Saturday, April 5, 2008

क्रिकेट राजनीति का तीसरा अंपायर



सुप्रिया रॉय
राजीव शुक्ला आज राजनीति में भी हैं, क्रिकेट में भी, पत्रकारिता में भी, खबरों के कारोबार में भी और ग्लैमर की दुनिया में भी। सैंतालीस साल की उम्र में राज्य सभा में दूसरी बार आ जाने और देखते ही देखते क्रिकेट की दुनिया पर छा जाने वाले राजीव शुक्ला ने बचपन में कंचे और गिल्ली ठंडा खूब खेला है और कानपुर के दैनिक जागरण में, बड़े भाई दिलीप शुक्ला की छत्र छाया में जब उन्होनें पत्रकारिता शुरू की होगी तो ज्यादातर लोगों की तरह उनकी उम्मीदें बड़ी भले ही हों लेकिन खुद उन्हें अंदाजा नही होगा कि आखिर उनकी नाव किस घाट पर जा कर लगेगी। आज वे सफल भी हैं, समृध्द भी और प्रसिध्द भी लेकिन यह नही कहा जा सकता कि उनकी नाव घाट पर लग गई है। अभी बहुत सारी धाराएं, बहुत सारे भंवर और बहुत सारे प्रपात रास्तें में आने हैं और राजीव शुक्ला को उन्हें पार करना है। इतना तो है कि 1983 में दिल्ली के एक क्रांतिकारी अखबार में नौकरी के लिए इंटरव्यूह देने आए सभी लोगों के बीच कम से कम ढाई हजार रुपए की मांग करने की आम सहमति बनाते धूम रहे राजीव शुक्ला आज अपने टी वी चैनल में लोगों को आसानी से ढाई-ढाई लाख रुपए की नौकरियां देते हैं और एक जमाने में स्कूटर तक नही खरीद पाने वाले राजीव अब हवाई जहाज से नीचे नही उतरते और आम तौर पर उन्हें चार्टड जहाजों में भी देखा जाता है।
इन दिनों जब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में वर्चस्व की लड़ाई जोर शोर से चल रही है, जगमोहन डालमिया पर आरोप लगें हैं और वे इनके जवाब में लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के मूड में हैं, भारतीय क्रिकेट टीम कभी शेर हो जाती तो कभी ढेर हो जाती है- ऐसे दौर में बी सी सी आई के ताकतवर उपाध्यक्ष और सबसे प्रसिध्द चेहरे के तौर पर होने के बावजूद राजीव शुक्ला विवादों के घेरे में नही आते। वे रणवीर महिन्द्रा, बिन्द्रा, ललित मोदी और शरद पवार के साथ आसानी से चल लेते है और यह बात बहुतों को आश्चर्य में डालती है लेकिन उन्हें नही जो राजीव शुक्ला की फितरत को जानते हैं। बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो काफी आसानी से राजीव शुक्ला के सब तरह के उथान को जूगाड़ और अवसरवाद करार दे कर अपना कलेजा ठंडा कर लेते हैं और उनके पास इसके बारे में कुछ तर्क, कुछ कारण जरूर होगें लेकिन उनके लिए यह समझना कठिन है कि अस्तित्व और आकांक्षा के अध्दैत को साधने के लिए निर्गुण और सगुण का नही निराकार और साकार में से साकार का चुनाव करना पड़ता है। राजीव शुक्ला ने राजनीति के साकार पात्रों को साधा और एक बड़ी बात यह है कि धाराएं भले ही अलग हो गई हो, नाता किसी से नही तोड़ा। पता नही कब और किस मोड़ पर वे यह ध््राुव सत्य सीख गए थे कि असली निवेश रिश्तों में किया गया निवेश होता है। जब वे राज्य सभा का पहला चुनाव निर्दलीय लड़े और बड़े बड़े धन्ना सेठों को हरा कर सबसे ज्यादा वोटों से जीते तब यह सच पहली बार उनके संदर्भ में सामने आया था।
राजीव शुक्ला के बहाने समकालीन राजनीति का और खेल की राजनीति का एक पूरा खाका आप खींच सकते हैं। वे जब किराए के एक मकान में, सरकारी कॉलोनी में कई दोस्तों के साथ रहते थे तो अखबार के काम के अलावा उनका ज्यादातर समय अपनी निजी संपर्क डायरेक्टरी विकसित करने में बीतता था। दिल्ली आ कर वे सबसे पहले पड़ोसी मेरठ जिले के संवाददाता बने और देखते ही देखते मेरठ खबरों के अखिल भारतीय नक्शे पर आ गया। फिर वे रविवार में गए और जिस समय विश्वनाथ प्रताप सिंह को निरमा साबुन से भी ज्यादा साफ समझा जाता था और उन्हें जयप्रकाश नारायण के उत्ताराधिकारी के तौर पर स्थापित करने की समवेत कोशिशें चल रहीं थी, राजीव ने रविवार के आवरण कथा में एक सच लिख कर सबके छक्के छुड़ा दिए। सच यह था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक नाटकीय क्षण में अपनी बहुत सारी जमीन विनोबा भावे की भूदान यात्रा में दान कर के यश कमाया था और फिर जब उन्हें लगा था कि गलती हो गई तो उन्होनें अपनी पत्नी की ओर से अपने ही खिलाफ हलफनामा दिलवाया कि उनका पति पागल है और उसके ध्दारा दस्तखत किए गए किसी भी दस्तावेज को कानूनी मान्यता नही दी जाए। राजीव शुक्ला को कांग्रेस का एजेंट घोषित कर दिया गया मगर वे यह मुहावरा चलने के बहुत साल पहले मुन्ना भाई की तर्ज पर लगे रहे। कम लोग जानते हैं कि शाहबानों प्रसंग में बागी आरिफ मोहम्मद खान और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच संवाद का एक सबसे बड़ा सेतु भी राजीव ही थे और यही उनके इस परिवार से संपर्क स्थाापित होने की शुरूआत थी।
क्रिकेट की दुनिया में राजीव शुक्ला को स्वर्गीय माधव राव सिंधिया लाए थे। राजीव ने इस खेल की महिमा और ताकत को पहचाना और इसके सहारे कई राजनैतिक मंजिलें भी पार की। इस बीच वे अचानक बहुत हाई प्रोफाइल हो चुके थे, राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच चाहे जैसी तनातनी चलती रहे लेकिन दोनों की विदेश यात्राओं में राजीव की सीट पक्की होती थी। दिल्ली की पीटीआई बिल्डिंग में अपने ऑफिस में काम करते वक्त पीटीआई की एक बहुत दमदार पत्रकार अनुराधा से पहचान हुई, रिश्ता बना और आज तक बना हुआ है। अनुराधा टीवी में चैनलों की क्रांति होने के पहले से ही दिलचस्पी रखती थी और पीटीआई टीवी के नाम से शुरू हुई संस्था में उनकी मुख्य भूमिका थी। राजीव शुक्ला से भी उन्होनें दूरदर्शन पर बड़े लोगाेंं से अंतरग मुलाकातों का कार्यक्रम रूबरू शुरू करवाया। इस कार्यक्रम को आज एनडीटीवी पर चलने वाले शेखर गुप्ता के वॉक द टॉक का पूर्वज माना जा सकता है। इसी दौरान वे फिल्मकार रमेश शर्मा के टीवी शो के लिए निकले और चंबल घाटी पर कई ऐपीसोड की किस्तें बना कर ले आए।
राजीव शुक्ला की कहानी हमारे समय की राजनीति की एक प्रतिनिधि कथा है। बहुत सारे परिचित और अपरिचित हैं जो राजीव शुक्ला की छवि को पच्चीस साल पुराने सांचे में रखकर देखते हैं जब वे दिल्ली की एक्सप्रेस बिल्डिंग के बगल के एक ढाबे में दोस्तों के साथ खाना खाते थे और अपने हिस्से का दाम चुकाने के लिए चिल्लर की तलाश करते थे। नए अवतार में राजीव शुक्ला पुराने ही हैं मगर उनकी एक छवि में बहुत सारी छवियां समा गई हैं। उनके दोस्तों में अब शाहरुख खान भी हैं और विजय माल्या भी। अंबानी कुटुबं से तमाम विरोधाभासों के बावजूद उनकी इतनी तो निभती ही है कि अंबानी समूह के अखबार ऑब्जर्बर के संपादक वे सांसद बनने के बाद तक बने रहे। आज भी संसद की उनकी परिचय पुस्तिका में उनका पेशा पत्रकारिता ही लिखा हुआ है। रिडिफ वेबसाईट ने तो उन्हें पिछले पंद्रह साल से भारत में सबसे ज्यादा प्रभावशाली संपर्को वाला पत्रकार घोषित किया हुआ है। हिंदी मीडियम में पढे अौर ज्यादातर हिंदी पत्रकारिता करने वाले राजीव शुक्ला ने इतनी धमाकेदार अंग््रोजी कब और कहां से सीख ली, यह जरुर सबके लिए रहस्य बना हुआ है।
लिखने के मामले में राजीव शुक्ला प्रभाष जोशी या राजेन्द्र माथुर नही हैं और न उनकी रिर्पोटिंग में पत्रकारिता में उनके अग््राज उदयन शर्मा वाली तल्लीनता है। लेकिन उनके लिखने, राजनीति करने और क्रिकेट से ले कर कांग््रोस तक के उलझे हुए समीकरण सुलझाने में एक त्वरित तात्कालिकता जरुर है जो उन्हें किसी का विकल्प बनने की मजबूरी में नही फंसाती। बचपन में वे अपने कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम कितने गए हैं यह तो पता नही लेकिन क्रिकेट की दुनिया में अपनी प्रासंगिकता बनाने के लिए वे टीम के मैनेजर भी बने और बहुत सारे निशाने साधने वाले तीरंदाज भी। जगमोहन डालमिया और शरद पवार के बीच डालमिया के भूतपूर्व शिष्य इंद्रजीत सिंह बिंद्रा की वजह से जो लफड़ा शूरू हूआ है उसे निपटाने में राजीव शुक्ला की बड़ी भूमिका रहने वाली है। आपने गौर किया होगा कि डालमिया ने शरद पवार, निरंजन शाह और उनकी मंडली पर सैकेंड़ों करोड़ के घोटाले के आरोप लगा डाले हैं, शरद पवार को तो उन्होनें मुशर्रफ से बड़ा तानाशाह कह डाला है लेकिन इस शत्रु सूची में राजीव शुक्ला का नाम नही है। राजीव शुक्ला क्रिकेट की राजनीति के लगभग अदृश्य रहने वाले तीसरे अंपायर हैं।
आख़िर राजीव शुक्ला भी तो जनसत्ता के आदिवासी हैं

Thursday, April 3, 2008

उट्ठो ज्ञानी खेत संभालो

प्रभाष जोशी
घाटे पानी सब भरे औघट भरे न कोय।
औघट घाट कबीर का भरे सो निर्मल होय।।
साधो, क्या तुम मानोगे कि मनमोहन सिंह का सपना भारत और इंडिया की दूरी खत्म करना है? तुम साधुओं को किसी पर भी अविश्वास नहीं करना चाहिए। फिर ये तो साक्षात प्रधानमंत्री हैं। सौ करोड़ से ज्यादा लोगों का यह देस उन पर भरोसा करता है। यह बात अलग है कि वह खुद अपने आदमी नहीं हैं। पहले राजीव गांधी की तरफ देख कर काम करते थे। फिर नरसिंहा राव ने उन पर भरोसा किया। और राव साब भले ही सोनिया गांधी को फूटी आंखों नहीं भाते होंगे, सोनियाजी का मौका आया तो उनने भी मनमोहन सिंह पर ही भरोसा किया। बल्कि नरसिंहा राव से भी ज्यादा किया। उनने तो इन्हें वित्तमंत्री बनाया था। सोनियाजी ने तो प्रधानमंत्री ही बना दिया। ऐसे भरोसेमंद आदमी हैं। कोई चीज़ माथे में नहीं जाती। कभी पर नहीं उगते। जो कहा जाता है अपना तन, मन, धन लगाकर वही करते हैं। जिन पर राजनीति के बेबिस्वासी लोग इतना भरोसा करते हैं उनको हम साधु लोग शक की नज़र से क्यों देखें?
मनमोहन सिंह पंजाब के जिस गांव में जन्में थे वह आज़ादी के पहले का गांव था और अब पाकिस्तान में रह गया है। वह गांव ही था तो साफ-सफाई, पीने का पानी, बिजली, पाठशाला आदि कुछ भी वहां नहीं था। धूल धक्कड़, गंदगी और फटेहाली ही थी। उन्हें पढ़ने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता था। मनमोहन सिंह को उस गांव की बहुत याद आती है। तभी से उनको धुन लगी हुई है कि गांव और शहर की दूरी पट जाए और गांव वाला किसान देख सके कि उसका जीवन स्तर शहर वाले से कमतर नहीं है।
यानी साधो, मनमोहन सिंह गांव को मुंबई और मुंबई को शंघाई बनाना चाहते हैं। जैसा अमेरिका वालों ने गांवों को शहर बनाकर गांवो का नामो निशान नहीं छोड़ा है और खेती को कारखाना बना दिया है वैसा ही मनमोहन सिंह का सपना है। अब दिक्कत यह हो रही है कि सत्रह साल पहले उनने जो आर्थिक नीतियां चलाई थी वो फल-फूल कर गांवो को शहर बनाने में लगी हैं। जैसे ऑमलेट को बनाने के लिए अंडों को तोड़ना पड़ता है वैसे ही गांव को खत्म किए बिना गांववालों को शहर की सुविधाएं नहीं दी जा सकती। इंडिया और भारत का संघर्ष खत्म करने के लिए भारत को खत्म करना पड़ेगा। इंडिया तभी बनेगा। उसमें गांव वाले नहीं रहेंगे। शहरी ही होंगे जो अपने विमान और हेलीकॉप्टर से खेती देखने जाएंगे और शाम तक लौट आएंगे। कभी मौज के लिए रुकना हुआ तो रेंच हाउस होंगे ही।

अपना वही सपना पूरा करने के लिए मनमोहन सिंह सत्रह साल से खेती, गांव, गंदगी, काहिली सब खत्म करने में लगे हुए हैं। उनकी पूरी तैयारी है कि गांव वाले खेती छोड़ कर शहर में उद्योग चलाएं नहीं तो बाहर से आने वालों की सेवा करें। खेती अंबानियों, मित्तलों, टाटाओं और बिरलाओं के करने का काम रह जाए। जैसे वे कारखाना लगा कर लाभ कमाते हैं वैसे ही खेती करके कमाएंगे। खेती किसान का नहीं कॉर्पोरेट का काम है। तभी तो आज के आधे से ज्यादा किसान खेती छोड़ने के लिए तैयार किए जा रहे हैं। अभी कालाहांडी का किसान साल भर हाड़तोड़ मेहनत करके सिर्फ तीन हज़ार रूपए पाता है। अंबानी और शेयर बाज़ार के बेटे बिना कुछ किए ही रातो रात करोड़ों कमा लेते हैं। आज खेती में बड़ा घाटा है। अंबानी का हाथ लगते ही वह सोना उगलने लगेगी। साधो, उट्ठो अपना खेत संभालो।
तहलका में प्रभाष जी का लोकप्रिय स्तम्भ

Wednesday, April 2, 2008

भीख नहीं है शिक्षा और रोजगार

आलोक तोमर
भारत की संसद को रोजगार गारंटी कानून बनाने में तीन साल लगे। विधेयक 2005 के बजट सत्र के बाद लाया गया था लेकिन खासतौर पर कॉरपोरेट समूहों के मीडिया द्वारा तमाम तरह के सवाल उठाने के बाद वोटों और प्रचार की चिंता में कोई खुल कर सामने नहीं आ रहा था और आजिविका का संविधान में दिया गया मौलिक अधिकार संसद की फाइलों में एक कागजी सपना बन कर बैठा हुआ था।
इसमें कोई शक नहीं कि इतने बडे देश में इतने ज्यादा लोगों को रोजगार देना और उसके लिए उचित अवसर पैदा करना एक असाध्य काम है। यहां मैं असाध्य शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं असंभव का नहीं। देश को अंग्रेजों से आजाद करवाना असंभव माना जाता था और वह भी इसी देश के लोगों की इच्छाशक्ति ने संभव कर दिखाया। यह आजादी तब तक पूरी नहीं होगी जब तक यह आजीविका के लिए आजाद लोगों का देश नहीं बनेगा। इस कानून से सबसे ज्यादा परेशान वे लोग हैं जिन्होंने अपना कारोबार पहले कोटा परमिट राज में जुगाडाें से और अब खुली अर्थव्यवस्था में अपनी उद्यम शक्ति से खडा किया है और दुनिया में जगह बनाई है। विशेषज्ञता और तकनीकी कौशल की मांग करने वाले इन कॉरपोरेट घरानों को अगर यह बर्दाश्त नहीं है कि सरकार के आदेश पर उन्हें कर्मचारी अपने नियम और संहिता तोड क़र रखने ही पडें तो इस आपत्ति को समझा जा सकता है। आखिर दस करोड शिक्षित और प्रशिक्षित तथा पच्चीस करोड अन्य बेरोजगारों के लिए रोजगार का अवसर पैदा करना आसान नहीं है। इसके लिए मनमोहन सिंह की खगोलीय अर्थव्यवस्था को चुनौती देनी होगी और रोजगार से जुडी अपनी सामाजिक मानसिकता भी बदलनी पडेग़ी।
अभी जो सामाजिक मानसिकता है उसके अनुसार रोजगार का पहला अर्थ होता है कि सरकारी नौकरी मिल जाए। उसमें लोगों को आश्वस्ति और सुरक्षा नजर आती है लेकिन खुद सरकार के पास इतनी नौकरियां नहीं हैं और जो लाल फीताशाही का हाल है उसमें नौकरियों के अवसर पैदा करने में इतनी बाधाएं और इतने घोटाले होने तय हैं कि योजना की पवित्रता तो खंडित होगी ही, इसका पूरा उद्देश्य मिट्टी में मिल जाएगा। इसके लिए पहली जरूरत तो यह है कि रोजगार गारंटी कानून में योग्यता के आधार पर उपयुक्त आजीविका देने का प्रावधान जोडा जाए। आप अगर निकम्मे लोगों को रॉकेट उडाने पर लगा देंगे तो उसके नतीजे बहुत अच्छे नहीं मिलने वाले। अभी तक सरकार औद्योगिक घरानों को कारखाने और विशेष आर्थिक क्षेत्र-सेज -बनाने के लिए किसानों की जमीन जबर्दस्ती हडपने के अधिनियम पारित करती रही है लेकिन अपनी मूल आत्मा में रोजगार गारंटी कानून कामगार वर्ग को शक्ति देने वाला है और यही इसका सबसे बडा खतरा है।
पहला खतरा तो यह है कि कानून तो बन गया लेकिन जमीनी स्तर पर इसका पालन कैसे होगा इसका अभी तक कोई ढांचा नहीं बनाया गया है। अभी कुछ दिन पहले इंडिया डेवलपमेंट फाउंडेशन नाम के एक लगभग अज्ञात संगठन द्वारा एक सर्वेक्षण करवा कर बहुत सारे ढोल नगाडे पीटे गए थे। इस कॉरपोरेट सर्वेक्षण में बताया गया था कि रोजगार गारंटी योजना से मुद्रास्फीति बढेग़ी और इसका कारण बताया गया था कि सरकार पर खर्चे का बोझ और बढ ज़ाएगा। विनम्र निवेदन है कि भारत में रक्षा सेवाओं पर होने वाला खर्चा पूरे देश के बेरोजगारों को रोजगार दिलवाने में हो सकने वाले खर्चे का दसवां हिस्सा भी नहीं है और यह एक दिन में खर्च नहीं होने वाला। अभी जो गांव देहात में गरीबों को साल में चालीस पचास दिन के लिए रोजगार की जो गारंटी दी जाती है उसका सभी राज्यों को मिला कर बजट निकाला जाए तो इस पूरे खर्चे से ज्यादा बैठेगा। इन योजनाओं के नतीजे सबको मालूम हैं।
उधर सरकार भी अपनी ओर से बहुत टुच्चे प्रचार में उतर आयी है। सरकार के प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो 28 दिसम्बर 2007 को एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिए यह ऐलान किया था कि रोजगार गारंटी योजनाएं बहुत सफल हुई हैं। यह प्रेस विज्ञप्ति एक फरमान की तरह थी कि जिसमें एक भी आंकडा नहीं दिया गया था। सरकारी इमाम जो बोले उसे फतवा मान लो और उस पर भरोसा करो। यह तब है जब सरकार की ही सीएजी रपट में लगातार साठ पन्नों में बताया गया है कि देश के सबसे गरीब इलाकों में जो पैसा दिया जाता है वह गरीबों तक कभी नहीं पहुंचता। हालांकि यह कोई रहस्योद्धाटन नहीं है लेकिन सरकार की पहले से शंका में घिरी हुई नीयत पर और बडे सवाल खडे क़रता है। इससे मुक्ति पाना सरकारी तंत्र के ही हाथ में है।
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना पर अमल करवाना मूलत: ग्रामीण विकास मंत्रालय के हाथ में रहने वाला है क्योंकि सबसे ज्यादा बेरोजगार इन्हीं क्षेत्रों में हैं। रोजगार देकर सरकार कोई परोपकार नहीं कर रही है, सिर्फ अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करने का अवसर उसने भले ही चुनावी कारणों से, स्थापित किया है। यह अवसर एक दुर्भाग्य में नहीं बदले और रोजगार सबको उपलब्ध हो, लोकतंत्र सबकी दहलीज तक पहुंचे इसके लिए सबसे पहले लोकतंत्र को बदनीयत हाथों से बचाने की जरूरत है। दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे संविधान में शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं है और इसके लिए भी एक कानून बनाने का प्रस्ताव संसद में तीन साल से ही पडा हुआ है। इस साल मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की पहल पर संसद सत्र के पहले हुई मंत्रिमंडल की बैठक में तय किया गया था कि इस विधेयक को भी कानून बना दिया जाएगा और इसके लिए जो अपार खर्चा आएगा वह खुली अर्थव्यवस्था से पैसा कमाने वालों से ही वसूला जाएगा।
आपको याद होगा कि अनिवार्य शिक्षा के लिए पहले से दो प्रतिशत का एक टैक्स पिछले तीन साल से लागू है और इस कोष में अरबों रुपये जमा हो गए। केंद्रीय विद्यालय संगठन से लेकर नवोदय और बहुत सारे विश्वविद्यालय देश में मौजूद हैं और जरूरत पडने पर और खोले जा सकते हैं। जब तक रोजगार की गारंटी और शिक्षा की गारंटी एक साथ लागू नहीं होगी तब तक साफ है कि हमारे पास करने का इरादा तो होगा लेकिन अवसरों को भरने के लिए पात्र नहीं होंगे। भले ही इसे चुनावी कहा जाए लेकिन शिक्षा के अधिकार को मौलिक बनाना संविधान की रचना में हुई एक अक्षम्य भूल को सुधारने का काम हो सकता है और वह होना ही चाहिए। वरना आप कागज पर कानून बनाते रहिए और अदालतों में इसके विरोध को झेलते रहिए। रोजगार और शिक्षा दोनों बहस के नहीं प्रतिबध्दता के विषय हैं और इस पर जो बहस करता है उसे हैलिकॉप्टर में लाद कर अरब सागर में फेंक देना चाहिए।
शब्दार्थ