Saturday, March 29, 2008

घाटे पानी सब भरे औघट भरे न कोय।

प्रभाष जोशी
घाटे पानी सब भरे औघट भरे न कोय।
औघट घाट कबीर का भरे सो निर्मल होय।।
हमने तो पढ़ी नहीं तुमने पढ़ी हो तो बताओ साधो। नहीं पढ़ी ना। हम जानते थे। हजार पत्रों की उस महापोथी को तुम जैसे रमते राम बांचें भी तो कैसे। न तुम्हें भाजपाइयों को बताना है कि तुम लालकृष्ण आडवाणी का कितना आदर करते हो न तुम्हें अगली हो सकने वाली सरकार में अपनी गोटी अभी से जमा कर रखनी है। तुम्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वालों को भी दिखाना नहीं है कि तुम लालकृष्ण आडवाणी पर नजर रखे हुए हो और जब भी वे संघ की खींची गई लकीर से इधर-उधर होंगे तो घंटी बजाकर सावधान कर दोगे। जानना-बताना भी नहीं है कि जिन घटनाओं को तुमने खुद देखा और जाना है उनको लालकृष्ण आडवाणी ने कैसे देखा और बताया है और उसमें सच क्या और झूठ कितना है। तुम्हें न अखबार में लिखना है न टीवी पर बताना है कि तुम अपनी धूनी छोड़कर लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा पढ़ो। तुमने ठीक ही किया साधो जो हल्ले में नहीं आए और ‘आसन मार डिंब धरी’ बैठे रहे।
जब अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री होने की हवा चलाई जा रही थी तो उनकी कविता को आगे-आगे धजा की तरह उड़ाया जाता था। कविता की पोथी छपी तो खुद प्रधानमंत्री नरसिंह राव उसका विमोचन करने आए। ऐसा समारोह मना कि जैसे कविता ही वह पालकी होगी जो अटल जी को सिंहासन पर जा बैठाएगी। फिर कविता तो नहीं प्रमोद महाजन की दलाली ने जरूर चंद्रबाबू नायडू को पटा लिया और अटल जी तेरह दिन की नामुराद सरकार की भभूत झाड़कर असल के प्रधानमंत्री हो गए। तब देखते-देखते उनकी कविता दिन की सबसे चटकीली ललाई और नशे में लपेट लेने वाली धुन हो गई। पॉप गायिका से लेकर संगीत सम्राट तक उनकी कविता गाने लगे। भारत में कोई कवि नहीं रहा जो अटल कवि के सामने टिक सके। फिर चुनाव हुए और अटल जी सिंहासन से पटिये पर आ गए। प्रमोद महाजन ने उन्हें सहस्र चंद्र दर्शन जरूर करवाए। लेकिन अब और कोई तो छोड़िए भाजपाई दरबारी लाल भी कभी अटल जी की कोई पंक्ति नहीं सुनाता।
ऐसा राजनेता के लिखने का होता है साधो। हमने तो लिखा भी नहीं। लिखना तो जानते ही नहीं। कहते हैं बस। तुम हमारे कहे को कहते फिरते हो तो लोग हमीं को आकर बताते हैं कि ऐसा हमने कहा है। हम कहते हैं कि ठीक है कहा होगा। लेकिन कोई बता रहा था साधो कि लालकृष्ण आडवाणी तो बोलते हुए भी सावधान रहते हैं कि उनका बोला लिखा जाएगा। जो बोलने में इतना सचेत रहता है साधो, वह लिखने में कितनी चतुराई बरतता होगा। उनकी आत्मकथा के हजार पन्ने पढ़ लोगे तो समझ आ जाएगा। तुम कहोगे कि आप तो कहते हो कि हमन को होशियारी क्या और हमें लालकृष्ण आडवाणी की चतुराई पकड़ने में लगाते हो। नहीं साधो, ऐसा करने को हम क्यों कर कहेंगे। हम तो तुम्हें भी इश्क मस्ताना ही मानते हैं। होशियारी की जासूसी तो पंडित और मौलाना पर छोड़ देनी चाहिए। अपनी तो फकीरी ही काम की है।
लेकिन लालकृष्ण आडवाणी को बहुत दुख है साधो कि उनने बुलाया था फिर भी सोनिया गांधी उनकी आत्मकथा के विमोचन पर नहीं आई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी बुलाया था पर उनसे भी ऐसे संबंध नहीं हैं कि वे आते। पूरी कांग्रेस पार्टी में से कोई भी नहीं आया। अटल की कविताओं के संग्रह का तो विमोचन ही कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने किया था और कांग्रेसी मंत्री सांसद सब आए थे। थी तो वह कविता की पोथी लेकिन अवसर तो राजनैतिक ही था। ऐसा लगता था कि अटल जी प्रधानमंत्री हो जाएं तो कांग्रेस वालों को कोई ऐतराज नहीं होगा। लेकिन लालकृष्ण आडवाणी से तो कांग्रेस ने वह शिष्टाचार भी नहीं बरता जो विपक्ष के नेता से किया जाना चाहिए। जैसा लोकसभा में आडवाणी करवाते हैं वैसा ही बहिष्कार उनकी आत्मकथा के विमोचन का कांग्रेस ने कर दिया।
अखबार वाले कहते हैं साधो! लालकृष्ण आडवाणी ने भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से अपनी आत्मकथा उतनी विमोचित नहीं करवाई जितने अपने संभावित प्रधानमंत्रित्व का शुभारंभ। कलाम को तो निश्चित ही कोई एतराज नहीं था। कांग्रेस को था। लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री होने की सीढ़ी पर चढ़ाने में सोनिया गांधी क्यों हथेली लगाएं। उनका अपना बेटा राहुल गांधी नहीं है क्या! फिर आडवाणी राजनीति बोते हैं तो सद्भावना कैसे काट लेंगे। उदारता खुंदक में कहां मिलती है साधो!

Sunday, March 16, 2008

जेल की दहलीज पर थलसेना अध्यक्ष


आलोक तोमर
भारतीय सेना अपने इतिहास के सबसे बड़े संकट में फंस गई है। सेना अध्यक्ष जनरल दीपक कपूर के खिलाफ आर्थिक अनिमियताओं के मामले में रक्षा मंत्रालय ने जांच बैठा दी है और रक्षामंत्री ए के एंटनी ने श्री कपूर को अनौपचारिक प्रस्ताव भेज दिया है कि जांच होने तक वे अगर चाहे तो अवकाश पर जा सकते हैं।इसका दूसरा अर्थ यह है कि सेना अध्यक्ष कुर्सी छोड़ दे । आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि सेना के तीनों अंगो के किसी भी एक मुखिया को अवकाश पर जाने के लिए कहा गया हो। उनके अवकाश पर रहने पर उनके उत्तराधिकारी कोई और जनरल बनेंगे और सेना में असली कमान सेना अध्यक्ष के ही हाथ में होती है। दीपक कपूर को जल्दी ही हटना पड़ सकता है और उनके खिलाफ सेना की जांच में अगर सीएजी के आरोपों की पुष्टि हुई तो उनका कोर्ट मार्शल भी हो सकता है और उनसे जनरल की पदवीं और सारे पदक छीने जा सकते हैं।सीएजी की ऑडिट रिर्पोट में आरोप है कि जनरल कपूर ने पांच और वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मिलकर घास और झाड़िया काटने के उपकरण खरीदने के नाम पर लाखों रूपए की हेराफेरा की ।यह तब की बात है जब वे जम्मू कश्मीर में सेना की उत्तरी कमान के मुखिया थे। इसके अलावा श्री कपूर पर एक ऐसे ब्रिगेडियर को संरक्षण देने का भी आरोप है जो कारगिल इलाके में डीजल और मिट्टी का तेल निजी व्यापारियों को तस्करी के जरिए बेचा करता था इसी ब्रिगेडियर ने चार्जशीट मिलने पर जनरल कपूर का नाम लिया था। जनरल कपूर पर यह भी आरोप है कि उन्होंने कपूरथला सैनिक स्कूल के प्रशासक रहने के दौरान उसकी इमारत के रखरखाव के लिए पैसा तो मंजूर करवा लिया लेकिन इमारत जर्जर हालत में है। पंजाब सरकार ने यह इमारत अब वापस मांगी है।चूंकि यह अभूतपूर्व मामला है इसलिए रक्षा मंत्रालय अभी तक यह तय नहीं कर पाया कि सेना अध्यक्ष का कोर्ट मार्शल कैसे किया जाए। नियमानुसार सेना के किसी भी अधिकारी पर मुकदमा उसके वरिष्ठ अधिकारी ही चला सकते हैं। इसका दूसरा विकल्प यह है कि मामला सिविल अदालत को सौंप दिया जाए और इसका सीधा मतलब यह है कि एफआईआर दर्ज होते ही जनरल कपूर को हिरासत में लिया जाएगा और फिर तब तक वह कैद में रहेंगे जब तक उन्हें जमानत नहीं मिल जाती। रक्षामंत्री एंटनी को इस मामले में संसदीय समिति से जांच करवाने का सुझाव दिया गया था लेकिन उन्होंने इससे साफ इनकार कर दिया।

इस साल नहीं होगी मानसरोवर यात्रा?



आलोक तोमर


नेपाल के इरादे भारत के साथ रिश्तों को लेकर बहुत नेक नजर नहीं आते।सरकार में शामिल माओवादियों के दबाव में नेपाल ने पहले चीन से रेल संपर्क जोड़ा और अब तिब्बती बगावत के नाम पर एवरेस्ट का नेपाल से जाने वाला रास्ता भी पर्वतारोहियों के लिए बंद कर दिया गया है। खबर है कि इस बार चीन कैलाश मानसरोवर यात्रा भी नहीं होने देगा।हिंदू तीर्थ कैलाश मानसरोवर चीन में आता है और इसका सबसे सहज रास्ता नेपाल होकर ही जाता है। भारतीय विदेश मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार नेपाल में स्थित भारतीय दूतावास को संकेत दे दिए गए हैं कि तीर्थ यात्री अगर भारतीय आधार शिविर से रवाना भी हो जाए तो उन्हें नेपाल में ही रोक लिया जाए। अब तक हिंदू राष्ट्र की मान्यता रखने वाले नेपाल ने इससे पहले यह कदम इससे पहले कभी नहीं उठाया। हर साल पंद्रह हजार से ज्यादा तीर्थ यात्री कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाते हैं और इसी साल भारत सरकार ने हज यात्रियों की तरह उन्हें अनुदान देने की घोषणा की थी।चीन ने तिब्बत पर कब्जे को लेकर भारत सरकार की तकनीकी सहमति वाजपेयी सरकार के दौरान ही ले ली थी। इसी आधार पर चीन ने अरूणांचल प्रदेश से अपना कब्जा छोड़ा था और नाथुला पास का रास्ता भारत-चीन व्यापार के लिए खोलने की अनुमति दी थी। इस फैसले से भारत में बसे लाखों तिब्बती शरणार्थी नाराज हैं और उन्होंने अपने धर्म गुरू दलाईलामा की बात मानने से भी इनकार कर दिया है। तिब्बत में चीनी दमन का दौर जारी है और यह लिखने तक सोलह लोग जान गवां चुके हैं।चीन ने घोषित कर दिया है कि उनका देश तिब्बत में हो रही अशांति को लोक संग्राम करार दिया है और चेतावनी दी है कि इसमें शामिल किसी भी व्यक्ति को देशद्रोही माना जाएगा और सबसे कड़ी सजा दी जाएगी। भारतीय विदेश मंत्रालय इस मंत्रालय अब तक कुछ भी कहने से बच रहा है लेकिन चिंता का हाल यह है कि इतवार को भी शास्त्री भवन में विदेश मंत्रालय की चीन युनिट का कार्यालय खुला रहा। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी कल संसद में इस संबंध में कोई बयान दे सकते हैं। उन्हें इस बात का भी जबाव देना होगा कि अमेरिका भारत और चीन के इस मामले में दखल क्यों दे रहा है?

Thursday, March 13, 2008

दलाईलामा के खिलाफ अब हुई बगावत

आलोक तोमर
आखिरकार तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को उनके शिष्य भी नहीं झेल पाए। भारत में रह कर निर्वासित सरकार चला रहे और भारत के ही खर्चे पर पल रहे दलाई लामा इन दिनों चीन को ले कर अपने गोल-मोल रवैये से भारत सरकार ही नहीं, अपने शिष्यों के लिए भी परेशानी का कारण बने हुए हैं।

आखिर दलाई लामा तिब्बत से भारत भाग कर आए ही इसीलिए थे कि वे अपने आप को धर्म गुरु के नाते तिब्बत का शासक मानते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो वे तिब्बत की बराबरी वेटिकन से कर रहे थे, जहां पोप को राष्ट्र प्रमुख का दर्जा दिया जाता है। लगभग छयालीस साल से भारत को अनाथालय बना कर रह रहे दलाई लामा को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है। यह भी कहा जाता है कि चीन को सबक सिखाने क लिए अमेरिकी सीआईए के लोगों ने तिब्बत में बगावत को हवा दी थी और सीआईए ने ही दलाई लामा के भारत पहुंचने में मदद की थी।

जिन लोगों की दलाई लामा में अटूट आस्था है, वे सपना देख रहे थे कि अपनी परा भौतिक शक्तियों और खगोलीय राजनयिक दांव-पेंचों के जरिए दलाई लामा आखिरकार तिब्बत को आजाद देश बना लेंगे और वहां फिर बौध्द धर्म का राज चलेगा। शुरू में दलाई लामा के तेवर थे भी इसी तरह के, लेकिन बहुत दिनों तक अकारण अभिवादन प्राप्त करते हुए और फोकट का अन्न खाते हुए शायद हिज होलीनैस की मति भ्रष्ट हो गई या उम्र का असर हुआ इसीलिए अब उनका झुकाव बार-बार चीन की ओर दिखाई देता है। बीजिंग ओलंपिक के मामले में तो खास तौर पर तिब्बत की आजादी को मुद्दा बनाने की पहल उनके प्रवक्ताओं ने की थी और जब यह पहल चीन से धिक्कार के साथ लौट आई, तो उन्होंने भी अपना रुख बदल लिया और कहा कि तिब्बत को सिर्फ सीमित स्वायत्ता दे दी जाए, तो भी काम चल जाएगा। दूसरे शब्दों में वे तिब्बत में गोरखा लैंड की तर्ज पर एक प्रशासनिक ढांचा चाहते थे और हिज होलीनैस होने के बावजूद उनकी तमन्ना भूतपूर्व सिपाही सुभाष घिशिंग से ज्यादा नहीं थी। भारत सरकार तो अपनी स्थापित राजनयिक नीति की वजह से इसे झेल गई, लेकिन अपने तिब्बत का सपना देखते हुए उम्र बिता देने वाले दलाई लामा के भक्तों को यह हजम नहीं हुआ।

इसीलिए धर्मशाला और उसके पड़ोस में जो हुआ, वह हुआ। यह बात अलग है कि बीजिंग ओलंपिक के मुहाने पर तिब्बत समस्या की ओर अंतररराष्ट्रीय समुदाय का अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये खेल आयोजन के विरोध में धर्मशाला से ल्हासा मार्च की तैयारियां धरी की धरी रह गईं। रही सही कसर भारतीय पुलिस ने पूरी कर दी। विरोध मार्च के लिये निर्वासन में रह रहे तिब्बत युवा कांग्रेस व दूसरे चार संगठनों के करीब एक हजार लोग इसके लिये तैयार थे। इसकी तैयारियां निछले तीन माह से चल रहीं थीं। लेकिन तिब्बतियों के अध्यात्मिक नेता महामहिम दलाई लामा ने तिब्बत की आजादी की 49 वीं वर्षगांठ पर दिये अपने अभिाभाषण में सबका जोश ठंडा कर दिया। तिब्बति समाज में दलाई लामा की बात का सम्मान किया जाता है। लिहाजा सबकुछ बदल गया। बावजूद इसके तिब्बत युवा कांग्रेस के अध्यक्ष सेवांग रिंगजिन के नेतृत्व में तिब्बतियों का एक जत्था धर्मशाला से निकल चुका है।

लेकिन पुलिस ने साफ कर दिया है कि यह लोग कांगड़ा जिला की सीमा को पार नहीं कर पायेंगे। कांगड़ा के पुलिस अधीक्षक अतुल फुलझले ने बताया कि केन्द्र सरकार से उन्हें एक आदेश मिला है। लिहाजा मार्च को रोक लिया जायेगा। यह भारत व निवौसित तिब्बतियों के बीच ये अनुबन्ध का खुला उल्लंघन है। जिसमें भारतीय भूमि पर चीन का विरोध नहीं करने की बात है। यही वजह है कि मार्च को रोकन के आदेश प्रदेश सरकार ने भी जारी कर दिये हैं। उधर दलाई लामा ने भी चीन के प्रति अपने नरम रूख का इजहार करते ये कहा है कि तिब्बतियों को खेल आयोजन में कोई भी बाधा उत्पन नहीं करनी चाहिये। उन्होंने कहा है कि चीनी समाज पूरी उत्सुकता के साथ इंतजार कर रहा है। उन्होंने स्पष्ट किया कि वह शुरू से ही चीन में इसके आयोजन के हक में रहा॥ उन्होंने तिब्बतियों से इस खेल आयोजन में कोई बाधा उत्पन्न न की जाये। इसी बात से हम चीन समुदाय की सोच भी बदल सकते हैं। लेकिन दलाई लामा की यही बात अब तिब्बतियों के एक बड़े वर्ग को चुभने लगी है। लेकिन दर्लाईलामा इसी बात पर पिछले दिनों से चीन सरकार की अलोचनाओं के शिकार हो रहे थे , व चीन बार बार कह रहा था कि दलाई लामा आलोकिं में कोई बाधा उत्पन्न न करे। दरअसल दलाई लामा भी जानते हैं कि बदलते समय में विरोध एक सीमा में रह कर किया जा सकता है।

खुद दलाई लामा भी कह रहे हैं कि मैं जब भी तिब्बतियों की भलाई की बात अंतरराष्ट्रीय समुदाय से करता। , उन्हें बुरा लगाता है। लेकिन जब तक दोनों किसी नतीजे पर न पंचे तब तक यह खत्म नहीं होगा। मेरे कंधों पर जो जिम्मेदारी है उसे बखूबी निभाना है। सब जानते है कि मैं भी अपनी रिटायरमेंट की ओैर बढ़ रहा हूं। समय बदल रहा है। दलाई लामा ने कहा कि चीन प्रगति कर रहा है , ताकतवर राष्ट्र बन चुका है। इसका स्वागत किया जाना चाहिये। लेकिन उन्हें भी बदलना चाहिये। दलाई लामा की इसी नीति पर नई बहस छिड़ गई है।

दलाई लामा के रिटायर होने के साथ ही क्या तिब्बत का मुद्दा भी रिटायर हो जाएगा? यह सवाल दलाई लामा से तो क्या पूछा जाएगा, लेकिन भारत सरकार से पूछा जाना चाहिए कि जब धर्म गुरु खुद संधि और समर्पण की मुद्रा में हैं, तो हमें चीन के फटे में टांग अड़ाने की जरूरत क्यों महसूस हो रही है। अच्छे-खासे रिश्ते बेहतर हो रहे हैं और सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है, लेकिन हमें दलाई लामा की भक्ति के चक्कर में अपने देश का कबाड़ा करने की क्या जरूरत है और कब तक हम एक बूढ़े सफेद हाथी को ढोएंगे?
(धर्मशाला से बिजेंद्र शर्मा के साथ)


मनमोहन सरकार की मौत की मुनादी
शंभूनाथ सिंह
अमेरिका के साथ परमाणु करार का मुद््दा मनमोहन सरकार के गले की हड््डी बन गया है। इसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की राजनीतिक अदूरदर्शिता कहा जाए या उनकी सरकार की दुर्बलता माना जाए कि बिना सोचे-समझे या अपनी स्थिति का आकलन किए बगैर वह अंतरराष्ट्रीय मंच पर परमाणु करार करने की घोषणा कर आए और मसौदे पर अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ हस्ताक्षर भी कर आए। अब उसे अमली जामा पहनाने का मतलब अपनी सरकार की मौत की मुनादी करने जैसा हो गया है। करार से पीछे हटकर सरकार की मृत्यु को टाला जा सकता है, लेकिन ऐसा करके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनीतिक-कूटनीतिक साख की मौत को चकमा नहीं दिया जा सकता। देश की राजनीति में मनमोहन सिंह की जो भी हैसियत हो, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रधानमंत्री होने के नाते वह दुनिया के एक अरब लोगों का प्रतिनिधित्व करने के कारण बहुत ताकतवर शख्सीयत माने जाते हैं।

जिस अमेरिका में वह कभी नौकरी करते थे, वहां विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री के रूप में आतिथ्य ग्रहण करते समय उनका उत्साह और आत्मविश्वास चरम पर चला गया होगा और कुछ समय के लिए भूल गए होंगे कि वह जिस सरकार के मुखिया हैं, उसके शक्ति के स्रोत सरकार के भीतर नहीं, बाहर हैं। उन्होंने सोचा होगा कि अमेरिका के साथ परमाणु करार करके इतिहास बनाया जाए और देश पर तीन दशकों से लगे हुए अंतरराष्ट्रीय परमाणु प्रतिबंध को खत्म कर दिया जाए। 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था, तभी से परमाणु टेक्नोलॉजी और उसके ईंधन आपूर्ति वगैरह के मामले में भारत पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लागू हैं। क्योंकि भारत सीटीबीटी और एनपीटी जैसे अंतरराष्ट्रीय परमाणु समझौतों का हस्ताक्षरकर्ता देश नहीं है। इंदिरा गांधी ने अमेरिका और तथाकथित अभिजात्य अंतरराष्ट्रीय परमाणु क्लब के ताकतवर सदस्य देशों की परवाह किए बिना पोखरण में परीक्षण किया था। पोखरण का दूसरा परीक्षण अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में 1998 में हुआ।

उन्होंने भी बिना किसी की परवाह किए यह काम किया। मनमोहन सिंह को लगा होगा कि उनकी पार्टी की सर्वमान्य नेता इंदिरा गांधी के समय से जो परमाणु प्रतिबंध लगा हुआ है, यदि वह उनके हाथों से खत्म हो, तो यह श्रीमती गांधी के प्रति उनकी राजनीतिक श्रध्दांजलि भी होगी। लेकिन वह न तो इंदिरा गांधी और वाजपेयी जितने भाग्यशाली हैं और न ही राजनीतिक रूप से उतने ताकतवर। श्रीमती गांधी के अच्छे-बुरे फैसलों पर उस समय कांग्रेस पार्टी ही नहीं, पूरे देश में किसी की उंगली उठाने की हिम्मत नहीं थी। वाजपेयी भी गठबंधन की सरकार जरूर चला रहे थे, पर सर्वमान्य और ताकतवर नेता के रूप में जाने जाते थे। वाजपेयी की निर्भीकता भी सर्वविदित है। पोखरण्ा के परमाणु परीक्षण की तैयारियों की भनक तब रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस तक को नहीं लगी थी। इसीलिए पिछले दिनों संसद में संकटग्रस्त होने पर जब मनमोहन सिंह वाजपेयी को भारतीय राजनीति का भीष्म पितामह कहकर मदद के लिए पुकार रहे थे, तो भाजपा के नेता बैठे मुसकरा रहे थे।

भारत चूंकि अंतरराष्ट्रीय परमाणु अप्रसार संधियों का हस्ताक्षरकर्ता देश नहीं है और परमाणु शक्ति संपन्न भी है, इसलिए उसके साथ समझौता करने के लिए अमेरिका को अपने घरेलू कानूनों में ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय परमाण्ाु कानूनों में भी संशोधन करवाने के लिए ज्यादा मशक्कत करनी पड़ी है। फिर भी यदि यह करार नहीं हो पाया, तो यह बुश प्रशासन की विदेश नीति के इतिहास में विफलता के एक अध्याय के रूप में जुड़ जाएगा। अमेरिका भी इन दिनों चुनावी प्रक्रिया के दौर से गुजर रहा है। वहां के चुनावों में विदेश नीति एक बड़ा मुद््दा होती है। आठ साल से अमेरिकी सत्ता पर काबिज जॉर्ज बुश की विदेश नीति वहां वैसे भी विवाद और आलोचनाओं के घेरे में है। भारत के साथ परमाणु करार एक सकारात्मक तत्व हो सकता है, जिसकी संभावना लगातार क्षीण होती जा रही है। यही वजह है कि बुश प्रशासन का धैर्य टूट रहा है। लेकिन अमेरिकी जल्दबाजी से भारत में ऐसा लग रहा है कि परमाणु करार से अमेरिका का कोई बड़ा फायदा होने वाला है। दूसरा पक्ष यह भी उभर रहा है कि अमेरिकी दबाव में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारतीय हितों के साथ जरूर कोई न कोई समझौता कर रहे हैं, वरना इसके लिए सरकार को दांव पर लगाने की बात न करते। इस तरह परमाणु करार के दूसरे पक्ष गौण होते जा रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में भारतीय हितों को लेकर चल रही सौदेबाजी पूरी हो गई है और परमाणु ऊर्जा विभाग व विदेश मंत्रालय का प्रतिनिधिमंडल वहां से सुरक्षा उपायों के मसौदे को लेकर वापस आ चुका है। यह मसौदा भारत के अनुकूल बताया जा रहा है। सरकार को लगता था कि संयुक्त राष्ट्र की एक वैधानिक संस्था से भारतीय परमाणु हितों की संस्तुति हो जाने से देश में प्रसन्नता महसूस की जाएगी। लेकिन माकपा महासचिव कॉमरेड प्रकाश करात ने करार पर सरकार गिराने की धमकी दे दी। घबराई सरकार के विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अपने कदम पीछे खींचते हुए करार के लिए सरकार को कुरबान करने से मना कर दिया। मुखर्जी ने वाम दलों को खुश करने के लिए यह साफ कर दिया कि हम किसी समय सीमा में बंधकर काम नहीं कर सकते।

जबकि वह बखूबी जानते हैं कि यदि अगले तीन-चार महीनों में करार का अंतिम मसौदा अमेरिकी कांग्रेस के विचारार्थ नहीं पहुंचा, तो यह खटाई में पड़ जाएगा। अभी 45 देशों के परमाणु ईंधन आपूर्तिकर्ता देशों के संगठन से इस मसौदे को गुजरना बाकी है। वामपंथी यह जानते हैं कि यदि मसौदे को कुछ समय के लिए रोक लिया जाए, तो यह अपने आप ही बेमतलब हो जाएगा। इसलिए उन्होंने सरकार को बताया है कि मसौदे का ठीक से अध्ययन करने के लिए उन्हें कम से कम दो-तीन महीने का समय लगेगा। सवाल यह उठता है कि वाम दल अमेरिका के नाम पर अपने देश के हितों को स्थगित करने को क्यों तत्पर हैं?

इसकी वजह वाम राजनीति की अपने हितों की रक्षा करना है। वामपंथी जानते हैं कि अमेरिका से भारत का कोई समझौता हो जाता है, तो आसमान नहीं टूट पड़ेगा। लेकिन वे यह भी जानते हैं कि शीतयुध्द का दौर खत्म होने के बाद अमेरिका को यदि कोई अपना दुश्मन नंबर एक मानता है, तो वह है अंतरराष्ट्रीय मुसलिम समुदाय।

इसलिए यदि विकट अमेरिकी विरोध के जरिये देश के बीस करोड़ मुसलिम मतदाताओं को अपना
बंधक बनाया जा सकता है, तो यह घाटे का सौदा नहीं है। उन्होंने करार पर राजनीति करके मुसलमानों की नजरों में कांग्रेस को भी गिराने का काम किया है। एक कॉमरेड की व्यंग्यात्मक टिप्पणी थी कि भारतीय मुसलमान मानें या न मानें, पर आज की तारीख में अमेरिका के दुनिया में दो ही विश्वसनीय शत्रु बचे हैं। एक, अल कायदा और दूसरा, भारत की वामपंथी पार्टियां।
(शब्दार्थ)

कालाहांडी से डर गए 'युवराज'?
असगर वजाहत
राहुल गांधी शासक दलों के एक घटक के महामंत्री हैं। इन्हें मीडिया प्रेमवश युवराज कहकर संबोधित करता है। वह सोनिया गांधी के सुपुत्र हैं। इसलिए यह बात समझ में नहीं आती कि उन्हें कालाहांडी के आदिवासियों की समस्याओं को समझने के लिए वहां जाने की जरूरत क्यों आन पड़ी।

क्या वहां की खबरें उन तक नहीं पहुंचतीं? या उन ख़बरों पर राहुल गांधी को विश्वास नहीं है? वह अपनी पार्टी के किसी विश्वसनीय आदमी को कालाहांडी भेजकर वहां के लोगों की समस्याओं की जानकारी क्या नहीं ले सकते थे? या उनके पास ऐसा विश्वसनीय कोई आदमी नहीं है? क्या यहां के मीडिया पर उन्हें विश्वास नहीं है? क्या वह सरकारी-अर्ध्दसरकारी संस्थाओं के आंकड़ों पर विश्वास नहीं करते? क्या कालाहांडी कोई ऐसी दुर्गम जगह है, जहां के बारे में अब तक देश को कुछ पता नहीं? फिर वह कालाहांडी क्यों गए? क्या सिर्फ इसलिए कि उनके पिता जी और दादी जी भी वहां गए थे?

अगर कालाहांडी जाने की यही वजह है, तो उनका वहां न जाना ही उचित होता, क्योंकि उनके पिताजी ने, और उससे पहले उनकी दादी जी ने कालाहांडी के गरीब आदिवासी लोगों से बहुत से वायदे किए थे। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि कालाहांडी के लोग राहुल गांधी से उन वायदों की चर्चा करने लगे।

यह भी पता चला है कि उन्होंने कालाहांडी में किसी आदिवासी घर में खाना खाया। इससे पहले वह बुंदेलखंड में भी एक दलित परिवार के यहां खाना खा चुके हैं। दलितों और आदिवासियों के घर खाना खाकर वह आखिर क्या साबित करना चाहते हैं? क्या वह दलितों या आदिवासियों के बारे में जानना चाहते हैं? क्या वह खान-पान की इनकी आदत पर कोई किताब लिख रहे हैं? सवाल यह है कि आदिवासी के घर भोजन करके वह उनकी कौन-सी समस्या का समाधान कर देंगे?

आज देश के दुर्गम से दुर्गम ग्रामीण क्षेत्र के बारे में सभी जानकारियां उपलब्ध हैं। अगर ज्यादा जानकारी चाहिए, तो पी. साईनाथ जैसे दिग्गज पत्रकार से बात की जा सकती है, जिन्होंने अपना जीवन ही वंचितों की बेहतरी के लिए समर्पित कर दिया। लिहाजा राहुल गांधी को दुर्गम इलाकों में जाकर अपना समय बरबाद करने की कोई जरूरत नहीं थी। बेहतर होता कि वह अपने बहुमूल्य समय का उपयोग देश की गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, जड़ता और धर्मांधता समाप्त करने में लगाते। इससे इस देश का कुछ कल्याण होता। लेकिन इसके बजाय उन्हें रोड शो करने की सलाह दी जाती है और वह वैसा ही करते हैं। जबकि ऐसे रोड शो का कोई फायदा नहीं। चुनावों में इसका लाभ उनकी पार्टी को नहीं मिला।

उनके ऐसे दौरों से उलटे परेशानियां ही ज्यादा होती हैं। मसलन, अगर उनकी उड़ीसा यात्रा को देखें, तो कालाहांडी और उस इलाके के उनके दौरे ने स्थानीय प्रशासन के लिए परेशानियां ही खड़ी कर दीं। प्रशासन जनता को छोड़ कर उनकी सुरक्षा और सुविधा का बंदोबस्त करने में जुटा रहा। न जाने ऐसे मामले में हमारे नेताओं को कभी कोई अपराध बोध क्यों नहीं होता। वे यह क्यों महसूस नहीं कर पाते कि उनकी सुविधा और सुरक्षा के कारण बहुत से लोगों का समय बरबाद होता है, वे अपनी जिम्मेदारी से विमुख होते हैं।

राहुल गांधी को जानना चाहिए कि इस देश की समस्याएं जग जाहिर हैं। यह सब कुछ जानने के लिए दलित, आदिवासी परिवारों के साथ खाना खाने या चुनावी रोड शो करने की जरूरत नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस के राजनीतिक नेतृत्व में उन समस्याओं से जूझने की इच्छा है? पूरा देश जानता है कि हमारे समाज में अमीरों और गरीबों के बीच बहुत बड़ा अंतर आ गया है। आर्थिक मजबूती की खुशफहमी में हाशिये केलोगों के दुखों की अनदेखी हो रही है। यहां लोकतंत्र की परंपरा कितनी भी मजबूत क्यों न हो, सामाजिक न्याय का रिकॉर्ड उतना अच्छा नहीं है। यह परिदृश्य भयावह और अमानवीय है। हमारी नीतियां धनवानों की ओर झुकी हुई हैं।

यही कारण है कि देश में जिस तेजी से खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, उसी तीव्रता से भुखमरी, अकाल, शोषण, आत्महत्या, बेरोजगारी भी बढ़ रही है। क्या राहुल गांधी और उनकी पार्टी के पास इसका कोई इलाज है? जाहिर है, इन समस्याओं का समाधान सिर्फ रोड शो से या केंद्र में सरकार बन जाने से नहीं होगा। कांग्रेस के युवराज को समझना चाहिए कि गरीब के घर खाना खा लेने, उन्हें माला समर्पित कर देने, बच्चों को गोद में उठा लेने, सिर पर टोकरा उठा लेने जैसे नुसखे अब पुराने पड़ गए हैं। उन्हें समझना चाहिए कि देश की मुख्य समस्याओं से आंखें चुराने के नतीजे बहुत भयानक निकलते हैं। सांप्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद के दानव आज बहुत विकराल हो गए हैं। कहीं ये पूरे देश को निगल न लें!
(शब्दार्थ)

Wednesday, March 12, 2008

समाजवादी जॉर्ज पर इजरायली मिसाइल


समाजवादी जॉर्ज पर इजरायली मिसाइल
आलोक तोमर
ईमानदारी की प्रतिमा और समाजवाद के प्रतीक कहे जाने वाले जॉर्ज फर्नांडीज पर अलग-अलग तरीकों और अलग-अलग कोनों से वार होते ही रहे हैं, लेकिन इस बार हमला मिसाइल का है। मिसाइल का यह हमला अरब सागर के किनारे से निकल कर गंगा के किनारे बिहार में जा कर राजनीति करने वाले जॉर्ज फर्नांडीज का बिहार में अस्तित्व साफ कर देने वाला है। इसीलिए नहीं कि वास्तव में उन्होंने रिश्वत ली थी, जैसा कि आरोप है, बल्कि इसीलिए कि यह आरोप उन पर लगा, उन्होंने नैतिकता का अभिनय करते हुए फटाक से मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया और कुछ दिन बाहर रहने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की कृपा से वापस देश के रक्षा मंत्री बन गए।

जॉर्ज फर्नांडीज और उनकी सहेली जया जेटली के अलावा इस कांड में और भी अभियुक्त हैं और इनमें से सबसे चौंका देने और चमका देने वाले नाम नौसेना के अध्यक्ष रहे एडमिरल सुशील कुमार नंदा, उनके बेटे सुरेश नंदा और उनके भी बेटे संजीव नंदा के हैं। संजीव नंदा की किस्मत तो कुछ ज्यादा ही खराब है। वे अपने जन्मदिन से ठीक पहले हुई एक पार्टी के बाद देर रात हथियारों की दलाली से हुई काली कमाई से खरीदी गई बीएमडब्लू कार से आठ लोगों को कुचल कर मार डालने के मामले में अदालत का सामना कर ही रहे थे और 75 लाख की जमानत पर बाहर थे कि आयकर अधिकारियों को रिश्वत देने के आरोप में फिर अंदर पहुंच गए।

जॉर्ज फर्नांडीज चूंकि बडे अादमी हैं इसीलिए अभी तक उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई और उन तक हथकड़ियां पहुंचना तो दूर, यह लिखने तक उनसे किसी किस्म की कोई सरकारी पूछताछ भी नहीं की गई। सीबीआई इस दलाली की जांच कर रही है और उसकी शब्दावली में प्राथमिक रपट तैयार हो चुकी है और एफआईआर दाखिल होना बाकी था। 9 अगस्त, 2006 को एफआईआर ही दाखिल कर दी गई। मजदूरों और किसानों के नेता और समाजवाद के स्वयंभू प्रवक्ता और देश के भूतपूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज देश की नौसेना के भूतपूर्व अध्यक्ष सुशील कुमार नंदा के साथ भ्रष्टाचार और षड़यंत्रपूर्वक देश का पैसा हजम करने के अभियुक्त हैं।

जॉर्ज बूढ़े हो चुके हैं और हो सकता है कि अगला लोकसभा चुनाव वे इसी बहाने न लड़ने का फैसला करें कि उन पर इल्जाम है। हालांकि राजनीति में इस बात की संभावना बहुत कम होती है। आखिर शिबू सोरेन से ले कर शहाबुद्दीन और पप्पू यादव तक चुनाव लड़ते ही रहे हैं और जीतते भी रहे हैं। लेकिन जॉर्ज फर्नांडीज ने राजनीति में और खास तौर पर अपने जनता दल यूनाइटेड में नेतृत्व का नैतिक अधिकार सिरे से खो दिया है। उसे दोबारा अर्जित करना असंभव नहीं तो, दुर्लभ जरूर है।

इस घपले की जांच के लिए जनवरी, 2003 में न्यायमूर्ति एस एन फूकन के नेतृत्व में एक आयोग बैठा था और उसी की रपट पर सीबीआई अमल कर रही है। इसके पहले इस आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वेंकटस्वामी बनाए गए थे, मगर अज्ञात कारणों से उन्हें हटा दिया गया। जॉर्ज फर्नांडीज जाहिर है कि दो न्यायमूर्तियों और देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी के घेरे में हैं और यह घेरा इसीलिए और जटिल हो जाता है क्योंकि जब बराक मिसाइलें खरीदी जा रही थीं, तब सेना के शोध और विकास संगठन डी आर डी ओ के मुखिया एपीजे अब्दुल कलाम थे। उन्होंने इस खरीद का विरोध किया था। विचित्र बात यह है कि जिस व्यक्ति को देश के सर्वोच्च पद पर बिठाने में भाजपा दूसरी बार भी विचार नहीं किया, उसी की राय को सीबीआई के दस्तावेजों में अब तक शामिल नहीं किया गया है। वैसे यह पूरा मामला ज्यादा शर्मनाक इसीलिए भी है क्योंकि देश का रक्षा मंत्री, देश का नौसेना अध्यक्ष और देश के एक भूतपूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह का नाम भी इसमें आता रहा है। नटवर सिंह कांग्रेस में जरूर थे, लेकिन जॉर्ज फर्नांडीज का कहना है कि बराक मिसाइल कंपनी के कारोबारी दूतों से उन्हें नटवर सिंह ने ही मिलवाया था। उनका यह भी कहना है कि मैं तो सबसे मिलने के लिए तैयार रहता हूं और मेरे घर के दरवाजे कभी बंद नहीं होते। इस भोलेपन पर फिदा होने का मन करता है। गनीमत है कि जॉर्ज फर्नांडीज महिला नहीं हुए, वरना सनातन गर्भवती रहते!

सीबीआई की एफआईआर के अनुसार अक्टूबर, 1998 में सुरेश नंदा एक एजेंट की हैसियत से जया जेटली और समता पार्टी के कोषाध्यक्ष आर के जैन से जॉर्ज फर्नांडीज के बंगले पर ही मिले थे, जिसके दरवाजे कभी बंद नहीं होते। एफआईआर के अनुसार सुरेश नदां ने जैन को एक करोड़ रुपए दिए थे, जो उसने मंजूर भी किया है। लेकिन एफआईआर के अनुसार ये पैसे जॉर्ज फर्नांडीज को बराक के हित में खुश करने के लिए उनकी सहेली जया जेटली को सौंप दिए गए थे। यहां तक तो एफआईआर में वही लिखा है, जो तहलका के खुलासे में आ चुका था। एफआईआर में नई बात यह है कि एक वरिष्ठ रक्षा अधिकारी द्वारा 2 नवंबर, 1998 को जॉर्ज फर्नांडीज को लिखा गया एक पत्र मौजूद है, जिसमें बराक मिसाइलों को नौसेना के बेड़े में शामिल नहीं करने की अपील की गई थी।

26 नवंबर, 1998 को नौसेना मुख्यालय में रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार के तौर पर भी काम कर रहे श्री कलाम को पत्र लिख कर पूछा कि बराक मिसाइलों के आयात में इतनी देरी क्यों हो रही है? इसका जवाब श्री कलाम ने 20 जनवरी, 1999 को दिया और उसमें लिखा था कि 3 अक्टूबर, 1997 को ही सुरक्षा मामलों संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक में हुए फैसले के हिसाब से बेहतर मिसाइल तंत्र प्राप्त करने का फैसला किया जाएगा। इसमें यह भी कहा गया था कि त्रिशूल मिसाइलें भारत बना रहा है और उससे बहुत उम्मीदें हैं। हालांकि अब त्रिशूल परियोजना रद्द कर दी गई है। कलाम के जवाब के बावजूद जॉर्ज फर्नांडीज के दोस्त दलालों के दबाव में नौसेना मुख्यालय ने फिर लिखा कि फैसला होता रहेगा, लेकिन मोल भाव समिति बना कर उसकी बैठकें शुरू कर देनी चाहिए।

बेटा दलाल था और पिता जी नौसेना के अध्यक्ष थे। एडमिरल सुशील नंदा ने 15 जनवरी, 1999 को प्रस्ताव रखा कि कम-से-कम दो मिसाइलों का आयात कर ही लिया जाए। 23 जून, 1999 को श्री कलाम ने इस प्रस्ताव को बेहुदा बताया। कलाम का तर्क था कि अब तक आयात किए गए रक्षा उपकरणों में से पचास प्र्रतिशत बेकार साबित हुए हैं और अगर बराक इजरायल से आयात की ही जाती है, तो उसके पुर्जों के लिए भी भारत को इजरायल के सामने बंधक बनना पड़ेगा। मतलब था-साफ इनकार। एडमिरल नंदा कहां मानने वाले थे? उन्होंने 25 जून, 1999 को ही यानी सिर्फ अड़तालीस घंटे में कलाम से मुलाकात की और नया प्रस्ताव दिया कि नौसेना मुख्यालय ने 1996 में ही बराक मिसाइलों को आयात करने की अनुमति दे दी थी। उस समय रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव थे और उन्होंने इस संबंध में भेजे गए पत्र का जवाब भी नहीं दिया था। कलाम से मिल कर नंदा जॉर्ज फर्नांडीज के पास पहुंचे और 28 जून, 1999 को उन्होंने कलाम की राय टाल कर बराक के आयात की अनुमति दे दी। अगर आप गौर करें तो कुल पांच दिनों में चार सौ करोड़ का यह घपला संभव हो गया।

तत्कालीन रक्षा सचिव टी आर प्रसाद ने इसके बावजूद 30 अगस्त, 1999 को माननीय रक्षा मंत्री को पत्र लिखा और याद दिलाया कि मंत्रिमंडलीय समिति ने मिसाइलों के आयात को स्थगित करके इसका फैसला अगली सरकार के लिए छोड़ दिया है और समिति की जानकारी के बगैर कोई निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए। स्वाभाविक तौर पर जॉर्ज फर्नांडीज भी इस समिति के सदस्य थे और तकनीकी रूप से उन्हें भी इसकी जानकारी थी। फिर 2 मार्च, 2000 को मंत्रिमंडलीय समिति ने यह सौदा मंजूर कर दिया और मंजूरी के इस फैसले ने तीन लाइन में श्री कलाम की आपत्तियों को खारिज भी कर दिया। फटाफट मोल भाव हुआ और पहली सात बराक मिसाइलों को खरीदने का फैसला 23 अक्टूबर, 2000 को हो गया। यह सौदा आठ अरब रुपए का था। आर के जैन का बयान कहता है कि इसमें से तीन प्रतिशत जॉर्ज फर्नांडीज और जया जेटली के पास गया और आधा प्रतिशत उसे मिला। अदायगी नौसेना के अध्यक्ष के बेटे सुरेश नंदा के हाथ से हुई थी।

इस सौदे में लेन-देन भी कम संदिग्ध नहीं है। मोटरोन-टरबियोन नाम की एक कंपनी ने सुरेश नंदा की कंपनी डायनाट्रोल सर्विसेज के खते में मोटी रकम जमा की। यह रकम निकल कर मैग्नन इंटरनेशनल ट्रेडिंग में चली गई और वहां से निकली तो यूरेका सेल्स कॉरपोरेशन के खाते में पहुंच गई। यूरेका सेल्स कॉरपोरेशन के मालिक कोई सुधीर चौधरी हैं, जो नंदा के रिश्तेदार भी हैं और व्यापारिक सहयोगी भी। कलाम के हटने के बाद भी डीआरडीओ बराक आयात का विरोध करता ही रहा। त्रिशूल परियोजना के भूतपूर्व परियोजना प्रबंधक खुद बराक का प्रदर्शन देखने इजरायल गए थे और उन्होंने भी विरोध में एक पत्र लिखा। लेकिन पैसा आ चुका था, सौदा हो चुका था और खुद रक्षा मंत्री की मेहरबानी थी इसीलिए सौदे को कोई रोक नहीं सका। जॉर्ज फर्नांडीज जब सीबीआई के सामने जवाब देने बैठेंगे, तो आज से सुन लीजिए कि भूल जाने का नाटक करेंगे क्योंकि यह नाटक वे एक बार मेरे साथ भी कर चुके हैं। दाऊद इब्राहीम से मेरे दुबई में हुए इंटरव्यू का टेप वे मेरे ऑफिस आ कर ले कर गए थे और जब वापस मांगा, तो उन्होंने पूछा-कौन सा टेप? पता नहीं उस टेप का सौदा कितने में हुआ था।

Tuesday, March 11, 2008

हॉकी के बंटाधार के लिए कौन जिम्मेदार?


हॉकी के बंटाधार के लिए कौन जिम्मेदार?
संजय शर्मा
अगर हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद 100 साल जी गए होते, तो हॉकी को रसातल में जाते देखकर न जाने उन पर क्या बीतती। हालांकि वर्ष 1979 में जब उनका निधन हुआ, तब वह मांट्रियल ओलंपिक में भारत का बुरा प्रदर्शन देख चुके थे। लेकिन 80 साल में यह पहली बार है, जब भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाई। चिली में फाइनल में ब्रिटेन ने उसे 2-0 से पीट दिया। यानी वर्ष 1928 के बाद पहली बार होगा, जब आठ बार स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम ओलंपिक में नहीं होगी। जाहिर है, इस हार पर पूरे भारत में हायतौबा मची हुई है।

भारत की खोज में निकले राहुल गांधी ने चयन में पक्षपात को जिम्मेदार बताया है, तो कुंभकर्णी नींद में पड़े खेल मंत्रालय के मौजूदा मंत्री मणिशंकर अय्यर ने लंबी रणनीति बनाने की बात कही है। कुछ सांसदों ने अफसोस जताया है, तो कुछ पूर्व ओलंपियनों ने ठीकरा अध्यक्ष केपीएस गिल पर फोड़ा है। एक समय अध्यक्ष के चुनाव में गिल के खिलाफ खम ठाेंकने वाले उपाध्यक्ष नरेंद्र बतरा की अंतरात्मा अलसुबह जाग गई और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। पूर्व ओलंपियन जलालुद््दीन साहब ने बताया कि हॉकी वालों में एक जुमला खूब चलता है कि गिल साहब जो जिम्मेदारी लेते हैं, उसे खत्म करके ही दम लेते हैं। पहले पंजाब से आतंक को खत्म किया, अब हॉकी को खत्म करेंगे। गिल साहब का कहना है कि इस्तीफा नहीं देंगे
हॉकी को वक्त चाहिए। यह कोई इन्स्टेंट कॉफी मशीन नहीं है। हालांकि वह काफी वक्त ले चुके हैं।
दरअसल सचाई यह है कि कभी हिटलर तक को मोहित करने वाली भारतीय हॉकी की सफलता के जमाने में इसके बहुत माई-बाप थे, आज भी हैं। लेकिन इन सबने इसकी ठीक से परवरिश नहीं की। वर्ष 1975 का वर्ल्ड कप जब हम जीते थे, तब वह टीम भारतीय ओलंपिक संघ ने भेजी थी, क्योंकि तब हॉकी फेडरेशन में झगड़ा चल रहा था।
विडंबना देखिए कि जब हमारे यहां छीना-झपटी का खेल चल रहा था, तब दूसरे देश इस खेल में भारत-पाकिस्तान के दबदबे को खत्म करने के लिए इसे एस्ट्रो टर्फ पर लाकर कलात्मक की जगह 'पावर गेम' बनाने में जुटे थे। ऑस्ट्रेलिया ने जिस भारतीय शख्स को वर्ष 1971 के आसपास अपनी टीम का कोच बनाया था, उसे हमारे फेडरेशन वालों ने कभी घास नहीं डाली। जहां यूरोपीय हॉकी को एस्ट्रो टर्फ पर लाने वाले थे, वहीं कंगारुओं ने इस भारतीय शख्स की मदद से एशियाई और यूरोपीय हॉकी को मिलाकर अपनी हॉकी को 'खच्चर' बना डाला। उसके बाद हॉकी में आस्ट्रेलिया की ताकत दुनिया ने देखी।
आखिरी बार हम वर्ष 1975 में क्वालालंपुर में घास के मैदान पर विश्व चैंपियन बने थे। और मॉस्को में पॉलीग्रास (यह भी कृत्रिम घास थी) पर ताकतवर मुल्कों की गैरमौजूदगी में हमने ओलंपिक जीता था। लेकिन हमारी हॉकी ने वर्ष 1976 के मांट्रियल ओलंपिक में मानो कफन ओढ़ लिया। भले ही लोग कहें कि इस पर आखिरी कील अब ठुकी है, लेकिन इसका एक ठोस पहलू यह भी है कि वर्ष 1983 में कपिल देव की टीम के इंगलैंड में विश्व कप क्रिकेट जीतने के साथ ही इसका पतन शुरू हो गया था।
हॉकी को रसातल में ले जाने का जिम्मा भले ही हॉकी फेडरेशन का हो, लेकिन कुछ बातें हैं, जिन पर गौर करें, तो हॉकी में फैली हताशा समझी जा सकती है। इसकी एक वजह तो क्रिकेट का ब्रांड बनना या उसका एकाधिकार ही है। फिर हॉकी के राष्ट्रीय खेल होने और वेस्ट इंडीज क्रिकेट के पराभव का भी विश्लेषण करें, तो बात आसानी से समझ में आ जाएगी। हर कोई जानता है कि एकाधिकार या प्रभुत्व ऐसे बरगद हैं, जिनके नीचे कोई दूसरा वृक्ष पनप नहीं सकता। क्रिकेट रूपी बरगद ब्रांड के नीचे हॉकी समेत अन्य सभी खेल दबते चले गए। हॉकी में 1975 की पराजय के दस साल के भीतर क्रिकेट भारत में ब्रांड बनने लगा था।
यह जानकर हैरत होगी कि वर्ष 1983 की विजेता टीम की अगवानी और सम्मान कार्यक्रम कराने के लिए लता मंगेशकर ने बीसीसीआई के लिए पैसे जुटाए थे, क्योंकि क्रिकेट को भारत सरकार से वित्तीय सहायता नहीं मिलती थी और बीसीसीआई केपास इतने पैसे नहीं थे। वैसे यह क्रिकेट के लिए शुभ ही रहा।
एक अन्य बिंदु है वेस्ट इंडीज क्रिकेट का पराभव, जिससे हम भारतीय हॉकी की दुर्गति को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। वेस्ट इंडीज की क्रिकेट अचानक निचली पायदान पर नहीं गई। इसकी प्रक्रिया तभी शुरू हो गई थी, जब यह टीम शिखर पर थी। तब उन 15-20 सालों में वहां के बच्चे-किशोर क्रिकेट के बजाय बास्केटबॉल को अपना रहे थे। जानते हैं क्यों? उन्हें बगल में बसे अमेरिका में अपना भविष्य सुरक्षित नजर आया। वहां बास्केटबॉल में इफरात पैसा था और इस मामले में कंगाल वेस्ट इंडीज बोर्ड अपनी कामयाबी के मद में इतना चूर था कि वह जान ही नहीं पाया कि उसके पैरों तले जमीन खिसक चुकी है। नतीजा यह हुआ कि जिन प्रतिभाशाली लड़कों में लॉयड, होल्डिंग, गार्नर, रिचड््र्स बनने के गुण थे, वे बास्केटबॉल में नामी हो गए।
हमें यह समझना होगा कि किसी भी देश में बेहतरीन मेधा सीमित ही होती है और यह उसके तंत्र पर निर्भर करता है कि वह विभिन्न क्षेत्रों या खेलों में अग्रणी बनने के लिए उसका उपयोग समान रूप से कैसे करता है। कहना न होगा कि इस मोरचे पर हमारा प्रबंधन तंत्र बुरी तरह से विफल रहा है। विभिन्न खेल संघों पर राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के कब्जे ने हालात को बदतर बनाया है। ऐसे में, स्वाभाविक रूप से हॉकी समेत तमाम खेलों में पेशेवर नजरिये की कमी देखी गई।
वर्ष 1983 में क्रिकेट में जीत और 1976 में मांट्रियल ओलंपिक की हार के नतीजों के संभावित परिणामों का हमारी सरकार और भारतीय ओलंपिक संघ सही आकलन नहीं कर पाए। उनमें शायद इतनी दूरदर्शिता थी भी नहीं। क्रिकेट में जीत से लोगों को ऐसा नशा मिला, जिसे बढ़ना ही था। इसमें ग्लैमर आया, पैसा घुसा, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की क्रांति के बाद यह छोटे शहरों और कसबों में पसर गया। नतीजा यह हुआ कि जो यूपी, बिहार (झारखंड), पंजाब, हरियाणा हॉकी, फुटबॉल, कुश्ती, बॉलीवॉल और बास्केटबॉल की नर्सरी होते थे, आज वहां के कसबों-गांवों की दिमागी और शारीरिक तौर से मजबूत बाल-किशोर प्रतिभाएं क्रिकेट की सप्लाई लाइन बन गई हैं। अगर सरकार और खेल संगठनों ने सभी क्षेत्रों में इस सप्लाई लाइन के समान वितरण के गणित को नहीं समझा, तो यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं होनी चाहिए कि देश से दूसरे खेलों का वजूद मिटते देर नहीं लगेगी।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)

Monday, March 10, 2008

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देशभक्तों का महान संगठन ?

प्रभाष जोशी
कल आपने देखा कि जिसे गाना था उसने वंदेमातरम् गाया जिसे नहीं गाना था उसने नहीं गाया. जिन राज्यो में भारतीय जनता पार्टी का राज है और जहां वह दूसरी पार्टी के साथ राज कर रही है, वहां की सरकारों ने वंदेमातरम् गाने का अनिवार्य कर दिया था. लेकिन जहां कॉग्रेस और दूसरी पार्टियों का राज है वहां इसके गाने न गाने की छूट थी. जिन भाजपाई सरकारों ने इसे अनिवार्य किया वे भी दावा नहीं कर सकतीं कि जो मुसलमान, ईसाई और सिख इसे गाना नहीं चाहते थे उनसे भी वंदेमातरम् गवा लिया गया है. आदमी अगर ऐसा ही मशीनी होता और गाना रेकॉर्ड बजवाने जैसा मैकेनिकल काम होता तो न तो महान गीत होते न महान संगीत. अपनी मां, मातृभूमि और देश से आप सहज और स्वैच्छिक प्रेम करते हैं. कोई करवा नहीं सकता. सहजता और स्वैच्छिकता संस्कृति की महान उपलब्धियों की कुंजी है. जो राष्ट्र अपने नागरिकों की सहजता और स्वैच्छिकता का आदर करता है और उन पर कोई चीज़ थोप कर उन्हें मजबूर नहीं करता सभ्यता और संस्कृति में वह उतना ही विकसित होता है.

कोई प्रेरित व्यक्ति जितने बड़े काम कर सकता है मजबूर आदमी नहीं कर सकता है. अगर इस सत्य को आप समझते हैं तो लोगों को प्रेरित करेंगे, जो वे मन से और सहजता से कर सकते हैं उसे करने की छूट देंगे और इस स्वतंत्र और स्वैच्छिक वातावरण में जो प्राप्त होगा उसका गौरव गान करेंगे. वंदेमातरम् के राष्ट्रगीत होने की जैसे भी और जैसी भी मनाई गई शताब्दी पर अगर देशप्रेम, शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रति कृतज्ञता और समर्पण को ऊंचा उठा देने वाली भावना सर्वव्यापी नहीं हुई तो दोष उन्हीं का है जो इसका गाना अनिवार्य करना चाहते थे. यह पहली बार नहीं हुआ है कि मुसलमानों के एक तबके ने वंदेमातरम् के गाने को इस्लाम विरोधी कहा हो. वैसे ही यह भी पहली बार नहीं हुआ है कि संघ परिवारियों ने इसके गाने को मुसलमानों के लिए अनिवार्य करने का हल्ला मचाया हो. मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच यह झगड़ा आज़ादी के बहुत पहले से चला आ रहा है. आज़ादी के आंदोलन की मुख्यधारा तो कॉग्रेस की ही थी और उसी ने वंदेमातरम् को बाक़ायदा अपनाया भी. लेकिन उसी ने इसे गाते हुए भी इसका गाना स्वैच्छिक रखा. कॉग्रेस का सन १९३७ के अधिवेशन का प्रस्ताव इसका प्रमाण है. उसी ने इसे स्वतंत्र लोकतांत्रिक गणराज्य भारत का राष्ट्रगीत भी बनाया.


अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के लिए वंदेमातरम् का गाना अनिवार्य करने की मांग संघ परिवारियों की ही रही है. ये वही लोग हैं जिनने उस स्वतंत्रता संग्राम को ही स्वैच्छिक माना है जिसमें से वंदेमातरम् निकला है. अगर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए क़ुरबान हो जाना ही देशभक्ति की कसौटी है तो संघ परिवारी तो उस पर चढ़े भी नहीं, खरे उतरने की तो बात ही नहीं है. लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि राष्ट्रभक्ति का कोई प्रतीक स्वैच्छिक हो. तो फिर आज़ादी की लड़ाई के निर्णायक ”भारत छोड़ो आंदोलन” के दौरान वे खुद क्या कर रहे थे? उनने खुद ही कहा है- ”मैं संघ में लगभग उन्हीं दिनों गया जब भारत छोड़ो आंदोलन छिड़ा था क्योंकि मैं मानता था कि कॉग्रेस के तौर-तरीक़ों से तो भारत आज़ाद नहीं होगा. और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत थी.” संघ का रवैया यह था कि जब तक हम पहले देश के लिए अपनी जान क़ुरबान कर देने वाले लोगों का मज़बूत संगठन नहीं बना लेते, भारत स्वतंत्र नहीं हो सकता. लालकृष्ण आडवाणी भारत छोड़ो आंदोलन को छोड़कर करांची में आरम-दक्ष करते देश पर क़ुरबान हो सकने वाले लोगों का संगठन बनाते रहे. पांच साल बाद देश आज़ाद हो गया. इस आज़ादी में उनके संगठन संघ- के कितने स्वयंसेवकों ने जान की क़ुरबानी दी? ज़रा बताएं.

एक और बड़े देशभक्त स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी हैं. वे भी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बच्चे नहीं संघ कार्य करते स्वयंसेवक ही थे. एक बार बटेश्वर में आज़ादी के लिए लड़ते लोगों की संगत में पड़ गए. उधम हुआ. पुलिस ने पकड़ा तो उत्पात करने वाले सेनानियों के नाम बताकर छूट गए. (दस्तावेजी प्रमाण के लिए यहां देखें) आज़ादी आने तक उनने भी देश पर क़ुरबान होने वाले लोगों का संगठन बनाया जिन्हें क़ुरबान होने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि वे भी आज़ादी के आंदोलन को राष्ट्रभक्ति के लिए स्वैच्छिक समझते थे.

अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को देशभक्तों का महान संगठन कहे और देश पर जान न्योछावर करने वालों की सूची बनाए तो यह बड़े मज़ाक का विषय है. सन् १९२५ में संघ की स्थापना करने वाले डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार को बड़ा क्रांतिकारी और देशभक्त बताया जाता है. वे डॉक्टरी की पढ़ाई करने १९१० में नागपुर से कोलकाता गए जो कि क्रांतिकारियों का गढ़ था. हेडगेवार वहां छह साल रहे. संघवालों का दावा है कि कोलकाता पहुंचते ही उन्हें अनुशीलन समिति की सबसे विश्वसनीय मंडली में ले लिया गया और मध्यप्रांत के क्रांतिकारियों को हथियार और गोला-बारूद पहुंचाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की थी. लेकिन ना तो कोलकाता के क्रांतिकारियों की गतिविधियों के साहित्य में उनका नाम आता है न तब के पुलिस रेकॉर्ड में. (इतिहासकारों का छोड़े क्योंकि यहां इतिहासकारों का उल्लेख करने पर कुछ को उनकी निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करने का अवसर मिल सकता है) खैर, हेडगेवार ने वहां कोई महत्व का काम नहीं किया ना ही उन्हें वहां कोई अहमियत मिली. वे ना तो कोई क्रांतिकारी काम करते देखे गए और ना ही पुलिस ने उन्हें पकड़ा. १९१६ में वे वापस नागपुर आ गए.


लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद वे कॉग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों में काम करते रहे. गांधीजी के अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में भाग लेकर ख़िलाफ़त आंदोलन के वे आलोचक हो गए. वे पकड़े भी गए और सन् १९२२ में जेल से छूटे. नागपुर में सन् १९२३ के दंगों में उनने डॉक्टर मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया. अगले साल सावरकर का ”हिन्दुत्व” निकला जिसकी एक पांडुलिपी उनके पास भी थी. सावरकर के हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए ही हेडगेवार ने सन् १९२५ में दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की. तब से वे निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन और राजनीति में रहे लेकिन संघ को इन सबसे अलग रखा. सारा देश जब नमक सत्याग्रह और सिविल नाफ़रमानी आंदोलन में कूद पड़ा तो हेडगेवार भी उसमें आए लेकिन राष्टीय स्वयंसेवक संघ की कमान परांजपे को सौंप गए. वे स्वयंसेवकों को उनकी निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने देते थे लेकिन संघ को उनने न सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधियों में लगाया न अहिंसक असहयोग आंदोलनों में लगने दिया. संघ ऐसे समर्पित लोगों के चरित्र निर्माण का कार्य कर रहा था जो देश के लिए क़ुरबान हो जाएंगे. सावरकर ने तब चिढ़कर बयान दिया था, ”संघ के स्वयंसेवक के समाधि लेख में लिखा होगा- वह जन्मा, संघ में गया और बिना कुछ किए धरे मर गया.”

हेडगेवार तो फिर भी क्रांतिकारियों और अहिंसक असहयोग आंदोलनकारियों में रहे दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर तो ऐसे हिन्दू राष्ट्रनिष्ठ थे कि राष्ट्रीय आंदोलन, क्रांतिकारी गतिविधियों और ब्रिटिश विरोध से उनने संघ और स्वयंसेवकों को बिल्कुल अलग कर लिया. वाल्टर एंडरसन और श्रीधर दामले ने संघ पर जो पुस्तक द ब्रदरहुड इन सेफ़्रॉन- लिखी है उसमें कहा है, ”गोलवलकर मानते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबंदी लगाने का कोई बहाना अंग्रेज़ों को न दिया जाए.” अंग्रेज़ों ने जब ग़ैरसरकारी संगठनों में वर्दी पहनने और सैनिक कवायद पर पाबंदी तो संघ ने इसे तत्काल स्वीकार किया. २९ अप्रैल १९४३ को गोलवलकर ने संघ के वरिष्ठ लोगों के एक दस्तीपत्र भेजा. इसमें संघ की सैनिक शाखा बंद करने का आदेश था. दस्तीपत्र की भाषा से पता चलता है कि संघ पर पाबंदी की उन्हें कितनी चिंता थी- ”हमने सैनिक कवायद और वर्दी पहनने पर पाबंदी जैसे सरकारी आदेश मानकर ऐसी सब गतिविधियां छोड़ दी हैं ताकि हमारा काम क़ानून के दायरे में रहे जैसा कि क़ानून को मानने वाले हर संगठन को करना चाहिए. ऐसा हमने इस उम्मीद में किया कि हालात सुधर जाएंगे और हम फिर ये प्रशिक्षण देने लगेंगे. लेकिन अब हम तय कर रहे हैं कि वक़्त के बदलने का इंतज़ार किए बिना ये गतिविधियां और ये विभाग समाप्त ही कर दें.” (ये वो दौर था जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी अपने तरीक़े से संघर्ष कर रहे थे) पारंपरिक अर्थों में गोलवलकर क्रांतिकारी नहीं थे. अंग्रेज़ों ने इसे ठीक से समझ लिया था.


सन् १९४३ में संघ की गतिविधियों पर तैयार की गई एक सरकारी रपट में गृह विभाग ने निष्कर्ष निकाला था कि संघ से विधि और व्यवस्था को कोई आसन्न संकट नहीं है. १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में हुई हिंसा पर टिप्पणी करते हुए मुंबई के गृह विभाग ने कहा था, ”संघ ने बड़ी सावधानी से अपने को क़ानूनी दायरे में रखा है. खासकर अगस्त १९४२ में जो हिंसक उपद्रव हुए हैं उनमें संघ ने बिल्कुल भाग नहीं लिया है.” हेडगेवार सन् १९२५ से १९४० तक सरसंघचालक रहे और उनके बाद आज़ादी मिलने तक गोलवलकर रहे. इन बाईस वर्षों में आज़ादी के आंदोलन में संघ ने कोई योगदान या सहयोग नहीं किया. संघ परिवारियों के लिए संघ कार्य ही राष्ट्र सेवा और राष्ट्रभक्ति का सबसे बड़ा काम था. संघ का कार्य क्या है? हिन्दू राष्ट्र के लिए मर मिटने वाले स्वयंसेवकों का संगठन बनाना. इन स्वयंसेवकों का चरित्र निर्माण करना. उनमें ऱाष्ट्रभक्ति को ही जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा और शक्ति मानने की परम आस्था बैठाना. १९४७ में जब देश आज़ाद हुआ तो देश में कोई सात हज़ार शाखाओं में छह से सात लाख स्वयंसेवक भाग ले रहे थे. आप पूछ सकते हैं कि इन एकनिष्ठ देशभक्त स्वयंसेवकों ने आज़ादी के आंदोलन में क्या किया? अगर ये सशस्त्र क्रांति में विश्वास करते थे तो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इनने कितने सशस्त्र उपद्रव किए, कितने अंग्रेज़ों को मारा और उनके कितने संस्थानों को नष्ट किया. कितने स्वयंसेवक अंग्रेज़ों की गोलियों से मरे और कितने वंदेमातरम् कहकर फांसी पर झूल गए? हिन्दुत्ववादियों के हाथ से एक निहत्था अहिंसक गांधी ही मारा गया.

संघ और इन स्वयंसेवकों के लिए आज़ादी के आंदोलन से ज़्यादा महत्वपूर्ण स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र के लिए संगठन बनाना और स्वयंसेवक तैयार करना था. संगठन को अंग्रेज़ों की पाबंदी से बचाना था. इनके लिए स्वतंत्र भारत राष्ट्र अंग्रेज़ों से आज़ाद कराया गया भारत नहीं था. इनका हिन्दू राष्ट्र तो कोई पांच हज़ार साल से ही बना हुआ है. उसे पहले मुसलमानों और फिर अंग्रेज़ों से मुक्त कराना है. मुसलमान हिन्दू राष्ट्र के दुश्मन नंबर एक और अंग्रेज़ नंबर दो थे. सिर्फ़ अंग्रेज़ों को बाहर करने से इनका हिन्दू राष्ट्र आज़ाद नहीं होता. मुसलमानों को भी या तो बाहर करना होगा या उन्हें हिन्दू संस्कृति को मानना होगा. इसलिए अब उनका नारा है- वंदे मातरम् गाना होगा, नहीं तो यहां से जाना होगा. सवाल यह है कि जब आज़ादी का आंदोलन- संघ परिवारियों के लिए स्वैच्छिक था तो स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत में वंदेमातरम् गाना स्वैच्छिक क्यों नहीं हो सकता? भारत ने हिन्दू राष्ट्र को स्वीकार नहीं किया है. यह भारत संघियों का हिन्दू राष्ट्र नहीं है. वंदेमातरम् राष्ट्रगीत है, राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं
साभार- जनसत्ता,

बीच बहस में- वंदेमातरम्

बीच बहस में- वंदेमातरम्
नीरज दीवान
वंदेमातरम् पर हुई राजनीति पर बहुत से आलेख पिछले दिनों लिखे गए. यहां कोशिश की गई कि इतिहास की तारीख़ों पर नज़र डालते हुए कुछ संशय आपके सामने रखूं.

१८७६ में इस गीत की रचना हुई. बंकिमचंद्र चटर्जी ने इसे लिखा उसके छह साल बाद यानी १८८२ में आनंदमठ प्रकाशित हुई. १८७६ से १९७६ तक के सौ साल और उसके बाद १२५ साल २००१ मे पूरे हुए.
१८९६ में कोलकाता अधिवेशन में गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया. इस लिहाज़ से १९९६ में इसके १०० साल पूरे हुए.
१९०५ (अथवा १९०६) में सात सितम्बर को बनारस में हुए कॉग्रेस अधिवेशन में इसे टैगोर की भतीजी सरला देवी चौधरानी ने तत्कालीन अध्यक्ष लोकमान्य तिलक के अनुरोध पर गाया. कहा जाता है कि इसी अधिवेशन में कॉग्रेस ने इसे अपना आधिकारिक गीत अंगीकार किया.
इतिहासकार सुमीत सरकार ने सवाल उठाया है कि कॉग्रेस के अधिवेशन अमूमन दिसम्बर में होते रहे हैं. मेरा (ब्लॉगर) स्वयं का प्रेक्षण रहा है कि कॉग्रेस का सालाना अधिवेशन हमेशा दिसम्बर में होता आया है. फिर सितम्बर में अंगीकार करने के सवाल पर सफाई अब कॉग्रेस को देनी है.
आज ही मैंने अखिल भारतीय कॉग्रेस कमेटी की आधिकारिक साइट पर जाकर देखा तो हैरानगी हुई कि जिस अधिवेशन की बात कॉग्रेस सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के अर्जुन सिंह यह बताते हुए कह रहे हैं कि इसी साल (२००६) में इसके सौ साल पूरे हुए तो लगा कि या तो सरकार के तथ्य सही नहीं है या फिर साइट झूठ बोल रही है. साइट के मुताबिक़ बनारस अधिवेशन १९०५ में हुआ था. यानी १०० साल तो २००५ में ही हो चुके थे.
उससे भी बड़ी हैरानगी तब होती है जब मानव संसाधन मंत्रालय बिना इतिहासकारों की राय लिए या दस्तावेजी प्रमाण हासिल किए एक फ़रमान जारी कर दे और संघ परिवार उसका स्वामिभक्ति से पालन करने लग जाए. इससे पहले सौ या सवा सौ सालों पर किसी सरकार (कॉग्रेस, एनडीए और यूपीए) ने कोई उत्सव नहीं मनाया.

थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो



अभिव्‍यक्ति की आज़ादी और भावनाओं को ठेस का मतलब

प्रभाष जोशी
लालकृष्‍ण आडवाणी का कहना है कि कलाकार की अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने की आज़ादी नहीं हो सकती। अख़बार कहते हैं कि ऐसा उनने अपने सांसदों से कहा। भाजपा को यह बात मीडिया में उजागर करनी पड़ी, क्‍योंकि कुछ अख़बारों ने मेनका गांधी की उस चिट्ठी की ख़बर छापी थी, जो उनन जंग लगे भूतपूर्व लौह पुरुष को वडोदरा में भाजपाई-विहिपाई कार्यकर्ताओं द्वारा कला प्रदर्शनी में जबरन घुस कर तोड़-फोड़ करने के खिलाफ निंदा में लिखी थी। भाजपा दुनिया को बताना चाहती है कि वडोदरा के महाराजा सयाजीराव विश्‍वविद्यालय के कला संकाय में उनके कार्यकर्ताओं ने देवी-देवताओं के 'अश्‍लील और अशोभनीय' चित्रों के खिलाफ जो कुछ किया, पार्टी उसको बुरा नहीं मानती है। इस बेशर्मी को सिद्धांतकार लालकृष्‍ण आडवाणी के उद्धरण से अलंकृत किया गया है कि कोई कलाकार अपनी अभिव्‍यक्ति की आज़ादी के बहाने हमारी धार्मिक भावनाओं को चोट नहीं पहुंचा सकता। तथाकथित धार्मिक भावनाओं के बहाने इस देश के नागरिकों को मिली बुनियादी आज़ादियों के खिलाफ संघ संप्रदायिओं की यह फासिस्‍ट मुहिम है। कैसे? एक उदाहरण लीजिए-

कुछ साल पहले कथाकार कमलेश्‍वर और मुझे उज्‍जैन बुलाया गया था। वह कार्यक्रम शायद कालिदास अकादमी ने आयोजित किया था। साहित्‍य में सांप्रदायिक समरसता से निकला कोई विषय रहा होगा। कमलेश्‍वर ने बोलना शुरू किया और जैसे ही उनने बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने का ज़‍िक्र किया, श्रोताओं में से कुछ लोग उठे और उत्तेजित होकर चिल्‍लाने लगे। उनके एतराज़ को सुनने-समझने की कोशिश की गयी, तो बात निकल कर यह आयी कि उन्‍हें 'बाबरी मस्जिद के ध्‍वंस' से आपत्ति है। वे मानते हैं कि वह 'विवादित ढांचा' था, जो ढह गया। उसे 'बाबरी मस्जिद' क्‍यों कहा जा रहा है। वे यह नहीं सुनेंगे क्‍योंकि इससे उनकी भावनाओं को चोट पहुंचती है। और कमलेश्‍वर को इसका कोई अधिकार नहीं है कि वे लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाएं। कार्यक्रम में उपद्रव करने वाले लोगों का यह कहना मंच पर बैठे लोगों को मंज़ूर नहीं था। उनमें महेश बुच भी थे, जो कभी उज्‍जैन के कलेक्‍टर/कमिश्‍नर भी रह चुके थे। हमने उपद्रव करने वालों की यह मांग भी नहीं मानी कि कमलेश्‍वर न बोलें। बाकी के लोग बोलें तो कार्यक्रम चलने दिया जाएगा। मैंने कहा कि जिस सभा में कमलेश्‍वर को बोलने नहीं दिया जाएगा, उसमें मैं तो नहीं बोलूंगा। कोई आधे घंटे तक तनाव बना रहा।

कार्यक्रम के आयोजको, बाकी के श्रोताओं और उपद्रव करने आये उन लोगों के बीच बातचीत होती रही। हल्‍ला और हंगामा भी होता रहा। कई प्रतिष्ठित नागरिक हमें घेर कर बैठे रहे और हमें मनाते रहे कि विवाद और उपद्रव ख़त्‍म हो, तो कार्यक्रम फिर शुरू किया जा सके। आख़‍िर हमें सूचित किया गया कि कमलेश्‍वर अपना भाषण पूरा करेंगे। इसके बाद उपद्रव करने वालों में से कोई एक व्‍यक्ति आकर जो कुछ उसे बोलता है, बोलेगा और फिर मुझे भाषण देना है। फिर अध्‍यक्ष को जो कुछ कहना होगा, कहेंगे। मुझे लगा कि उपद्रव से कमलेश्‍वर का उत्‍साह और बोलने की सहज इच्‍छा काफी कम हो गयी थी। वे बोले और वही सब कुछ बोले, जो उन्‍हें बोलना था। बाबरी मस्जिद के ध्‍वंस को उनने बाबरी मस्जिद को तोड़ना ही कहा। फिर उपद्रवियों में से एक सज्‍जन आये और ज़ोर-ज़ोर से भाषण देने की कला के अपने प्रशिक्षण के अनुसार बोले और उनके साथ आये लोग तालियां पीटते रहे। फिर मैं कोई घंटे भर बोला। अपने धर्म और पुराणों की समझ में ये संघ परिवारी बेचारे बिल्‍कुल एकांगी हैं। भारतीय समाज की इनकी समझ भी मुसलमान काल से पीछे नहीं जाती। अपने समाज की विविधता, बहुलता और सर्वग्राहिता इनकी पकड़ में नहीं आती। शाखाओं में जो एकांगी और जड़ ज्ञान दिया जाता है, उसी को दोहराते रहते हैं। मेरा अनुभव है कि धर्म और भारतीय समाज पर इन्‍हें लेकर इनसे बड़ी आसानी से निपटा जा सकता है। उस दिन मैंने कहा कि आपके विवादित ढांचा कहने से बाबरी मस्जिद सिर्फ एक विवाद का ढांचा नहीं हो जाएगी।
सारी दुनिया जानती है कि 22/23 दिसंबर, सन 1949 की रात उसमें लाकर रामलला और दूसरी दो मूर्तियां रखी गयीं। ज़‍िला मजिस्‍ट्रेट नायर ने उन्‍हें मुख्‍यमंत्री गोविंद बल्‍लभ पंत के आदेश के बावजूद हटाया नहीं। हिंदू महासभा वालों ने अखंड पाठ चला कर जनता में रामलला के प्रकट होने की बात फैलायी। हज़ारों लोग इकट्ठा हुए। तबसे बाबरी मस्जिद में नमाज नहीं हुई। क्‍योंकि जहां मूर्तियां रखी हों, वहां नमाज नहीं पढ़ी जा सकती। सन 1528 में बनी बाबरी मस्जिद 1992 में आपके कहने से विवादित ढांचा नहीं हो जाएगी।
यह किस्‍सा इसलिए सुनाया कि बाबरी मस्जिद को विवादित ढांचा कहने को कमलेश्‍वर जैसे लेखक को मजबूर करने और उसके लिए 'हमारी भावनाओं को चोट पहुंचाने का' मामला सिर्फ कलाकार चंद्रमोहन और हुसैन से नहीं बनता। 'हमारी भावनाओं को चोट पहुंचाने का हल्‍ला' इसलिए मचाया जाता है कि जो हम मानते और करते हैं, आप भी वही मानिए, नहीं तो आपकी खैर नहीं है। यह मामला सिर्फ नैतिक पुलिसगिरी का भी नहीं है। यह उस जीवन पद्धति और सिर्फ उन मूल्‍यों पर हमला है, जो इस देश के लोगों ने सदियों के जीवनानुभव से विकसित किये हैं। यह हमारी सभी बुनियादी आज़ादियों पर हमला है। इसलिए महाराजा सयाजीराव विश्‍वविद्यालय के उस जगप्रसिद्ध ललित कला संकाय के अंतिम वर्ष के छात्र चंद्रमोहन की नियति को मात्र एक बेचारे कलाकार का दुर्भाग्‍य मत मानिए।

कल आप भी अपने ढंग से जीने और अभिव्‍य‍क्‍त होने के अपने मौलिक अधिकार और स्‍थान के लिए छह रात जेल में काटने को मजबूर किये जा सकते हैं।
आंध्र से वडोदरा के इस प्रख्‍यात कला संकाय में चित्रकारी सीखने आये चंद्रमोहन की माली हालत नाज़ुक है, लेकिन वह प्रतिभाशाली है, इसलिए उसे दो छात्रवृत्तियां मिली हुई है, जिनने उसे यहां पहुंचाया। गये साल उसे ललित कला अकादमी का राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार भी मिला है। इस साल परीक्षा के लिए उसने कुछ चित्र बनाये। ये चित्र कला संकाय के शिक्षकों और छात्रों के लिए थे, जो इन्‍हें देख कर और इनका आकलन करके चंद्रमोहन को नंबर और ग्रेड देते। उसका यह काम अपनी संकाय परीक्षा के लिए किया गया था और संकाय के शिक्षकों के लिए ही था। जैसे कोई छात्र अपनी परीक्षा के लिए उत्तर पुस्तिका लिखता है, वैसे ही और उसी के लिए चंद्रमोहन ने ये चित्र बनाये थे। संकाय में उनकी प्रदर्शनी भी परीक्षा और आकलन के लिए लगी थी। यह आम जनता क्‍या संकाय के बाहर विश्‍वविद्यालय के लिए भी आम प्रदर्शनी नहीं थी। क्‍या अंतिम वर्ष की परीक्षा और आकलन के लिए किये गये काम को आप सार्वजनिक स्‍थल पर आम लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाला काम कह सकते हैं?

फिर विश्‍व हिंदू परिषद के नीरज जैन अपने साथियों को लेकर उस हॉल में उपद्रव करने और कला संकाय के छात्रों और शिक्षकों से गाली गलौज और मारपीट करने कैसे पहुंच गये? उन्‍हें न सिर्फ वहां जाने और विश्‍वविद्यालय के कला संकाय के परीक्षा कार्य में कोई हस्‍तक्षेप करने का अधिकार था, न वे वहां रखे गये चित्रों पर कोई फैसला दे सकते थे। उन्‍हें वहां किसी ने बुलाया नहीं था। वह जगह आम जनता के लिए खुली नहीं थी। फिर नीरज जैन और उनके साथी वहां पहुंचे कैसे और चंद्रमोहन के चित्रों पर एतराज़ करके उन्‍हें हटाने की मांग क्‍यों करने लगे। इसलिए कि वे विश्‍व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता हैं और गुजरात में भाजपाई नरेंद्र मोदी की सरकार है? और भी मज़ा देखिए कि न सिर्फ नीरज जैन और उनके साथी वहां पहुंच गये, वहां पुलिस भी आ गयी। जैसे विश्‍व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने विश्‍वविद्यालय से इजाज़त नहीं ली थी, वैसे ही पुलिस भी बिना बुलाये, बिना पूछे आयी थी। किसी भी विश्‍वविद्यालय में यह नहीं हो सकता।

लेकिन गुजरात की पुलिस ने कला संकाय में बिना इजाज़त ज़बर्दस्‍ती घुस आये और परीक्षा के लिए बनाये गये चित्रों पर एतराज़ करने और उपद्रव मचाने वाले विश्‍व हिंदू परिषद कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। वह पकड़ कर ले गयी बेचारे उस चंद्रमोहन को, जिसके बनाये गये चित्रों पर इन धार्मिक और नैतिक भावनओं वाले कार्यकर्ताओं को एतराज़ था। उस पर भारतीय दंड विधान की धारा 153 ए और 295 के तहत आरोप लगाये गये। अब न तो यह एक आम जनता के लिए खुली सार्वजनिक प्रदर्शनी थी, न चंद्रमोहन ने ये चित्र सबके देखने के लिए बनाये थे। इनसे सार्वजनिक शांति और समरसता और लोगों की भावनाओं के आहत होने का सवाल कहां पैदा होता है? इनसे किसी को एतराज़ हो सकता था, तो कला संकाय के शिक्षकों और छात्रों को होना चाहिए था। लेकिन होता तो क्‍या ये लोग प्रदर्शनी में उन्‍हें रखने देते? और पुलिस के चंद्रमोहन को पकड़ कर ले जाने और प्रदर्शनी हटाने और उसके लिए जनता से माफी मांगने के कुलपति के आदेश का ऐसा विरोध करते? प्रोफेसर शिवजी पणिक्‍कर को कुलपति ने इसलिए निलंबित किया कि वे डीन थे और कुलपति के कहने पर उनने प्रदर्शनी बंद नहीं की, न उन चित्रों के लिए माफी मांगने को तैयार हुए। पणिक्‍कर अपने देश के विख्‍यात कला इतिहासकार और कला मर्मज्ञ हैं। वे और कला संकाय के छात्र चंद्रमोहन के साथ आज भी खड़े हैं।

लेकिन गुजरात पुलिस ही उपद्रवियों को पकड़ने के बजाय चंद्रमोहन को पकड़ कर नहीं ले गयी, बल्कि विश्‍वविद्यालय के कुलपति मनोज सोनी भी इस सारे मामले में अपने छात्रों और शिक्षकों का साथ देने के बजाय विश्‍व हिंदू परिषद के उपद्रवियों के साथ हो गये। उनने कला संकाय में जबरन घुस आये और परीक्षा के काम में दखल देने वाले कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुलिस में रपट तक नहीं लिखवायी। बल्कि वे संकाय को प्रदर्शनी बंद करने और डीन पणिक्‍कर से चंद्रमोहन के चित्रों के लिए सार्वजनिक माफी मांगने के आदेश दे आये। और जब पणिक्‍कर ने आदेश नहीं माने तो उन्‍हें निलंबित कर दिया। चंद्रमोहन के खिलाफ पुलिस कार्रवाई में अदालत में विश्‍वविद्यालय ने अपने छात्र का बचाव तक नहीं किया। पांच रात चंद्रमोहन जेल में बिता कर ज़मानत पर छूटा। पहली बार संघ परिवारियों ने अदालत में चंद्रमोहन की ज़मानत पर सुनवाई तक नहीं होने दी। चंद्रमोहन के पक्ष में प्रदर्शन करने आये देश भर के कलाकारों को विश्‍वविद्यालय ने अंदर आने तक नहीं दिया।

आप साफ देख सकते हैं कि वडोदरा की पुलिस और महाराजा सयाजीराव विश्‍वविद्यालय के कुलपति विश्‍व हिंदू परिषद के नीरज जैन जैसे कार्यकर्ताओं के साथ खड़े हैं। और लालकृष्‍ण आडवाणी जैसे जंग लगे लौहपुरुष कह रहे हैं कि चंद्रमोहन जैसे कलाकार 'अश्‍लील और अशोभनीय' चित्र बना कर हमारी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने के लिए स्‍वतंत्र नहीं हैं। एक विश्‍वविद्यालय के कला संकाय के छात्र ने अपनी डिग्री के लिए जो चित्र शिक्षकों के आकलन के लिए बनाये, उनसे नीरज जैन जैसे निठल्‍लों की धार्मिक भावनाएं आहत हुईं और उनने इसे राष्‍ट्रीय मामला बना दिया। कला के एक छात्र और शिक्षकों के बीच के परीक्षा कार्य में विश्‍व हिंदू परिषद, भाजपा और गुजरात सरकार का क्‍या दखल होना चाहिए? सिवाय इसके कि इनकी इच्‍छा है कि सिद्ध कलाकार ही नहीं, छात्र भी ऐसे चित्र बनाएं, जो हमारे तय किये ढांचें में फिट होते हों। जी, यही फासिस्‍ट इच्‍छा है और पता न हो तो जर्मनी और इटली के लोगों से पूछ लो।

अब संघ संप्रदायी, वकील और पैरोकार कहते हैं कि यह सवाल कलाकार की सृजन स्‍वतंत्रता का नहीं, किसी के भी ईश्‍वर निंदा/धर्म निंदा करने का अपराध का है। चंद्रमोहन ने तो वे चित्र सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए नहीं बनाये थे, लेकिन मंदिर बनाने वालों ने खजुराहो, कोणार्क और भुवनेश्‍वर के मंदिर सबके और धर्म के लिए बनाये। चंद्रमोहन का एक भी चित्र इन मंदिरों की कई मूर्तियों के सामने नहीं टिकेगा। और छोड़‍िए इन मंदिरों को, और हमारे पौराणिक साहित्‍य को- कभी सोचा है अरुण जेटली, कि महादेव का ज्‍योतिर्लिंग किसका प्रतीक है और जिस पिंडी पर यह लिंग स्‍थापित किया जाता है, वह किसकी प्रतीक है। क्‍या हिंदुओं के धर्म और देवी-देवताओं को सामी और संगठित इस्‍लाम या ईसाइयत समझ रखा है, जिसमें किसी पैगंबर की मूरत बनाना वर्जित हो। थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो। यूरोप और अरब की नकल मत करो।
कागद कारे, 20 मई 2007

क्योंकि हॉकी क्रिकेट नहीं है


क्योंकि हॉकी क्रिकेट नहीं है
आलोक तोमर
कवंर पाल सिंह गिल को लगता है कि जीते जी मोक्ष प्राप्त हो चुका है। लगभग अस्सी साल में पहली बार भारत की हॉकी टीम ओलंपिक जीतना तो दूर, वहां के मैदान में जाने लायक भी नहीं बची और इस पर जब गिल साहब की राय पूछी गई, तो उनका कहना था कि वे वक्त आने पर जवाब देंगे। भारत के राष्ट्रीय खेल को मोहल्ला स्तर का गिल्ली-डंडा बना देने वाले महारथियों से ऐसे ही जवाब की उम्मीद थी। गिल साहब से तो और भी क्योंकि वे भारतीय हॉकी फैडरेशन के अध्यक्ष जरूर हैं, लेकिन उनका ज्यादातर समय या तो जाम के साथ बीतता है या जाम के बाद होने वाली उनकी हरकतों की वजह से अदालतों में माफी मांगते हुए।

आज हॉकी के लिए और इसीलिए देश के लिए शर्मनाक दिन तो है ही, मगर आखिरी बार हॉकी का विश्व कप जीतने वाली टीम के कप्तान और बाद में नेता बन गए असलम शेर खान का गुस्सा भी कम जायज नहीं है। खान कहते हैं कि जितने भी खेल एसोसिएशन या फैडरेशन हैं, उनमें खिलाड़ियों के लिए कोई जगह नहीं है। हालांकि यह बात सबके लाड़ले क्रिकेट पर भी लागू होती है, मगर क्रिकेट दनादन आगे बढ़े जा रही है और हॉकी खेलने वालों को कुछ ऐसी नजर से देखा जाता है, जैसे हवाई जहाज में चलने वाले उतरते समय रन वे के पास बनी झुग्गियों को देखते हैं।

सवाल सिर्फ यह नहीं है कि हॉकी की इतनी दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है। क्रिकेट को छोड़ कर और एक हद तक टेनिस और शतरंज के अलावा अपने देश में लगता ही नहीं कि कोई खेल खेला जाता है। अगर शक हो तो आने वाले कॉमनवैल्थ खेल देख लीजिएगा, जिसमें मेजबान हम होंगे और सारे मैडल मेहमान ले जाएंगे। क्रिकेट की निंदा करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन जो बात सच है, वह कहे बिना रहा भी नहीं जा सकता। आपने देखा कि टीम इंडिया के सितारे आस्टे्रलिया को उसी की जमीन पर निपटा कर भारत लौटे, तो उनकी दीन-दुनिया ही बदल गई। साइकिलों पर चलने वाले जहाज चार्टर करने की हालत में आ गए और उनका अभिनंदन ऐसे किया गया, जैसा करगिल के विजेताओं का भी नहीं किया गया था।

उधर हॉकी की दशा देखिए। हॉकी का बड़े से बड़ा टूर्नामेंट जीत लिया जाए, तो भी भारत सरकार डेढ़ लाख से ले कर चार लाख रुपए से ज्यादा का इनाम नहीं देती। यह इनाम भी टीम के चौदह खिलाड़ियों में बंट कर कितना रह जाता होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। हॉकी के खिलाड़ियों को विदेश भेजने के लिए सरकार के पास अपवाद स्वरूप ही पैसे होते हैं। उनके प्रशिक्षण के लिए स्टेडियम इसीलिए नहीं मिलते क्योंकि उन्हें हमारे देश के शाही खेल में बुक करवाया हुआ होता है।

भारत ने पहली बार 1928 में एर्म्स्टडम में ओलंपिक में टीम उतारी थी और हालैंड को तीन गोल से हरा कर स्वर्ण पदक जीता था। हारने वाली टीम को तो एक भी गोल दागने का मौका नहीं दिया गया। 1928 से 1956 के बीच के 28 सालों में भारत ने ओलंपिक में लगातार छह स्वर्ण पदक जीते और इस पूरे दौर में भारत ने चौबीस ओलंपिक मैच खेले, सारे जीते और कुल 178 गोल दागे। पहली बार 1960 में इन 28 जीतों के बाद भारत सिर्फ एक गोल से रोम ओलंपिक में पाकिस्तान से हार गया था। संयोग से इसी ओलंपिक में भारत के अभी तक के सबसे तेज धावक माने जाने वाले मिल्खा सिंह सेंकेंड के लगभग सौवें हिस्से से पदक पाने से चूक गए थे।

अगले ओलंपिक में यानी 1964 में टोक्यो में भारत ने अपना स्वर्ण पदक वापस ले लिया और आखिरी स्वर्ण पदक 1980 में मॉस्को में जीता गया था। इसके बाद की पतन गाथा आपको मालूम ही है। हम किंवदंतियों और भूली हुई दंत कथाओं की तरह ध्यानचंद और कुंवर दिग्विजय सिह बाबू को याद करते हैं। इन दोनों को जादूगर कहा जाता है। 1949 में जब बाबू भारतीय टीम के कप्तान थे तो दुनिया की सभी टीमों ने मिल कर जो 236 गोल किए थे, उनमें से 99 सिर्फ बाबू के थे।

ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार भी भारतीय टीम में थे और शानदार खिलाड़ी माने जाते थे। ध्यानचंद के बारे में तो यह मशहूर है कि गेंद उनकी स्टिक से चिपकी रहती थी और गोल तक पहुंच कर ही छूटती थी। कई शिकायतों के बाद उनकी स्टिक की जांच भी की गई कि कहीं इसमें कोई चुंबक तो नहीं लगा हुआ है। उनके छोटे भाई रूप सिंह भी उसी टीम में थे और सबसे तेज खिलाड़ियों में से एक थे। हॉकी के प्रति रूप सिंह का समर्पण इस हद तक था कि वे झांसी से बस में बैठ कर भिंड में लगभग दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके हमारे स्कूल में हॉकी सिखाने आते थे और हॉस्टल के एक कमरे में जमीन पर सोते थे। खाना भी वे इटावा रोड के एक ढाबे में खाते थे।

अब तो हॉकी हमारे लिए मुगल काल के इतिहास की तरह कोई पुरानी याद बन कर रह गई है। भारतीय हॉकी फैडरेशन की हालत इतनी खराब है कि उसकी बैठकों में या तो लोग पहुंचते नहीं हैं या पहुंच कर फिर झगड़ा करते हैं। अपने तानाशाह रवैये के लिए मशहूर कंवर पाल सिंह गिल और भारतीय फैडरेशन के महासचिव ज्योति कुमारन को तो अंदाजा भी नहीं है कि दुनिया में लोग भारतीय हॉकी का कितना मजाक उड़ा रहे हैं। यह बात अलग है कि पूरी दुनिया में हॉकी की दशा खराब है क्योंकि यह क्रिकेट नहीं है। सच तो यह है कि 2012 के लंदन ओलंपिक में हॉकी को शामिल किए रखने के बारे में बाकायदा मतदान हुआ और सिर्फ एक वोट से हॉकी बची रह गई। यह एक वोट भारत का नहीं था क्योंकि भारतीय प्रतिनिधि इस बैठक में जाने के लिए टिकट खरीदने का पैसा भारत के खेल मंत्रालय ने मंजूर नहीं किया था। इसीलिए किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आखिरी ओलंपिक हमने 1980 में जीता था और आखिरी विश्व कप 1975 में।

महिला हॉकी पर चक दे इंडिया बनी तो अचानक लोगों को लगा कि हॉकी का जमाना वापस आ रहा है। फिल्म बनाने वालों ने पैसा कूट लिया और शाहरुख खान को फिल्म फेयर में सबसे अच्छी एक्टिंग का अवॉर्ड मिल गया। मिलना भी चाहिए था। जिस खेल की देश में इतनी दुर्दशा हो, उसमें इतने उत्साह का अभिनय कोई करामाती अभिनेता ही कर सकता है। यहां यह मत भूलिए कि हॉकी के स्वयभूं ब्रांड एम्बेसडर कहे जाने वाले शाहरुख खान को जब मौका मिला, तो उन्होंने पैसा लगाने के लिए क्रिकेट को चुना। आखिर धंधा अलग है और जोश और जुनून अलग। अभी संसद चल रही है और सरकार चाहे तो हॉकी की बजाय क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल बनाने का विधेयक ला सकती है। आखिर 2010 में भारत में ही हॉकी का विश्व कप होना है और 2008 में हम बीजिंग ओलंपिक के मैदान तक नहीं पहुंच सके।
(शब्दार्थ)

Sunday, March 9, 2008

शलाका को प्रभाष सम्मान

प्रभाष जी को ये सम्मान लेना ही नहीं चाहिए था. उनके पहले सरकारी भांड- मीरासियों को यह मिला है और अब संस्थान ने अपनी वैधता और मह्त्वा बनाये रखने के लिए प्रभाष जी का नाम जोड़ दिया. टका पैसा हमारे गुरु को मोहता नहीं, नाम सम्मान देने वालों से कई गुना ज्यादा है, इस से बड़े सम्मानों के वे निर्णायक रहे हैं और सच तो ये है कि उनके कद को देखते हुए ये तो मोहल्ला स्तर का सम्मान है. प्रभाष जी हिन्दी में संज्ञा नहीं रह गए अलंकार हो गए हैं. अलंकारों को कैसा सम्मान? मेरे गुरु ने जो शिष्य परम्परा, बिना करमा कांडी दीक्षा दिए, बनायी है, उसके लिए उन्हें मिलने वाला कोई भी सम्मान ख़ुद सम्मानित हो ले तो हो ले, प्रभाष जी का सम्मान वो क्या बढायेगा?

हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में योगदान के लिए साल 2007-08 का शलाका सम्मान वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी को दिया जाएगा.

शलाका सम्मान हिंदी अकादमी को ओर से दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है. प्रभाष जोशी ने जनसत्ता को आम आदमी का अखबार बनाया. उन्होंने उस भाषा में लिखना-लिखवाना शुरू किया जो आम आदमी बोलता है. देखते ही देखते जनसत्ता आम आदमी की भाषा में बोलनेवाला अखबार हो गया. इससे न केवल भाषा समृद्ध हुई बल्कि बोलियों का भाषा के साथ एक सेतु निर्मित हुआ जिससे नये तरह के मुहावरे और अर्थ समाज में प्रचलित हुए.

नवंबर 1983 में वे जनसत्ता से जुड़े (एजेंसी में लिसने भी ये ख़बर लिखी है उसे शर्मिन्दा होना चाहिए. प्रभाष जी जनसत्ता से जुड़े नहीं थे, उसे जन्म दिया था. और एक्सप्रेस की प्रधान संपादकी का प्रस्ताव तज कर दिया था.)और इस अखबार के संस्थापक संपादक बने. नवंबर 1995 तक वे अखबार के प्रधान संपादक रहे लेकिन उसके बाद वे हाल फिलहाल तक जनसत्ता के सलाहकार संपादक के रूप में जुड़े रहे. उन्होंने अपनी लेखनी से राष्ट्रीयता को लगातार पुष्ट किया. वैचारिक प्रतिबद्धता का जहां तक सवाल है तो उन्होंने सत्य को सबसे बड़ा विचार माना. इसलिए वे संघ और वामपंथ पर समय-समय पर प्रहार करते रहे. अब तक उनकी प्रमुख पुस्तकें जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं वे हैं- हिन्दू होने का धर्म, मसि कागद और कागद कारे. अभी भी जनसत्ता में उनका नियमित कालम कागद कारे छपता है.


आलोक तोमर

Friday, March 7, 2008

अन्नदाता दुखी भव:


अन्नदाता दुखी भव:
28 February, 2008 03:50:00 प्रभाष जोशी
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इस देश में किसानों का हितैषी कोई नहीं है कर्ज माफ करेवाले भारतीय किसान की प्रजाति को नष्ट करके रेंचहाउस वाले कंपनी किसान लाना चाहते हैं. उनके बिना भारत अमेरिका बने भी तो कैसे?

जब हजारों साल से धैर्य के साथ अपनी धरती पर टिके रहनेवाले भारतीय किसानों ने आत्महत्या करना शुरू किया तो हमारे राजनेताओं ने उनकी हालत को इस तरह से देखा मानों मुर्गियों के बुखार से मरने की बीमारी आ गयी हो. बुखार आया तो मुर्गियों को तो मरना ही है. उनके लिए और कुछ नहीं किया जा सकता. यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है. खेती-किसानी कालबाह्य हो गयी है. जो इससे लगा रहेगा, जायेगा. इसमें भावुक होने की जरूरत नहीं है. किसान हमारा अन्नदाता था. शायद है भी. लेकिन अब उसे जाना है. कृषि संस्कृति और सभ्यता का जमाना गया. अब उद्योग ही नहीं उत्तर आधुनिक उद्योग का जमाना आ गया है.

इतिहासचक्र के समझदार दर्शक बने हमारे नेता खेती किसानी की चिंता छोड़ने में यह भी याद नहीं रख पाये कि सत्तर फीसदी लोग अभी भी गांव में रहते हैं. देश के साठ प्रतिशत मजदूर किसानी से रोजगार पाते हैं. भारत की तो छोड़िये संसारभर का उद्योग साठ करोड़ लोगों को नहीं खपा सकता. जैसे जैसे आर्थिक तरक्की हो रही है रोजगार कम होते जा रहे हैं. ऐसे में ये साठ करोड़ लोग क्या करेंगे? हमारे आईटी गिरमिटिया को ही सभ्य देश कितना ठोक-बजाकर लेते हैं तो फिर इन कौशलविहीन किसानों को कौन विकसति देश अपने यहां आने देगा? यह हम देख रहे हैं. और आबादी के आधे लोग उजड़ गये तो क्या शासन व्यवस्था और समृद्धि रह सकेगी? महानगरों की एक ईंट साबूत नहीं बचेगी.

इतिहास चक्र के मूकदर्शक आज तक नहीं समझा सके कि मार्क्स की भविष्यवाणी से तो सबसे पहले सर्वहारा क्रांति इंग्लैण्ड में होनी थी. आज तक नहीं हुई. रूस में होकर सत्तर साल बाद फिर प्रतिक्रांति हो गयी. हम यह क्यों नहीं समझते कि जिस खेती किसानी पर सत्तर फीसदी लोग जीते हैं वह उनकी जीवनपद्धति है. उससे एक महान संस्कृति बनी और टिकी हुई है. क्या हम भी अपने लोगों को वैसे ही उजाड़ कर उनके संसाधन छीन रहे हैं जैसे यूरोप के लोगों ने रेड इंडियन के साथ अमेरिका में किया? क्या हम अपने ही देश को अमेरिका, यूरोप बनाने के चक्कर में वैसे ही बर्बाद करेंगे जैसे साम्राज्यवादी हमलावर करते आये हैं. आखिर हम डब्ल्यूटीओ के प्रावधानों से उपजे संकट से उनकी रक्षा क्यों नहीं करते, क्यों हमनें उन्हें बाजररूपी भेड़िये के सामने चारा बनाकर फेंक दिया है? पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था का कोई ऐसा मॉडल नहीं है जो 60 करोड़ लोगों को उनकी मर्जी के मुताबिक रोजी-रोटी दे सके.

अगर अमेरिका अमरीकियों की जीवनशैली से समझौता नहीं करता भले ही दुनिया का पर्यावरण नष्ट हो जाए तो क्या अपने लोगों को बचाने के लिए हम आवाज भी नहीं उठा सकते? दो टूक कहने के लिए आर्थिक और सैनिक शक्ति होना जरूरी नहीं होता. हमने जब अंग्रेजों से कहा कि आप भारत छोड़िये तो हमारे पास दृढ़ निश्चय के अलावा क्या था? तब डटे रह सकते थे तो अब क्यों नहीं? अब ऐसा इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि हमारे प्रभुवर्ग को अमेरिकी जीवनशैली और भोग-विलास चाहिए. इसके लिए वे अपने ही गरीब लोगों को दांव पर लगा रहे हैं. अमेरिका और यूरोप अपने संपन्न किसानों को बचाने के लिए सब्सिडी देते हैं और हम अपने गरीब किसानों की सब्सिडी काट लेते हैं. जब कोई किसान आत्महत्या करता है तो इसलिए नहीं कि वह कर्ज के बोझ तले दबा है, बल्कि इसलिए कि उसको बचानेवाला कोई नहीं है. बिजनेस के नाम पर अपने ही लोग उसे लूटते हैं.

किसान की खेती अलाभदायक बना दी गयी है. खुद किसान के लिए खेती नुकसानवाला धंधा हो गयी है. ऐसा अपने आप नहीं हुआ है. सरकार ने लगातार इस तरह की नीतियां बनाई हैं कि किसान कंगाल होता जाए. अब उसके सामने दो ही रास्ते हैं. या तो वह आत्महत्या करे या खेती-बाड़ी किसी कंपनी को बेचकर शहर की किसी गंदी बस्ती का सहारा ले ले. रिक्शा चलाए या अपराध के धंधे से कमाई करे. इक्कीसवीं सदी में महाशक्ति बनते भारत में यही उसकी नियति है.

(कागद कारे का संपादित अंश)

भगत सिंह की वैचारिक हत्‍या के हिस्‍ट्रीशीटर हैं राजकिशोर

भगत सिंह की वैचारिक हत्‍या के हिस्‍ट्रीशीटर हैं राजकिशोर
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 4:13 pm

पिछली प्रविष्टि से आगे…

राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या का यह पहला प्रयास नहीं है। इससे पहले भी वह लगभग दो साल पहले जनसत्‍ता के संपादकीय पृष्‍ठ को माध्‍यम बना कर यह काम कर चुके हैं । खैर उसकी बात लेख के अंत में करेंगे फिलहाल इस बार के लेख में राजकिशोर संविधान के निर्माण के जरिए भगतसिंह के सम्‍मान और संविधान सभा में गहरी और ईमानदार बहस की बात कर रहे है। सबसे महत्‍वूपर्ण बात यह है कि भगतसिंह समेत एचएसआरए के क्रांतिकारी न केवल यह मानते थे कि राष्‍ट्रीय मुक्तिसंघर्ष का लक्ष्‍य समाजवाद की स्‍थापना होनी चाहिए, बल्कि वे पूरे साम्राज्‍यवादी विश्‍व में एक राष्‍ट्र द्वारा दूसरे राष्‍ट्र के शोषण के भी विरोधी थे और अपनी लड़ाई सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेशवाद से नही बल्कि साम्राज्‍यवाद की विश्‍व व्‍यवस्‍था से मानते थे और भारत में भी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्‍व की स्‍थापना को अपना लक्ष्‍य मानते थे। और इस दौर में भी भगतसिंह और उनके साथी इस बात को समझने लगे थे कि कांग्रेस के झण्‍डे तले गांधी जी ने व्‍यापक जनता के एक बड़े हिस्‍से को भले ही जुटा लिया हो, पर कांग्रेस उनके हितों की नुमाइन्‍दगी नहीं करती, बल्कि देशी धनिक वर्गों के हितों की नुमाइन्‍दगी करती है और यह कि कांग्रेस की लड़ाई का अंत किसी न किसी समझौते के रूप में ही होगा। ऐसे मे संविधान के निर्माण और संविधान सभा की इन ‘’ईमानदार बहसों’ से ब्रिटिश साम्राज्‍यवाद और भारतीय पूंजीवाद के अंत को अपना आदर्श मानने वाले भगतसिंह के विचारों का सम्‍मान हुआ या घोर अपमान इसकी असलियत संविधान के निर्माण की प्रक्रिया के इतिहास पर रोशनी डाल कर पहचानी जा सकती है। लेकिन उससे पहले यह पढ़ लीजिए:

1931 में भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा तैयार ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में कहा गया है, ” क्रान्ति से हमारा क्‍या आशय है…जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्‍तव में यही है ‘क्रान्ति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं…।”

संविधान के निर्माण की प्रक्रिया

मार्च, 1946 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने अपने मंत्रिमण्‍डल के तीन सदस्‍यों का प्रतिनिधिमण्‍डल भारत भेजा जिसे प्रमुख राजनीतिक दलों, गणमान्‍य नागरिकों और देशी रियासतों के प्रमुखों से विचार-विमर्श के बाद सत्‍ता-हस्‍तान्‍तरण की योजना तैयार करनी थी। 16 मई 1946 को ‘कैबिनेट मिशन’ नाम से प्रसिद्ध उस दल ने अपनी योजना घोषित की जिसे सभी पक्षों ने स्‍वीकार किया। कैबिनेट मिशन की मूलभूत शर्तें इस प्रकार थीं:

1. भारत का बंटवारा नहीं होगा। इसका ढांचा संघीय होगा। 16 जुलाई, 1948 को सत्‍ता हस्‍तान्‍तरित की जायेगी। इसके पूर्व संघीय भारत का संविधान तैयार कर लिया जायेगा।

2. संविधान लिखने के लिए 389 सदस्‍यों की संविधान सभा का गठन किया जायेगा जिसमें 89 सदस्‍य देशी रियासतों के प्रमुखों द्वारा मनोनीत किये जायेंगे।

3. शेष 300 सदस्‍यों का चुनाव ब्रिटिश शासित प्रान्‍तों की विधायिका के सदस्‍यों द्वारा किया जायेगा। इन 300 में से मुसलमानों के लिए आरक्षित 78 सीटों का चुनाव मुस्लिम समुदाय द्वारा ही किया जायेगा।यहां यह बात उल्‍लेखनीय है कि ब्रिटिश शासित प्रान्‍तों की विधानसभाओं के सदस्‍यों का चुनाव ‘भारत सरकार अधिनियम - 1935’ के अनुसार सीमित मताधिकार के आधार पर हुआ था। उक्‍त अधिनियम के अनुसार मात्र 15 प्रतिशत व्वयस्‍क नागरिकों को ही मत देने का अधिकार था (जो कुल आबादी के 0.5 प्रतिशतही थे)। शेष 85 प्रतिशत नागरिक मताधिकार से वंचित थे।

4. संविधान सभा सम्‍प्रभुता सम्‍पन्‍न नहीं होगी। वह कैबिनेट मिशन प्‍लान 1946 के अन्‍तर्गत संविधान लिखेगी जिसे लागू करने के लिए ब्रिटिश सरकार की स्‍वीकृति अनिवार्य होगी।

5.इस दौरान भारत का शासन प्रबन्‍ध भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत होता रहेगा जिसके लिए केन्‍द्र में एक सर्वदल समर्थित अन्‍तरिम सरकार गठित की जाएगी।

जुलाई, 1946 में संविधान सभा का चुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस को 199 सीटें और 13 का समर्थन प्राप्‍त हुआ , मुस्लिम लीग को 72 सीटें मिलीं तथा 16 पर अन्‍य विजयी हुए। बाद में हालात ऐसे बने कि मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बॉयकाट कर दिया और पाकिस्‍तान की मांग को लेकर ‘सीधी कार्रवाई’ का ऐलान कर दिया । सितम्‍बर, 1946 में अन्‍तरिम सरकार का गठन हुआ जिसके प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू बने। 9 दिसम्‍बर को को संविधान सभा की पहली बैठक बुलाई गई, जिसमें राजेंद्र प्रसाद को अध्‍यक्ष चुना गया। 13 दिसम्‍बर को संविधान की प्रस्‍तावना पेश की गई और 22 जनवरी 1947 को उसे स्‍वीकार किया गया। लीग और रियासतों के मनोनीत प्रतिनिधियों के बॉयकाट के बाद (महज 15 प्रतिशत नागरिकों द्वारा निर्वाचित) संविधान सभा के कुल 55 प्रतिशत सदस्‍यों ने उसे स्‍वीकार किया। विभाजन के बाद इसी प्रस्‍तावना को भारतीय संविधान की दार्शनिक आधारशिला के रूप में स्‍वीकार किया गया। उल्‍लेखनीय है कि 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा ने प्रस्‍तावना को ब्रिटिश सरकार की स्‍वीकृति के लिए भेजने के लिए पारित किया था क्‍योंकि उस समय वह ब्रिटिश संसद के मातहत ही काम कर रही थी। 15 अगस्‍त 1947 को भारत को अधिराज्‍य घोषित कर दिया गया। डोमेनियन इसलिए कि संविधान तैयार होने तक, इनका शासन-प्रबन्‍ध ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारत सरकार अधिनियम 1935’ से ही संचालित होना था।1946 में गठित उसी संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान के आधार पर 26 जनवरी, 1950 को भारत को जनतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया और इसके भी तीन वर्षों पश्‍चात 1952 में देश के पहले आम चुनाव हुए।

तो यह थी संविधान सभा और संविधान निर्माण की प्रक्रिया, यह सच्चाई दिन के उजाले की तरह साफ है कि संविधान सभा को संविधान बनाने के लिए, भारतीय जनता ने नहीं बल्कि ब्रिटिश संसद ने अधिकृत किया था। उक्त संविधान सभा का चुनाव सार्विक मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष चुनाव के द्वारा नहीं, बल्कि15 फीसदी उच्‍चवर्गीय नागरिकों द्वारा परोक्ष चुनाव की विधि से हुआ था। यह बात भी केवल ब्रिटिश शासित प्रान्तों के दो तिहाई भूभाग के लिए लागू होती है। एक तिहाई भूभाग वाले देशी रियासतों के इलाकों से प्रतिनिधियों को मनोनीत किया गया था-राजाओं-नवाबों के द्वारा।भारत के लोगों द्वारा भारतीय संविधान की पुष्टि कभी नहीं कराई गई, बल्कि संविधान के भीतर ही धारा 394 डालकर इसे पूरे देश की जनता पर थोप दिया गया। यहां तक कि ”केशवानंद भारतीय बनाम केरल राज्य” (19731) के मामले में उच्चतम न्यायालय के 13 जजों की संविधान पीठ के 12 सदस्यों ने एकमत से यह कहा है कि भारतीय संविधान के स्रोत भारत के लोग नहीं हैं बल्कि संविधान लिखने के अधिकार संविधान सभा को ब्रिटिश संसद ने दिया था। जस्टिस मैथ्यू ने स्पष्ट कहा है, ” यह सर्वविदित है कि संविधानकी प्रस्तावना में किया गया वायदा ऐतिहासिक सत्य नहीं है। अधिक से अधिक सिर्फ यह कहा जा सकता है कि संविधान लिखने वाले संविधान सभा के सदस्यों को मात्र 28.5 प्रतिशत लोगों ने अपने परोक्ष मतदान से चुना था और कौन ऐसा है जो उन्हीं 28.5 प्रतिशत लोगों को भारत मान लेगा?” इस संविधान के निर्माण की प्रक्रिया सच्चे अर्थों में जनवादी तभी हो सकती थी जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत की जनता सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा का चुनाव करती, या वह जिस विधायिका का चुनाव करती वह खुद ही संविधान सभा का भी काम करती अथवा संविधान सभा का चुनाव करती। भारतीय संविधान पश्चिमी पूंजीवादी उद़देश्‍यों के संविधानों से थोक भाव से जुमले उधार लेने और धुंआधार लफ्फाजी करने के बावजूद इस सच्चाई को छुपा नहीं पाता कि यह संविधान भारतीय जनता को अत्यंत सीमित जनवादी अधिकार प्रदान करता है और उन्हें भी छीन लेने के प्रावधान इसी के भीतर मौजूद हैं। शासक वर्ग के लिए आपातकाल के असीमित अधिाकारइसी संविधान के भीतर मौजूद हैं और घोषित मूलभूत अधिकारों को सीमित करने के रास्ते भी इसी के भीतर हैं। नीति निर्देशक सिध्दांतों के रूप में समाजवादी रंग-रोगन लगाते हुए संविधान में ”कल्याणकारी राज्य” के पश्चिमी पूंजीवादी मॉडलों की थोड़ी बहुत नकल भी की गई है, पर इन नीति निर्देशक सिंध्दांतों को मानने की कोई भी बाध्यता या लागू करने का कोई समयबध्द लक्ष्य शासक वर्ग के सामने नहीं रखा गया है और अब, आधी सदी बाद इन नीति-निर्देशक सिंध्दांतों को पढ़कर केवल ठठाकर हंसा ही जा सकता है। संविधान का मूल ढांचा वही है जो ब्रिटिश औपनिवेशक सत्ता ने तैयार किया था। वही आई.पी.सी, सी.आर.पी.सी, सम्पत्ति व उत्तराधिकार के वही कानून, कोर्ट-कचहरी का वही ढांचा, वही वकील-पेशकार, वही नजराना-शुकराना। आम नागरिक की स्थिति कानून व्यवस्था के सामने पुराने रैयतों जैसी ही है। और कानून-व्यवस्था से भी छन-रिसकर कुछ जनवादी और नागरिक अधिकार बचजाते हैं तो वे नौकरशाही और थाना-पुलिस की जेब में अटक जाते हैं।

ऐसे में भगतसिंह के नाम पर संविधान द्वारा प्रदत्‍त अधिकारों का हवाला देते हुए क्रांति की बात करना भगतसिंह कीवैचारिक हत्‍या की साजिश ही कही जा सकती है।भगतसिंह आम जनता के राज्‍य की बात करते थे और जिस संविधान का निर्माण ही मुट़ठीभर धनिक लोगों ने अपने ब्रिटिश आकाओं के रहमोकरम पर किया हो वह क्रांति की इजाजत देगा?वैसे भी राजकिशोर भगतसिंह की हत्‍या के मामले में हिस्‍ट्रीशीटर हैं। जी हां, आज से दो साल पहले जनसत्‍ता में ही उन्‍होंने इसीतरह का घृणित कार्य किया था जिसका जवाब भी सत्‍यम‍ ने दिया था। वह लेख मैंने तभी टाइप करके कम्‍प्‍यूटर में सुरक्षित रखा था। उसका शीर्षक फाइल करप्‍ट होने के कारण समझ नहीं आ रहा है लेकिन लेख जस का तस है।जनसत्में छपे राजकिशोर के हालिया लेख में दिए गए कुतर्कों को उजागर करने के लिए उस लेख के कुछ अंश भी हाजिर हैं:

‘जनसत्ता’ के 5 अक्टूबर के अंक में ‘भगतसिंह की ओट में’ राजकिशोर ने इतिहास के तथ्यों के साथ जमकर तोड़-मरोड़ की है। भगतसिंह के रास्ते में क्रान्तिकारी हिंसा का कोई स्थान नहीं था यह सिद्ध करने के लिए वह किन्‍हीं अनाम दस्तावेजों का जिक्र करते हैं। उनका दावा है कि ”हाल ही में प्रकाशित” भगतसिंह के दस्तावेजों से ”सूरज की रोशनी की तरह साफ है कि भगतसिंह का रास्ता हिंसा का रास्ता नहीं था।” उन्होंने ऐसे किसी दस्तावेज का नाम बताने की जरूरत नहीं समझी लेकिन अपने (कु) तर्कों के समर्थन में जिस एकमात्र लेख ”बम का दर्शन” का हवाला उन्होंने दिया है, आइये पहले उसी पर नजर डालते हैं।

‘बम का दर्शन’ दरअसल महात्मा गांधी के लेख ‘बम की पूजा’ के जवाब में क्रान्तिकारियों का पक्ष स्पष्ट करने के लिए लिखा गया था। भगवतीचरण वोहरा ने इसे लिखा था और भगतसिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया था। 26 जनवरी, 1930 को इसे देश भर में बांटा गया था। इसमें भगतसिंह साफ-साफ लिखते हैं, ”क्रान्तिकारियों का विश्वास है कि देश को क्रान्ति से ही स्वतंत्रता मिलेगी। वे जिस क्रान्ति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रान्ति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों और उनके पिट्ठुओं से क्रान्तिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जायें” (भगतसिंह और साथियों के दस्तावेज, सं. जगमोहन सिंह व चमनलाल, राजकमल प्रकाशन, पृ. 369)Aइसी लेख में आगे एक बार फिर एकदम स्पष्ट शब्दों में कहा गया है, ”क्रान्तिकारी तो उस दिन की प्रतीक्षा में हैं जब कांग्रेसी आन्दोलन से अहिंसा की यह सनक समाप्त हो जायेगी और वह क्रान्तिकारियों के कंधो से कंधाा मिलाकर पूर्ण स्वतंत्राता के सामूहिक लक्ष्य की ओर बढ़ेगी (उपरोक्त, पृ. 373)। इसी लेख में भगतसिंह ने एक अपील की है कि जिसे आज पढ़ते हुए लगेगा मानो वह राजकिशोर जैसे लोगों को ही संबोधिात हो, ”हम प्रत्येक देशभक्त से निवेदन करते हैं कि वे हमारे साथ गम्भीरतापूर्वक इस युध्द में शामिल हों। कोई भी व्यक्ति अहिंसा और ऐसे ही अजीबो-गरीब तरीकों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर राष्ट्र की स्वतंत्राता से खिलवाड़ न करे (उपरोक्त, पृ. 376)Aये चंद पंक्तियां ही नहीं पूरा लेख गांधी जी के अहिंसक रास्ते के बरक्स क्रान्तिकारियों के सशस्त्र प्रतिरोधों के रास्ते की वकालत करता है। लेकिन राजकिशोर लिखते हैं, ”’बम का दर्शन’…बराबर उपलब्ध रहा है। इसके बावजूद, दुर्भाग्यवश, भगतसिंह की छवि सशस्त्र प्रतिरोधों के दावेदार की बनी हुई है।” अब इसे क्या माना जाये? या तो इस सर्वसुलभ लेख का हवाला देने से पहले राजकिशोर ने इसे पलटकर भी नहीं देखा, या फिर उनकी ”नीयत” के बारे में राजेन्द्र यादव की टिप्पणी पर यकीन किया जाये?

अगर राजकिशोर का इरादा हिंसा-अहिंसा के प्रश्न पर, या भगतसिंह के रास्ते के सही या गलत होने पर बहस चलाने का होता, तो बात और थी। लेकिन वह बहस नहीं चलाते, आलोकधान्वा की कविता के बहाने वह क्रान्तिकारी हिंसा के रास्ते के विरुध्द फतवा देते हैं, और इसके लिए तथ्यों के साथ मनमाना तोड़-मरोड़ करते हैं।इसलिए आइये, इस बारे में भगतसिंह के विचारों की कुछ और बानगियाँ देखते हैं।

फांसी दिये जाने से ठीक तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु ने पंजाब के गवर्नर को पत्रा लिखकर मांग की कि उन्हें फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये क्योंकि वे युध्दबंदी हैं। पत्र के शब्द थे :”…अंग्रेजों और भारतीय जनता के बीच युध्द छिड़ा हुआ है। …बहुत संभव है कि यह युध्द भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले। …यह तब तक खत्म नहीं होगा जब तक समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता।”जेल में लगातार अधययन और चिन्तन कर रहे भगतसिंह के दिमाग में भारतीय क्रान्ति के मार्ग की एक साफ तसवीर उभर रही थी जो कांग्रेस और गांधाी के रास्ते से एकदम अलग तो थी ही, भारतीय क्रान्तिकारियों की उस समय तक की राह से भी बिलकुल जुदा थी। फांसी से करीब एक महीना पहले लिखे ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में भगतसिंह ने एक क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के बारे में लिखा जिसकी ”मुख्य जिम्मेदारी यह होगी कि वे योजना बनायें, उसे लागू करें, प्रोपेगंडा करें, अलग-अलग यूनियनों में काम शुरू कर उनमें एकजुटता लायें, उनके एकजुट हमले की योजना बनायें, सेना व पुलिस को क्रान्ति-समर्थक बनायें और उनकी सहायता या अपनी शक्तियों से विद्रोह या आक्रमणकी शक्ल में क्रान्तिकारी टकराव की स्थिति बनायें, लोगों को विद्रोह के लिए प्रयत्नशील करें और समय पड़ने पर निर्भीकता से नेतृत्व दे सकें” (क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा, पूर्वोक्‍त, पृ. 403)। उपरोक्त कथन की व्याख्या किसी और अर्थ में करने की बात अगर कोई सोचे भी तो ‘मसविदे’ में ‘क्रान्तिकारी पार्टी’ उपशीर्षक के तहत दिया गया यह प्रस्ताव इसकी गुंजाइश खत्म कर देता है : ”ऐक्शन कमेटी : इसकारूप साबोताज, हथियार-संग्रह और विद्रोह का प्रशिक्षण देने के लिए एक गुप्त समिति। ग्रुप (क)नवयुवक : शत्रु की खबरें एकत्र करना, स्थानीय सैनिक सर्वेक्षण। ग्रुप (ख)विशेषज्ञ : शस्त्र-संग्रह, सैनिक प्रशिक्षण आदि” (पूर्वोक्त, पृ. 404)A लेखक: सत्‍यम

…………………………….समाप्‍त…………………..

Comments (2)
March 25, 2007
राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 10:00 pm

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राजकिशोर ने भगतसिंह की ही आड़ में भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या की है। उन्‍होंने बेहद ढिठाई से उस व्‍यवस्‍था (पूंजीवादी) के संविधान को क्रान्ति का कानूनी दस्‍तावेज बताया है जिसे भगतसिंह और उनके साथी बलपूवर्क उखाड़ने की बात कहते थे। 6 जून, 1929 को ‘बमकांड पर सेशन कोर्ट में बयान’ में भगतसिंह और बटुकेश्‍वर दत्‍त ने स्‍पष्‍ट तौर पर लिखा था, ‘‘देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्‍यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्‍य है कि साम्‍यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्‍य द्वारा मनुष्‍य द्वारा मनुष्‍य का तथा एक राष्‍ट्र द्वारा दूसरे राष्‍ट्र का शोषण, जो साम्राज्‍यशाही के नाम से विख्‍यात है समाप्‍त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्‍लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है, और तब तक युद्धों को समाप्‍त कर विश्‍व शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्‍त कुछ भी नहीं है। क्रांति से हमारा मतलब अंततोगत्‍वा एक ऐसी समाज व्‍यवस्‍था की स्‍थापना से है जो इस बात के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्‍य सर्वमान्‍य होगा। जिसके फलस्‍वरूप स्‍थापित होने वाला विश्‍व संघ पीडि़त मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्‍यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।

सामयिक चेतावनी

यह है हमारा आदर्श। इसी आदर्श से प्रेरणा लेकर एक सही तथा पुरजोर चेतावनी दी है। लेकिन अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्‍यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन व्‍यवस्‍था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोड़े अटकाने से बाज न आई तो क्रां‍ति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध छिड़ना अनिवार्य है। सभी बाधाओं को रौंदकर उस युद्ध के फलस्‍वरूप सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र की स्‍थापना होगी। यह अधिनायकतंत्र क्रांति के आदर्शों की पूर्ति के लिए मार्ग प्रशस्‍त करेगा।…’’

राजकिशोर इस बात का जवाब दें कि क्‍या भारतीय संविधान वर्तमान पूंजीवादी व्‍यवस्‍था पर अधिकार कर शोषण मुक्‍त समाज की स्‍थापना का अधिकार देता है? उस मेहनतकश वर्ग के अधिनायकत्‍व की स्‍थापना की स्‍वतंत्रता प्रदान करता है, जिसकी बात भगतसिंह ने की थी? अगर नहीं, तो उनके इस लेख को भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या कहना गलत नहीं होगा।

… जारी

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March 24, 2007
भगतसिंह के शहादत दिवस पर राजकिशोर का वैचारिक वमन
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 2:49 pm

लगता है अखबारों के लिए भाड़े पर कलम घिसते-घिसते राजकिशोर जी बौद्धिक दीवालिएपन के शिकार हो गए है और उनकी कलम बांझपन की। भगतसिंह के शहादत दिवस पर जनसत्‍ता में छपे उनके लेख से तो यही साबित होता है। 23 मार्च को भगतसिंह का शहादत दिवस था। इस मौके पर जनसत्‍ता ने प्रख्‍यात ”बुद्धिजीवी” राजकिशोर के वैचारिक वमन को अपने संपादकीय पृष्‍ठ पर पर्याप्‍त जगह दी। इस लेख में राजकिशोर ने भगतसिंह के उद्धरण देते हुए भारत के नौजवानों को प्रेरित (भ्रमित) करने की पुरजोर कोशिश है, मुझे लगता है कि इस लेख को पढ़ कर कोई क्रान्तिकारी बने या न बने, भ्रान्तिकारी जरूर बन जाएगा और अपने संपर्क में आने वाले और लोगों को भी राजकिशोर के वैचारिक विभ्रम का शिकार बनाएगा। चलिए! अब इन भ्रामक तथ्‍यों और विचारों का बिंदुवार विश्‍लेषण भी कर लिया जाए।

लेख के चौथे पैरा में (शुरुआती तीन पैरा में उजागर हुए उनके दिमागी ढुलमुलपन की चर्चा बाद में करेंगे)लिखा है, ”…भगत सिंह के चिंतन में हमें भारत की सभी समस्‍याओं का हल मिल जाता है। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे गांधी के विचार और आचरण में…।” भई, अलग-अलग वैचारिक धरातल पर भारतीय समस्‍याओं का समाधान बताने वालों का रास्‍ता एक नहीं हो सकता और ऐसे में तय करना पड़ता है कि किसका रास्‍ता सही और व्‍यावहारिक है और एक बार तय कर लेने के बाद उसी रास्‍ते पर चलना चाहिए। लेकिन राजकिशोर जी भगतसिंह और गांधी दोनों ही के रास्‍तों को भारत के लिए हितकारी बता रहे हैं, जबकि दोनों में कहीं भी वैचारिक साम्‍य नहीं था। अगर भगतसिंह के पास भारतीय समस्‍याओं का समाधान था, तो गांधी के नाम का जाप क्‍यों? अगर उनके पास हल नहीं था, तो राजकिशोर को दृढ़ता से गांधी के रास्‍ते पर चलने का आह्वान करना चाहए था, भगतसिंह के शहादत दिवस पर लगभग आधा पन्‍ना काला करने की क्‍या जरूरत थी। जहां तक रास्‍ते का सवाल है, जिस भगतसिंह के नाम की माला खुद राजकिशोर जप रहे है, उन्‍हीं भगतसिंह ने भी कहा था कि, ”गांधी एक दयालु मानवतावादी व्‍यक्ति हैं। लेकिन ऐसी दयालुता से सामाजिक तब्‍दीली नहीं आती…।” (जगमोहन और चमनलाल द्वारा संपादित उसी किताब, ‘भगतसिंह और उनके साथियों के दस्‍तावेज’, की भूमिका जिसका मनमाना प्रयोग राजकिशोर ने अपने लेख में किया है) लगता है, या तो राजकिशोर ने खुद कभी इस पुस्‍तक और भगतसिंह को पूरी तरह पढ़ा और समझा नहीं है या फिर जानबूझकर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश कर रहे हैं।

उनकी मूखर्तापूर्ण दलीलें यहीं खत्‍म नहीं होती। आगे वो उपरोक्‍त पुस्‍तक से भगतसिंह का हवाला देते हुए क्रान्ति की स्पिरिट ताजा करने की बात करते हुए कहते हैं, ” हमारे पास तो क्रांति का एक कानूनी दस्‍तावेज भी है। यहां में यह याद दिलाना चाहता हूं कि स्‍वतंत्र भारत का संविधान बनाते समय हमारे पूर्वजों ने गांधी की बातों को लगभग नहीं माना, लेकिन उन्‍होंने भगतसिंह का पूरा सम्‍मान किया।यह सम्‍मान जान-बूझ कर या समझ-बूझ कर किया गया था, यह बात मानने लायक नहीं लगती। यह सम्‍मान अनजाने में ही हुआ और इसीलिए हुआ कि उस समय दुनिया भर में समाजवाद को ही सभी बंद तालों की एकमात्र कुंजी के रूप में देखा जा रहा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि संविधान बनाते समय भारत के एक बड़े बौद्धिक और राजनीतिक वर्ग ने चरम प्रकार का आत्‍म-मंथन किया था। वे कोशिश कर रहे थे कि दुनिया की विभिन्‍न व्‍यवस्‍थाओं में जो कुछ श्रेष्‍ठ है, उसे अपने सर्वाधिक मूल्‍यवान राष्‍ट्रीय दस्‍तावेज में समेट लिया जाए।…संविधान सभा में जैसी गहरी और ईमानदार बहसें हुईं, उनकी परछाई भी अब देखने को नहीं मिलती।…”वाह भाई राजकिशोर! ‘निठल्‍ला चिंतन’ नाम का एक हिंदी चिट्ठा (ब्‍लॉग) इंटरनेट पर देखा था, लेकिन आपने वाकई में इस नाम को सार्थक कर दिया। इस नाम की एक वेबसाइट अपने नाम से रजिस्‍टर करा लीजिए, ज्‍यादा उचित होगा। खैर उनके इस मुक्‍त चिंतन पर टिप्‍पणी करने से पहले पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की कविता ‘संविधान’ का उल्‍लेख करना मौजूं होगा:

यह पुस्‍तक मर चुकी है

इसे न पढ़ें

इसके शब्‍दों में मौत की ठण्‍डक है

और एक-एक पृष्‍ठ

जिन्‍दगी के आखिरी पल जैसा भयानक

यह पुस्‍तक जब बनी थी

तो मैं एक पशु था

सोया हुआ पशु…

और जब मैं जगा

तो मेरे इंसान बनने तक

यह पुस्‍तक मर चुकी थी

अब यदि इस पुस्‍तक को पढ़ोगे

तो पशु बन जाओगे

सोये हुए पशु।
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 4:13 pm



राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या का यह पहला प्रयास नहीं है। इससे पहले भी वह लगभग दो साल पहले जनसत्‍ता के संपादकीय पृष्‍ठ को माध्‍यम बना कर यह काम कर चुके हैं । खैर उसकी बात लेख के अंत में करेंगे फिलहाल इस बार के लेख में राजकिशोर संविधान के निर्माण के जरिए भगतसिंह के सम्‍मान और संविधान सभा में गहरी और ईमानदार बहस की बात कर रहे है। सबसे महत्‍वूपर्ण बात यह है कि भगतसिंह समेत एचएसआरए के क्रांतिकारी न केवल यह मानते थे कि राष्‍ट्रीय मुक्तिसंघर्ष का लक्ष्‍य समाजवाद की स्‍थापना होनी चाहिए, बल्कि वे पूरे साम्राज्‍यवादी विश्‍व में एक राष्‍ट्र द्वारा दूसरे राष्‍ट्र के शोषण के भी विरोधी थे और अपनी लड़ाई सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेशवाद से नही बल्कि साम्राज्‍यवाद की विश्‍व व्‍यवस्‍था से मानते थे और भारत में भी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्‍व की स्‍थापना को अपना लक्ष्‍य मानते थे। और इस दौर में भी भगतसिंह और उनके साथी इस बात को समझने लगे थे कि कांग्रेस के झण्‍डे तले गांधी जी ने व्‍यापक जनता के एक बड़े हिस्‍से को भले ही जुटा लिया हो, पर कांग्रेस उनके हितों की नुमाइन्‍दगी नहीं करती, बल्कि देशी धनिक वर्गों के हितों की नुमाइन्‍दगी करती है और यह कि कांग्रेस की लड़ाई का अंत किसी न किसी समझौते के रूप में ही होगा। ऐसे मे संविधान के निर्माण और संविधान सभा की इन ‘’ईमानदार बहसों’ से ब्रिटिश साम्राज्‍यवाद और भारतीय पूंजीवाद के अंत को अपना आदर्श मानने वाले भगतसिंह के विचारों का सम्‍मान हुआ या घोर अपमान इसकी असलियत संविधान के निर्माण की प्रक्रिया के इतिहास पर रोशनी डाल कर पहचानी जा सकती है। लेकिन उससे पहले यह पढ़ लीजिए:

1931 में भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा तैयार ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में कहा गया है, ” क्रान्ति से हमारा क्‍या आशय है…जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्‍तव में यही है ‘क्रान्ति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं…।”

संविधान के निर्माण की प्रक्रिया

मार्च, 1946 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने अपने मंत्रिमण्‍डल के तीन सदस्‍यों का प्रतिनिधिमण्‍डल भारत भेजा जिसे प्रमुख राजनीतिक दलों, गणमान्‍य नागरिकों और देशी रियासतों के प्रमुखों से विचार-विमर्श के बाद सत्‍ता-हस्‍तान्‍तरण की योजना तैयार करनी थी। 16 मई 1946 को ‘कैबिनेट मिशन’ नाम से प्रसिद्ध उस दल ने अपनी योजना घोषित की जिसे सभी पक्षों ने स्‍वीकार किया। कैबिनेट मिशन की मूलभूत शर्तें इस प्रकार थीं:

1. भारत का बंटवारा नहीं होगा। इसका ढांचा संघीय होगा। 16 जुलाई, 1948 को सत्‍ता हस्‍तान्‍तरित की जायेगी। इसके पूर्व संघीय भारत का संविधान तैयार कर लिया जायेगा।

2. संविधान लिखने के लिए 389 सदस्‍यों की संविधान सभा का गठन किया जायेगा जिसमें 89 सदस्‍य देशी रियासतों के प्रमुखों द्वारा मनोनीत किये जायेंगे।

3. शेष 300 सदस्‍यों का चुनाव ब्रिटिश शासित प्रान्‍तों की विधायिका के सदस्‍यों द्वारा किया जायेगा। इन 300 में से मुसलमानों के लिए आरक्षित 78 सीटों का चुनाव मुस्लिम समुदाय द्वारा ही किया जायेगा।यहां यह बात उल्‍लेखनीय है कि ब्रिटिश शासित प्रान्‍तों की विधानसभाओं के सदस्‍यों का चुनाव ‘भारत सरकार अधिनियम - 1935’ के अनुसार सीमित मताधिकार के आधार पर हुआ था। उक्‍त अधिनियम के अनुसार मात्र 15 प्रतिशत व्वयस्‍क नागरिकों को ही मत देने का अधिकार था (जो कुल आबादी के 0.5 प्रतिशतही थे)। शेष 85 प्रतिशत नागरिक मताधिकार से वंचित थे।

4. संविधान सभा सम्‍प्रभुता सम्‍पन्‍न नहीं होगी। वह कैबिनेट मिशन प्‍लान 1946 के अन्‍तर्गत संविधान लिखेगी जिसे लागू करने के लिए ब्रिटिश सरकार की स्‍वीकृति अनिवार्य होगी।

5.इस दौरान भारत का शासन प्रबन्‍ध भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत होता रहेगा जिसके लिए केन्‍द्र में एक सर्वदल समर्थित अन्‍तरिम सरकार गठित की जाएगी।

जुलाई, 1946 में संविधान सभा का चुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस को 199 सीटें और 13 का समर्थन प्राप्‍त हुआ , मुस्लिम लीग को 72 सीटें मिलीं तथा 16 पर अन्‍य विजयी हुए। बाद में हालात ऐसे बने कि मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बॉयकाट कर दिया और पाकिस्‍तान की मांग को लेकर ‘सीधी कार्रवाई’ का ऐलान कर दिया । सितम्‍बर, 1946 में अन्‍तरिम सरकार का गठन हुआ जिसके प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू बने। 9 दिसम्‍बर को को संविधान सभा की पहली बैठक बुलाई गई, जिसमें राजेंद्र प्रसाद को अध्‍यक्ष चुना गया। 13 दिसम्‍बर को संविधान की प्रस्‍तावना पेश की गई और 22 जनवरी 1947 को उसे स्‍वीकार किया गया। लीग और रियासतों के मनोनीत प्रतिनिधियों के बॉयकाट के बाद (महज 15 प्रतिशत नागरिकों द्वारा निर्वाचित) संविधान सभा के कुल 55 प्रतिशत सदस्‍यों ने उसे स्‍वीकार किया। विभाजन के बाद इसी प्रस्‍तावना को भारतीय संविधान की दार्शनिक आधारशिला के रूप में स्‍वीकार किया गया। उल्‍लेखनीय है कि 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा ने प्रस्‍तावना को ब्रिटिश सरकार की स्‍वीकृति के लिए भेजने के लिए पारित किया था क्‍योंकि उस समय वह ब्रिटिश संसद के मातहत ही काम कर रही थी। 15 अगस्‍त 1947 को भारत को अधिराज्‍य घोषित कर दिया गया। डोमेनियन इसलिए कि संविधान तैयार होने तक, इनका शासन-प्रबन्‍ध ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारत सरकार अधिनियम 1935’ से ही संचालित होना था।1946 में गठित उसी संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान के आधार पर 26 जनवरी, 1950 को भारत को जनतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया और इसके भी तीन वर्षों पश्‍चात 1952 में देश के पहले आम चुनाव हुए।

तो यह थी संविधान सभा और संविधान निर्माण की प्रक्रिया, यह सच्चाई दिन के उजाले की तरह साफ है कि संविधान सभा को संविधान बनाने के लिए, भारतीय जनता ने नहीं बल्कि ब्रिटिश संसद ने अधिकृत किया था। उक्त संविधान सभा का चुनाव सार्विक मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष चुनाव के द्वारा नहीं, बल्कि15 फीसदी उच्‍चवर्गीय नागरिकों द्वारा परोक्ष चुनाव की विधि से हुआ था। यह बात भी केवल ब्रिटिश शासित प्रान्तों के दो तिहाई भूभाग के लिए लागू होती है। एक तिहाई भूभाग वाले देशी रियासतों के इलाकों से प्रतिनिधियों को मनोनीत किया गया था-राजाओं-नवाबों के द्वारा।भारत के लोगों द्वारा भारतीय संविधान की पुष्टि कभी नहीं कराई गई, बल्कि संविधान के भीतर ही धारा 394 डालकर इसे पूरे देश की जनता पर थोप दिया गया। यहां तक कि ”केशवानंद भारतीय बनाम केरल राज्य” (19731) के मामले में उच्चतम न्यायालय के 13 जजों की संविधान पीठ के 12 सदस्यों ने एकमत से यह कहा है कि भारतीय संविधान के स्रोत भारत के लोग नहीं हैं बल्कि संविधान लिखने के अधिकार संविधान सभा को ब्रिटिश संसद ने दिया था। जस्टिस मैथ्यू ने स्पष्ट कहा है, ” यह सर्वविदित है कि संविधानकी प्रस्तावना में किया गया वायदा ऐतिहासिक सत्य नहीं है। अधिक से अधिक सिर्फ यह कहा जा सकता है कि संविधान लिखने वाले संविधान सभा के सदस्यों को मात्र 28.5 प्रतिशत लोगों ने अपने परोक्ष मतदान से चुना था और कौन ऐसा है जो उन्हीं 28.5 प्रतिशत लोगों को भारत मान लेगा?” इस संविधान के निर्माण की प्रक्रिया सच्चे अर्थों में जनवादी तभी हो सकती थी जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत की जनता सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा का चुनाव करती, या वह जिस विधायिका का चुनाव करती वह खुद ही संविधान सभा का भी काम करती अथवा संविधान सभा का चुनाव करती। भारतीय संविधान पश्चिमी पूंजीवादी उद़देश्‍यों के संविधानों से थोक भाव से जुमले उधार लेने और धुंआधार लफ्फाजी करने के बावजूद इस सच्चाई को छुपा नहीं पाता कि यह संविधान भारतीय जनता को अत्यंत सीमित जनवादी अधिकार प्रदान करता है और उन्हें भी छीन लेने के प्रावधान इसी के भीतर मौजूद हैं। शासक वर्ग के लिए आपातकाल के असीमित अधिाकारइसी संविधान के भीतर मौजूद हैं और घोषित मूलभूत अधिकारों को सीमित करने के रास्ते भी इसी के भीतर हैं। नीति निर्देशक सिध्दांतों के रूप में समाजवादी रंग-रोगन लगाते हुए संविधान में ”कल्याणकारी राज्य” के पश्चिमी पूंजीवादी मॉडलों की थोड़ी बहुत नकल भी की गई है, पर इन नीति निर्देशक सिंध्दांतों को मानने की कोई भी बाध्यता या लागू करने का कोई समयबध्द लक्ष्य शासक वर्ग के सामने नहीं रखा गया है और अब, आधी सदी बाद इन नीति-निर्देशक सिंध्दांतों को पढ़कर केवल ठठाकर हंसा ही जा सकता है। संविधान का मूल ढांचा वही है जो ब्रिटिश औपनिवेशक सत्ता ने तैयार किया था। वही आई.पी.सी, सी.आर.पी.सी, सम्पत्ति व उत्तराधिकार के वही कानून, कोर्ट-कचहरी का वही ढांचा, वही वकील-पेशकार, वही नजराना-शुकराना। आम नागरिक की स्थिति कानून व्यवस्था के सामने पुराने रैयतों जैसी ही है। और कानून-व्यवस्था से भी छन-रिसकर कुछ जनवादी और नागरिक अधिकार बचजाते हैं तो वे नौकरशाही और थाना-पुलिस की जेब में अटक जाते हैं।

ऐसे में भगतसिंह के नाम पर संविधान द्वारा प्रदत्‍त अधिकारों का हवाला देते हुए क्रांति की बात करना भगतसिंह कीवैचारिक हत्‍या की साजिश ही कही जा सकती है।भगतसिंह आम जनता के राज्‍य की बात करते थे और जिस संविधान का निर्माण ही मुट़ठीभर धनिक लोगों ने अपने ब्रिटिश आकाओं के रहमोकरम पर किया हो वह क्रांति की इजाजत देगा?वैसे भी राजकिशोर भगतसिंह की हत्‍या के मामले में हिस्‍ट्रीशीटर हैं। जी हां, आज से दो साल पहले जनसत्‍ता में ही उन्‍होंने इसीतरह का घृणित कार्य किया था जिसका जवाब भी सत्‍यम‍ ने दिया था। वह लेख मैंने तभी टाइप करके कम्‍प्‍यूटर में सुरक्षित रखा था। उसका शीर्षक फाइल करप्‍ट होने के कारण समझ नहीं आ रहा है लेकिन लेख जस का तस है।जनसत्में छपे राजकिशोर के हालिया लेख में दिए गए कुतर्कों को उजागर करने के लिए उस लेख के कुछ अंश भी हाजिर हैं:

‘जनसत्ता’ के 5 अक्टूबर के अंक में ‘भगतसिंह की ओट में’ राजकिशोर ने इतिहास के तथ्यों के साथ जमकर तोड़-मरोड़ की है। भगतसिंह के रास्ते में क्रान्तिकारी हिंसा का कोई स्थान नहीं था यह सिद्ध करने के लिए वह किन्‍हीं अनाम दस्तावेजों का जिक्र करते हैं। उनका दावा है कि ”हाल ही में प्रकाशित” भगतसिंह के दस्तावेजों से ”सूरज की रोशनी की तरह साफ है कि भगतसिंह का रास्ता हिंसा का रास्ता नहीं था।” उन्होंने ऐसे किसी दस्तावेज का नाम बताने की जरूरत नहीं समझी लेकिन अपने (कु) तर्कों के समर्थन में जिस एकमात्र लेख ”बम का दर्शन” का हवाला उन्होंने दिया है, आइये पहले उसी पर नजर डालते हैं।

‘बम का दर्शन’ दरअसल महात्मा गांधी के लेख ‘बम की पूजा’ के जवाब में क्रान्तिकारियों का पक्ष स्पष्ट करने के लिए लिखा गया था। भगवतीचरण वोहरा ने इसे लिखा था और भगतसिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया था। 26 जनवरी, 1930 को इसे देश भर में बांटा गया था। इसमें भगतसिंह साफ-साफ लिखते हैं, ”क्रान्तिकारियों का विश्वास है कि देश को क्रान्ति से ही स्वतंत्रता मिलेगी। वे जिस क्रान्ति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रान्ति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों और उनके पिट्ठुओं से क्रान्तिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जायें” (भगतसिंह और साथियों के दस्तावेज, सं. जगमोहन सिंह व चमनलाल, राजकमल प्रकाशन, पृ. 369)Aइसी लेख में आगे एक बार फिर एकदम स्पष्ट शब्दों में कहा गया है, ”क्रान्तिकारी तो उस दिन की प्रतीक्षा में हैं जब कांग्रेसी आन्दोलन से अहिंसा की यह सनक समाप्त हो जायेगी और वह क्रान्तिकारियों के कंधो से कंधाा मिलाकर पूर्ण स्वतंत्राता के सामूहिक लक्ष्य की ओर बढ़ेगी (उपरोक्त, पृ. 373)। इसी लेख में भगतसिंह ने एक अपील की है कि जिसे आज पढ़ते हुए लगेगा मानो वह राजकिशोर जैसे लोगों को ही संबोधिात हो, ”हम प्रत्येक देशभक्त से निवेदन करते हैं कि वे हमारे साथ गम्भीरतापूर्वक इस युध्द में शामिल हों। कोई भी व्यक्ति अहिंसा और ऐसे ही अजीबो-गरीब तरीकों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर राष्ट्र की स्वतंत्राता से खिलवाड़ न करे (उपरोक्त, पृ. 376)Aये चंद पंक्तियां ही नहीं पूरा लेख गांधी जी के अहिंसक रास्ते के बरक्स क्रान्तिकारियों के सशस्त्र प्रतिरोधों के रास्ते की वकालत करता है। लेकिन राजकिशोर लिखते हैं, ”’बम का दर्शन’…बराबर उपलब्ध रहा है। इसके बावजूद, दुर्भाग्यवश, भगतसिंह की छवि सशस्त्र प्रतिरोधों के दावेदार की बनी हुई है।” अब इसे क्या माना जाये? या तो इस सर्वसुलभ लेख का हवाला देने से पहले राजकिशोर ने इसे पलटकर भी नहीं देखा, या फिर उनकी ”नीयत” के बारे में राजेन्द्र यादव की टिप्पणी पर यकीन किया जाये?

अगर राजकिशोर का इरादा हिंसा-अहिंसा के प्रश्न पर, या भगतसिंह के रास्ते के सही या गलत होने पर बहस चलाने का होता, तो बात और थी। लेकिन वह बहस नहीं चलाते, आलोकधान्वा की कविता के बहाने वह क्रान्तिकारी हिंसा के रास्ते के विरुध्द फतवा देते हैं, और इसके लिए तथ्यों के साथ मनमाना तोड़-मरोड़ करते हैं।इसलिए आइये, इस बारे में भगतसिंह के विचारों की कुछ और बानगियाँ देखते हैं।

फांसी दिये जाने से ठीक तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु ने पंजाब के गवर्नर को पत्रा लिखकर मांग की कि उन्हें फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये क्योंकि वे युध्दबंदी हैं। पत्र के शब्द थे :”…अंग्रेजों और भारतीय जनता के बीच युध्द छिड़ा हुआ है। …बहुत संभव है कि यह युध्द भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले। …यह तब तक खत्म नहीं होगा जब तक समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता।”जेल में लगातार अधययन और चिन्तन कर रहे भगतसिंह के दिमाग में भारतीय क्रान्ति के मार्ग की एक साफ तसवीर उभर रही थी जो कांग्रेस और गांधाी के रास्ते से एकदम अलग तो थी ही, भारतीय क्रान्तिकारियों की उस समय तक की राह से भी बिलकुल जुदा थी। फांसी से करीब एक महीना पहले लिखे ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में भगतसिंह ने एक क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के बारे में लिखा जिसकी ”मुख्य जिम्मेदारी यह होगी कि वे योजना बनायें, उसे लागू करें, प्रोपेगंडा करें, अलग-अलग यूनियनों में काम शुरू कर उनमें एकजुटता लायें, उनके एकजुट हमले की योजना बनायें, सेना व पुलिस को क्रान्ति-समर्थक बनायें और उनकी सहायता या अपनी शक्तियों से विद्रोह या आक्रमणकी शक्ल में क्रान्तिकारी टकराव की स्थिति बनायें, लोगों को विद्रोह के लिए प्रयत्नशील करें और समय पड़ने पर निर्भीकता से नेतृत्व दे सकें” (क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा, पूर्वोक्‍त, पृ. 403)। उपरोक्त कथन की व्याख्या किसी और अर्थ में करने की बात अगर कोई सोचे भी तो ‘मसविदे’ में ‘क्रान्तिकारी पार्टी’ उपशीर्षक के तहत दिया गया यह प्रस्ताव इसकी गुंजाइश खत्म कर देता है : ”ऐक्शन कमेटी : इसकारूप साबोताज, हथियार-संग्रह और विद्रोह का प्रशिक्षण देने के लिए एक गुप्त समिति। ग्रुप (क)नवयुवक : शत्रु की खबरें एकत्र करना, स्थानीय सैनिक सर्वेक्षण। ग्रुप (ख)विशेषज्ञ : शस्त्र-संग्रह, सैनिक प्रशिक्षण आदि” (पूर्वोक्त, पृ. 404)A लेखक: सत्‍यम

…………………………….समाप्‍त…………………..

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March 25, 2007
राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 10:00 pm

पिछले लेख से आगे

राजकिशोर ने भगतसिंह की ही आड़ में भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या की है। उन्‍होंने बेहद ढिठाई से उस व्‍यवस्‍था (पूंजीवादी) के संविधान को क्रान्ति का कानूनी दस्‍तावेज बताया है जिसे भगतसिंह और उनके साथी बलपूवर्क उखाड़ने की बात कहते थे। 6 जून, 1929 को ‘बमकांड पर सेशन कोर्ट में बयान’ में भगतसिंह और बटुकेश्‍वर दत्‍त ने स्‍पष्‍ट तौर पर लिखा था, ‘‘देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्‍यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्‍य है कि साम्‍यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्‍य द्वारा मनुष्‍य द्वारा मनुष्‍य का तथा एक राष्‍ट्र द्वारा दूसरे राष्‍ट्र का शोषण, जो साम्राज्‍यशाही के नाम से विख्‍यात है समाप्‍त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्‍लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है, और तब तक युद्धों को समाप्‍त कर विश्‍व शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्‍त कुछ भी नहीं है। क्रांति से हमारा मतलब अंततोगत्‍वा एक ऐसी समाज व्‍यवस्‍था की स्‍थापना से है जो इस बात के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्‍य सर्वमान्‍य होगा। जिसके फलस्‍वरूप स्‍थापित होने वाला विश्‍व संघ पीडि़त मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्‍यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।

सामयिक चेतावनी

यह है हमारा आदर्श। इसी आदर्श से प्रेरणा लेकर एक सही तथा पुरजोर चेतावनी दी है। लेकिन अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्‍यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन व्‍यवस्‍था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोड़े अटकाने से बाज न आई तो क्रां‍ति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध छिड़ना अनिवार्य है। सभी बाधाओं को रौंदकर उस युद्ध के फलस्‍वरूप सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र की स्‍थापना होगी। यह अधिनायकतंत्र क्रांति के आदर्शों की पूर्ति के लिए मार्ग प्रशस्‍त करेगा।…’’

राजकिशोर इस बात का जवाब दें कि क्‍या भारतीय संविधान वर्तमान पूंजीवादी व्‍यवस्‍था पर अधिकार कर शोषण मुक्‍त समाज की स्‍थापना का अधिकार देता है? उस मेहनतकश वर्ग के अधिनायकत्‍व की स्‍थापना की स्‍वतंत्रता प्रदान करता है, जिसकी बात भगतसिंह ने की थी? अगर नहीं, तो उनके इस लेख को भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या कहना गलत नहीं होगा।

… जारी

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March 24, 2007
भगतसिंह के शहादत दिवस पर राजकिशोर का वैचारिक वमन
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 2:49 pm

लगता है अखबारों के लिए भाड़े पर कलम घिसते-घिसते राजकिशोर जी बौद्धिक दीवालिएपन के शिकार हो गए है और उनकी कलम बांझपन की। भगतसिंह के शहादत दिवस पर जनसत्‍ता में छपे उनके लेख से तो यही साबित होता है। 23 मार्च को भगतसिंह का शहादत दिवस था। इस मौके पर जनसत्‍ता ने प्रख्‍यात ”बुद्धिजीवी” राजकिशोर के वैचारिक वमन को अपने संपादकीय पृष्‍ठ पर पर्याप्‍त जगह दी। इस लेख में राजकिशोर ने भगतसिंह के उद्धरण देते हुए भारत के नौजवानों को प्रेरित (भ्रमित) करने की पुरजोर कोशिश है, मुझे लगता है कि इस लेख को पढ़ कर कोई क्रान्तिकारी बने या न बने, भ्रान्तिकारी जरूर बन जाएगा और अपने संपर्क में आने वाले और लोगों को भी राजकिशोर के वैचारिक विभ्रम का शिकार बनाएगा। चलिए! अब इन भ्रामक तथ्‍यों और विचारों का बिंदुवार विश्‍लेषण भी कर लिया जाए।

लेख के चौथे पैरा में (शुरुआती तीन पैरा में उजागर हुए उनके दिमागी ढुलमुलपन की चर्चा बाद में करेंगे)लिखा है, ”…भगत सिंह के चिंतन में हमें भारत की सभी समस्‍याओं का हल मिल जाता है। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे गांधी के विचार और आचरण में…।” भई, अलग-अलग वैचारिक धरातल पर भारतीय समस्‍याओं का समाधान बताने वालों का रास्‍ता एक नहीं हो सकता और ऐसे में तय करना पड़ता है कि किसका रास्‍ता सही और व्‍यावहारिक है और एक बार तय कर लेने के बाद उसी रास्‍ते पर चलना चाहिए। लेकिन राजकिशोर जी भगतसिंह और गांधी दोनों ही के रास्‍तों को भारत के लिए हितकारी बता रहे हैं, जबकि दोनों में कहीं भी वैचारिक साम्‍य नहीं था। अगर भगतसिंह के पास भारतीय समस्‍याओं का समाधान था, तो गांधी के नाम का जाप क्‍यों? अगर उनके पास हल नहीं था, तो राजकिशोर को दृढ़ता से गांधी के रास्‍ते पर चलने का आह्वान करना चाहए था, भगतसिंह के शहादत दिवस पर लगभग आधा पन्‍ना काला करने की क्‍या जरूरत थी। जहां तक रास्‍ते का सवाल है, जिस भगतसिंह के नाम की माला खुद राजकिशोर जप रहे है, उन्‍हीं भगतसिंह ने भी कहा था कि, ”गांधी एक दयालु मानवतावादी व्‍यक्ति हैं। लेकिन ऐसी दयालुता से सामाजिक तब्‍दीली नहीं आती…।” (जगमोहन और चमनलाल द्वारा संपादित उसी किताब, ‘भगतसिंह और उनके साथियों के दस्‍तावेज’, की भूमिका जिसका मनमाना प्रयोग राजकिशोर ने अपने लेख में किया है) लगता है, या तो राजकिशोर ने खुद कभी इस पुस्‍तक और भगतसिंह को पूरी तरह पढ़ा और समझा नहीं है या फिर जानबूझकर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश कर रहे हैं।

उनकी मूखर्तापूर्ण दलीलें यहीं खत्‍म नहीं होती। आगे वो उपरोक्‍त पुस्‍तक से भगतसिंह का हवाला देते हुए क्रान्ति की स्पिरिट ताजा करने की बात करते हुए कहते हैं, ” हमारे पास तो क्रांति का एक कानूनी दस्‍तावेज भी है। यहां में यह याद दिलाना चाहता हूं कि स्‍वतंत्र भारत का संविधान बनाते समय हमारे पूर्वजों ने गांधी की बातों को लगभग नहीं माना, लेकिन उन्‍होंने भगतसिंह का पूरा सम्‍मान किया।यह सम्‍मान जान-बूझ कर या समझ-बूझ कर किया गया था, यह बात मानने लायक नहीं लगती। यह सम्‍मान अनजाने में ही हुआ और इसीलिए हुआ कि उस समय दुनिया भर में समाजवाद को ही सभी बंद तालों की एकमात्र कुंजी के रूप में देखा जा रहा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि संविधान बनाते समय भारत के एक बड़े बौद्धिक और राजनीतिक वर्ग ने चरम प्रकार का आत्‍म-मंथन किया था। वे कोशिश कर रहे थे कि दुनिया की विभिन्‍न व्‍यवस्‍थाओं में जो कुछ श्रेष्‍ठ है, उसे अपने सर्वाधिक मूल्‍यवान राष्‍ट्रीय दस्‍तावेज में समेट लिया जाए।…संविधान सभा में जैसी गहरी और ईमानदार बहसें हुईं, उनकी परछाई भी अब देखने को नहीं मिलती।…”वाह भाई राजकिशोर! ‘निठल्‍ला चिंतन’ नाम का एक हिंदी चिट्ठा (ब्‍लॉग) इंटरनेट पर देखा था, लेकिन आपने वाकई में इस नाम को सार्थक कर दिया। इस नाम की एक वेबसाइट अपने नाम से रजिस्‍टर करा लीजिए, ज्‍यादा उचित होगा। खैर उनके इस मुक्‍त चिंतन पर टिप्‍पणी करने से पहले पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की कविता ‘संविधान’ का उल्‍लेख करना मौजूं होगा:

यह पुस्‍तक मर चुकी है

इसे न पढ़ें

इसके शब्‍दों में मौत की ठण्‍डक है

और एक-एक पृष्‍ठ

जिन्‍दगी के आखिरी पल जैसा भयानक

यह पुस्‍तक जब बनी थी

तो मैं एक पशु था

सोया हुआ पशु…

और जब मैं जगा

तो मेरे इंसान बनने तक

यह पुस्‍तक मर चुकी थी

अब यदि इस पुस्‍तक को पढ़ोगे

तो पशु बन जाओगे

सोये हुए पशु।