Thursday, March 6, 2008

वामपंथी कलयुग की एक कहानी

वामपंथी कलयुग की एक कहानी

आलोक तोमर



कॉमरेडों को देश का विकास भी चाहिए, पूंजीवाद के विरोध के बाजूद बंगाल में देसी और विदेशी सेठों का पूंजी निवेश भी चाहिए और इसके लिए वे नंदीग्राम और सिंगुर में किसानों को पीटने और उनके जूनियर कॉमरेड इन गरीबों की औरतों के साथ मौज उड़ाने में मार्क्‍साद का कोई पतन नहीं देखते। बार-बार मनमोहन सिंह को धमकी दी जती है कि अमेरिका के साथ करार की बात भी की, तो सरकार खतरे में पड़ेगी। एक बार, सिर्फ एक बार मनमोहन सिंह ने जब दे दिया था कि सरकार कल गिराते हो, तो आज गिरा दो, तो कॉमरेडों की बोलती काफी दिन के लिए बंद हो गई थी।

बंगाल में लगातार, केरल में बारी-बारी से और आज की तारीख में देश के छोटे-बड़े कुल पांच राज्यों में वाम मोर्चा की सरकारें चल रही हैं और त्रिपुरा का फैसला आने के पहले की यह बात है। लेकिन उसकी असली दादागीरी तो संसद में बैठे उसके चालीस लोक सभा सदस्यों से चलती है और उन्हें पता है कि आज के चुना गणित में चालीस का यह आंकड़ा यूपीए के लिए बहुत जरूरी है। लेकिन वामंपथी अंर्तरिोध इतने ज्यादा खुल कर सामने आ रहे हैं कि साल बार-बार पूछा जने लगा है कि इस लाल कलयुग का अंत कब होगा? खास तौर पर बंगाल में तो हर बार माहौल मार्क्‍साद विरोधी दिखाई पड़ता है मगर फिर भी सरकार वाम मोर्चा की बन जती है।

लेकिन वाम मोर्चा की दरारें अब सबके सामने हैं। बाकी दल मार्क्‍सादी कम्युनिस्ट पार्टी पर तानाशाही और दादागीरी का आरोप लगा रहे हैं और सीताराम येचुरी और प्रकाश करात वाम आंदोलन के बड़े भाई बन जने की अपनी म्रुा से खूब मौज ले रहे हैं। दरअसल जिस पार्टी का जन्म ही भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा को निभाने की बजय तत्कालीन सोयित संघ के दबावों की जह से हुआ हो और आज ही पार्टी अमेरिका की बजय रूस से परमाणु संधि करने के लिए तत्पर ही नहीं, आकुल भी दिखाई पड़ रही हो, तो जहिर है कि उसकी प्राथमिकताएं मूलत: और अंतत: भारतीय नहीं हैं।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भले ही आजदी के आंदोलन में कोई बहुत बड़ी भूमिका नहीं निभाई हो, लेकिन दूसरे विश्व ियुद्घ के बाद यह भारत में एक ताकत बन चुकी थी। इसने तेलंगाना, त्रिपुरा और केरल में उसी तरह हथियारबंद लड़ाई छेड़ी थी, जसी बाद में नक्सलबाड़ी से शुरू हुई और आज माओवादियों के हाथ में पहुंच गई है। बाद में कम्युनिस्ट पार्टी को भी समङा में आ गया कि इतने बड़े देश में हिंसा का संस्कार पनप नहीं सकता और संसदीय मर्यादा में रह कर ही काम करना होगा इसीलिए १९५0 में पार्टी के महासचि बी टी रणदि्वे को पद से हटा दिया गया था क्योंकि वे क्रांति की बातें करते थे।

जहर लाल नेहरू के दौर में भारत में दूसरा कोई महानायक नहीं था। नेहरू सोयित संघ को अपना अंतरंग और सभाकि मित्र बनाने पर तुले हुए थे और बदले में सोयित सरकार ने भारतीय ामपंथियों से कहा था कि े नेहरू की सरकार के प्रति उदार रहें और कांग्रेस का यथासंभ सहयोग करें। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बहुत बड़े तबके का मानना था कि नेहरू की प्रगतिशील छ िके बाजूद भारत एक सामंती समाज ही है और यहां खुलेआम र्ग संघर्ष किए बगैर समानता का रास्ता नहीं निकलेगा।

उसी दौरान १९५९ में कें्र सरकार ने देश की पहली ामपंथी सरकार यानी केरल में ई एम एस नमोदरीपाद का तख्ता पलट दिया और हां कें्रीय शासन स्थापित कर दिया। संयोग से उस समय यह देश में अकेली गैर कांग्रेसी सरकार थी। उसी समय चीन और सोयित संघ की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच संबंध बिगड़ गए और नतीजे में चीन और भारत के रिश्ते भी तना से भर गए। १९६२ में तो भारत-चीन युद्घ हुआ ही था और उसमें बहुत सारे कॉमरेड चीन के साथ थे। उनका कहना था कि यह एक समाजदी यानी चीन और पूंजीादी यानी भारत ताकत के बीच संघर्ष है। यह सीधा देश्रोह था, लेकिन वामपंथियों की राजनीति में ्रोह और निष्ठा के शायद अलग पैमाने होते हैं। श्रीपाद अमृतढांगे, ए के गोपालन और ई एम एस नमोदरीपाद ने भारत का साथ दिया। उधर दूसरी ओर बी टी रणदि्वे, पी सुंदरैया, पी सी जोशी, बास पुन्नइैया, ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत उस समय खुलेआम चीन का समर्थन कर रहे थे। एकमात्र अजय घोष थे, जो तटस्थ भूमिका में थे। कुल मिला कर बंगाल के ज्यादातर कम्युनिस्ट नेता चीन का समर्थन करने में जुटे हुए थे और इनमें से कई को पकड़ कर जेल भी भेज दिया गया।

१९६२ में अजय घोष की मृत्यु हो गई और उनकी जगह एक नया पद बना कर श्रीपाद अमृतढांगे को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। ई एम एस नमोदरीपाद महासचि बने, लेकिन १ अप्रैल, १९६४ को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में कार्यकारिणी के बत्तीस सदस्य ढांगे और उनके समर्थकों पर कम्युनिस्ट रिोधी होने का आरोप लगा कर अधिेशन से बाहर निकल गए और उन्होंने आंध्र प्रदेश के तेनाली कस्बे में ७ से ११ जुलाई तक एक सम्मेलन करके एक नया संगठन बनाने पर चिार किया। इसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के १४६ प्रतिनिधि थे और उनका दा था कि े एक लाख से अधिक कॉमरेडों का प्रतिनिधित् कर रहे हैं। इसी सम्मेलन में तय हुआ कि कोलकाता में पार्टी की सातीं कांग्रेस का आयोजन किया जएगा। दिलचस्प बात यह है कि मार्क्‍सादी कम्युनिस्ट पार्टी का बीज तेनाली के जिस सम्मेलन में पड़ा था, हां मंच पर सिर्फ एक ही आदमकद तस्ीर थी और ह चीन के नेता माओत्ससे तुंग की थी।

दरअसल सिलीगुड़ी, कोलकाता और दिल्ली में हुई पार्टी की बैठकों में एक साल यह भी बार-बार उठता रहा कि मंच पर माओ की तस्ीर क्यों नहीं है? मार्क्‍सादी कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म जिस सभा में हुआ, हां भी मार्क्‍स की नहीं, माओ की तस्ीर मंच पर थी। आज इन्हीं मार्क्‍सादियों के नेतृत् में चलने ाली बंगाल सरकार माओादियों को अपराधी बता कर मौत के घाट उतारने पर तुली हुई है और अमेरिका की बजय चीन से नहीं, रूस से परमाणु संधि की कालत कर रही है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की दशा वैसी ही हुई, जसी संयुक्त परिार में एक सहनशील बड़े भाई की होती है। आज राज्य सभा की एक सीट के लिए ह मार्क्‍सादी कम्युनिस्ट पार्टी के सामने हाथ फैला रही है और उसे जब तक नहीं मिलता। इतिहास के फुटपाथ पर अपनी मूल पार्टी को भिखारी की तरह दुत्कारने वाले और छद्म समाजद के रथ पर सार ामपंथियों को तो शायद यह भी याद नहीं होगा कि साक्षरता के मामले में वे देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक हैं।

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