुसलमान बुश को इसलाम विरोधी समझता है, इसलिए बुश से कोई भी समझौता उसकी नजर में मुसलिम विरोधी हुआ। यही कारण है कि यूपीए की सहयोगी ऑल इंडिया मुसलिम लीग के इकलौते सांसद और मनमोहन सरकार में मंत्री ई. अहमद यूपीए से छिटक गए। हालांकि बसपा सुप्रीमो मायावती ने यह दांव अपने चिर विरोधी मुलायम सिंह को पस्त करने केलिए फेंका था, पर उसका असर हर पार्टी पर हुआ है। मुलायम सिंह की सपा पर कुछ ज्यादा, क्योंकि उनकी पार्टी के स्वास्थ्य के लिए मुसलमानों के वोट सबसे ज्यादा अहम हैं। यही कारण है कि पार्टी सुप्रीमो कुछ बोल रहा है और पार्टी के सांसद दूसरी राह पकड़ रहे हैं।
कोई 12 साल पहले जिस माकपा ने अपने सबसे ताकतवर और लोकप्रिय मुख्यमंत्री ज्योति बसु को प्रधानमंत्री की कुरसी पर बैठने नहीं दिया था, उसी माकपा का हाल यह है कि पार्टी महासचिव अपनी ही पार्टी के सोमनाथ चटर्जी को समझाने में नाकाम हैं। माकपा की बंगाल लॉबी पार्टी महासचिव प्रकाश करात का घोर विरोध कर रही है। ज्योति बसु का साफ कहना है कि एटमी डील के मुद््दे पर वाम दलों द्वारा समर्थन वापसी ही पर्याप्त था, उनका मकसद सरकार गिराना नहीं होना चाहिए। करात की अतिशय सक्रियता ज्योति बसु के खेमे को कतई रास नहीं आ रही है, इसीलिए ज्योति दा के सबसे करीबी सुभाष चक्रवर्ती खुल्लमखुल्ला प्रकाश करात की आलोचना कर रहे हैं। विश्वास प्रस्ताव के दौरान वाम दलों द्वारा भारतीय जनता पार्टी के साथ विरोध में मतदान करना वह पार्टी लाइन के खिलाफ मानते हैं। सुभाष चक्रवर्ती का कहना है कि कोयंबटूर बैठक में पार्टी ने तय किया था कि वह सांप्रदायिक ताकतों को दिल्ली की कुरसी से दूर रखेगी, अब भाजपा के साथ वोटिंग कर पार्टी अपनी ही लाइन के खिलाफ काम करेगी। यानी अब डील या नो डील नहीं, असल मसला पार्टियों की अंदरूनी खुन्नस का है। अगर डील को मुद््दा माना जाए, तो एबी बर्ध्दन और प्रकाश करात के साथ ही यशवंत सिन्हा खड़े दीखते हैं और अमर सिंह, मुलायम सिंह के साथ ज्योति बसु और सुभाष चक्रवर्ती।
भाकपा नेता एबी बर्ध्दन के इस आरोप पर, कि कांग्रेस सांसदों को 25-25 करोड़ में खरीद रही है,अगले ही रोज अमर सिंह ने कहा कि मायावती हमारे सांसदों को तोड़ने के लिए प्रति सांसद तीस करोड़ की बोली लगा रही हैं। रिलायंस के मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी भले ही अपने कारणों से सत्ता केगलियारे में सक्रिय हों, लेकिन वे भी इन दिनों निशाने पर हैं। औद्योगिक घरानों की सक्रियता हर पार्टी को शक के दायरे में ले आती है। आज हालत यह है कि किसी भी राजनीतिक दल को अपने ही सांसदों पर भरोसा नहीं रह गया है। खुद सांसद भी सांसत में हैं। 14 वीं लोकसभा को अब ज्यादा दिन नहीं रह गए हैं। आज सरकार बच जाए, तो भी अप्रैल तक चुनाव अवश्यंभावी हैं। अब प्रश्न यह है कि नए परिसीमन और समीकरण के चलते क्या वे अपनी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीत पाएंगे। उत्तर प्रदेश में तो स्थिति बहुत ही खराब है। कांग्रेस, भाजपा या सपा के सांसदों में से ज्यादातर को अपनी सीट बदलनी पड़ेगी, क्योंकि परिसीमन ने उन्हें अजीब पसोपेश में डाल दिया है। ज्यादातर सांसदों का संकट यह है कि जहां से वे लड़ना चाहते हैं, वहां पर उनका टिकट पाना मुश्किल है। और सीट बदली, तो जीतने की गारंटी तय नहीं। अलबत्ता बसपा के टिकट पर एक निश्चित वोट बैंक पक्का माना जा रहा है। इसलिए हर पार्टी के सांसदों में भगदड़ मची है। ऐसे में, यह कैसे संभव है कि पार्टी लाइन पर चलकर सांसद वोट डालेंगे।
शम्भू नाथ शुक्ला जनसत्ता के आदिवासी साथी हैं और अब अमर उजाला देल्ली के संपादक हैं. अपने अगन में आने पर उनका स्वागत है
Wednesday, July 16, 2008
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